दो साल में एक बार भी बिहार नहीं जाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 2 मार्च के बाद के पांच दिनों में तीन बार बिहार का दौरा कर चुके हैं। चुनावी माहौल है और इस ‘महान नेता’ के लिए यह वक्त है बदलाव के नए-नए वादे करने का, भारत और बिहार को फिर से महान बनाने का सपना दिखाने का। इस बदलाव में होगा क्या? बिहार में निवेश आएगा? सरकारी नौकरी दी जाएगी? पकौड़े का ठेला लगाने के लिए लोन मिलेगा? किसी को कुछ नहीं पता। खैर, आने वाले समय में ऐसी और यात्राएं होंगी क्योंकि यहां दांव बड़ा है।
बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं और यह हिन्दी पट्टी का अकेला ऐसा राज्य है जहां बीजेपी अपने बूते जीत का परचम नहीं फहरा सकी है। इस नाते, इसे संयोग कहें या सोच-समझकर तैयार की गई रणनीति कि प्रधानमंत्री की ये रैलियां औरंगाबाद, बेगूसराय और बेतिया (पूर्वी चंपारण) में हुईं जिन्हें बीजेपी समर्थक ताकतवर ऊंची जातियों- राजपूत और भूमिहार का गढ़ माना जाता है।
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राज्य में बीजेपी को सहयोगियों की जरूरत है, इसका साफ इशारा तब मिला जब औरंगाबाद की रैली में मोदी ने एक दुर्लभ नजारा पेश किया। उन्होंने एक बड़ी सी माला के भीतर अपने साथ नीतीश कुमार को भी खड़े होने का मौका दिया। ऐसे समय उन मौकों को याद करना लाजिमी है जब राजनाथ सिंह जैसे नेताओं को भी माला के घेरे से बाहर रखा गया था। प्रचार की रोशनी का कोई कोना भी कोई पीएम मोदी से छीन नहीं सकता!
इससे गदगद नीतीश ने जब अब कभी साथ नहीं छोड़ने का वादा किया तो मंच पर मौजूद मोदी और अन्य बीजेपी नेता हंस पड़े। यह निश्चित रूप से अपमानजनक था। इस तरह नीतीश पर हंसने से क्या बिहार के लोगों के आत्मसम्मान को ठेस नहीं पहुंची होगी? बेशक नीतीश के पास झुकने और पीएम को यह बताने के अलावा विकल्प नहीं था कि बिहार में उन्हें जो कुछ हासिल हुआ, वह मोदी के ही कारण है।
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बेशक नीतीश अपनी सच्ची तारीफ करने से भी थोड़ा संकोच करते हैं लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में अपने पहले दो कार्यकाल (2005-15) के दौरान, जब केन्द्र में यूपीए सरकार थी, अच्छा प्रदर्शन किया था। उसके बाद एनडीए की डबल इंजन सरकारों के पास दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है और इसी कारण आरजेडी और तेजस्वी यादव को ‘17 महीने बनाम 17 साल’ का नैरेटिव उछालने का मौका मिल गया। इसमें दावा किया जा रहा है कि राज्य में आरजेपी-जेडीयू-कांग्रेस-वामपंथी सरकार ने 2022 के बाद के 17 महीनों में जो किया, उतना तो नीतीश अपने उन 17 सालों में भी नहीं कर सके जिसका ज्यादा समय उनका बीजेपी के साथ गठबंधन था।
तेजस्वी यादव 17 महीनों में अपनी उपलब्धि के तौर पर जाति सर्वेक्षण, पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का दायरा बढ़ाने और स्कूल शिक्षकों की नियुक्ति को गिना रहे हैं। शिक्षकों और सहायक प्रोफेसरों की नियुक्ति में न पर्चा लीक हुआ और न कोई गड़बड़ी। इससे नीतीश यह कहने को मजबूर हो गए कि जिन वजहों से वह आरजेडी से अलग हो रहे हैं, उनमें एक यह भी है कि तत्कालीन उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव सारा श्रेय ले रहे थे।
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हालांकि लोकसभा चुनाव की बात अलग है, संगठन और बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं के अलावा संसाधन और उम्मीदवार- दोनों मायने रखते हैं। इन मोर्चों पर एनडीए ‘इंडिया’ गठबंधन से कहीं आगे है। 2014 में एनडीए ने 31 सीटें जीती थीं तो 2019 में राज्य की 40 में से 39 सीटें जीती थीं। 2014 में बीजेपी ने 22, एलजेपी ने 6 और उपेन्द्र कुशवाह की लोक समता पार्टी ने तीन सीटें जीती थीं। 2019 में बीजेपी और जेडी(यू) ने मिलकर चुनाव लड़ा और 17-17 उम्मीदवार उतारे और क्रमशः 17 और 16 सीटें जीतीं। एलजेपी ने छह सीटें जीतकर सफाया कर दिया।
2019 और 2024 में अहम फर्क
हालांकि 2024 की स्थिति अलग है। 2019 में पुलवामा आतंकी हमले और बालाकोट हवाई हमले के बाद राष्ट्रवादी उन्माद था। 2024 में न तो नीतीश वैसे रहे और न उनकी पार्टी। विपक्षी गठबंधन भी बेहतर तरीके से व्यवस्थित दिख रहा है। विपक्षी गठबंधन के लिए मुसलमानों और यादवों का समर्थन निश्चित दिखता है। इसके अलावा वामपंथी दल, विशेष रूप से सीपीआई (एमएल) जो ‘इंडिया’ गठबंधन का हिस्सा है, के पास उग्र और अनुशासित दोनों कार्यकर्ता हैं और पहली बार आरजेडी और कांग्रेस मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे।
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एक और भी अहम बात है महिलाओं के बीच नीतीश की लोकप्रियता का घटना। महंगाई और बेरोजगारी, काम के लिए पुरुषों के बढ़ते प्रवासन से महिलाएं बेचैन हैं। यहां तक कि शराबबंदी जिसका महिलाओं ने स्वागत किया था, शराब की अवैध बिक्री और तस्करी के कारण सिर के बल खड़ी हो गई है। युवा शराब की होम डिलीवरी कर रहे हैं और शराब पीने पर बड़ी संख्या में लोगों को जेल जाना पड़ा, केस झेलना पड़ा, जुर्माना देना पड़ा। इस तरह शराबबंदी महिलाओं के लिए दुःस्वप्न बन गई।
इस बार एक और अंतर है लालू की मौजूदगी। 2019 में लालू जेल में थे। इस बार किडनी प्रत्यारोपण के बाद खराब स्वास्थ्य के बावजूद वह लोगों से मिल रहे हैं और प्रचार कर रहे हैं। उन्होंने 3 मार्च को जब जनसभा में कहा कि ‘कौन है नरेन्द्र मोदी...कुछ नहीं है... हिन्दू भी नहीं है’, तो बीजेपी तिलमिला गई। टीवी चैनलों पर हंगामा मच गया और चर्चा होने लगी कि यह बयान ‘इंडिया’ गठबंधन के लिए कितना हानिकारक होगा। हालांकि बिहार में उनके निर्वाचन क्षेत्र ने इसे हाथों-हाथ लिया और पूरे देश में सोशल मीडिया पर ‘मोदी का परिवार’ और ‘मोदी का असली परिवार’ ट्रेंड करने लगा। लालू ने कहा कि तेजस्वी इसे बीजेपी के खिलाफ मिसाइल के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं। लालू ने भविष्यवाणी की कि सीमित संसाधनों का प्रभावी उपयोग ‘इंडिया’ गठबंधन की सफलता की कुंजी होगा।
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‘बच्चा’ हो गया परिपक्व
उधर, बीजेपी के नेता तेजस्वी यादव का माखौल उड़ाते हुए उन्हें ‘बच्चा’ और ‘नौसिखिया’ कहते हैं। लेकिन जिन लोगों ने उन्हें 2020 के विधानसभा चुनाव में प्रचार करते हुए देखा है, वे जरूर इससे असहमत होंगे। तब तेजस्वी ने अपने बूते आरजेडी को सबसे बड़ी पार्टी बना दिया था और गठबंधन को जीत दिलाने के करीब पहुंच गए थे। फरवरी में राज्य के सभी जिलों में उनकी 10 दिनों की यात्रा ने उनकी प्रतिष्ठा पर मुहर ही लगाई है। पटना के गांधी मैदान में इस यात्रा का समापन हुआ जिसमें खराब मौसम के बाद भी लाखों लोग शामिल हुए। लोगों को बरबस 1994 की वह रैली याद आ गई जब इसी गांधी मैदान पर लालू की सभा के लिए लोग उमड़े थे। तेजस्वी ने अखिलेश यादव, सीताराम येचुरी, दीपांकर भट्टाचार्य और राहुल गांधी जैसे लोगों के साथ खुद को खड़ा करके प्रभावित किया।
उन्होंने ताल ठोक के अपनी बात कही- ‘मोदी जी झूठ की फैक्टरी हैं और उनकी भारतीय जनता पार्टी वॉशिंग मशीन नहीं बल्कि कूड़ेदान है।’ जंगल राज के बारे में पीएम मोदी के तंज और उन्होंने कभी अपने पिता की उपलब्धियों के बारे में बात क्यों नहीं की, का जवाब देते हुए तेजस्वी ने कहा, ‘मेरे पिता ने लाखों लोगों को गुलामी से मुक्त कराया, उन्हें आवाज दी… रेल मंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान रेलवे ने 90,000 करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया… उन्होंने बिहार में पहिये और वैगन कारखाने खुलवाए... उन्होंने कुलियों की सेवाओं को नियमित किया और कुम्हारों को रोजगार सुनिश्चित करने के लिए ट्रेनों में कुल्हड़ में चाय उपलब्ध कराई। पिछले 10 सालों में आपके शासन में रेलवे ने क्या किया है?’
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मोदी की गारंटी का जिक्र करते हुए भी उनके जवाब तीखे थे- ‘क्या आप गारंटी दे सकते हैं कि मेरे चाचा आपके साथ रहेंगे?’ चाचा का यह संबोधन नीतीश कुमार के लिए था। गौर करने वाली बात है कि इस युवा नेता ने अपमानजनक, असम्मानजनक शब्दों और सस्ते कटाक्षों से परहेज किया। साफ है, बीजेपी जिसे ‘बच्चा’ कहकर खारिज करने की कोशिश कर रही है, वह बच्चा नहीं रहा।
बैकफुट पर नीतीश
कमजोर नीतीश की पीठ दीवार से लगी है। वह चाहते हैं कि राज्य में एक साथ चुनाव हों और लोकसभा में जेडीयू सम्मानजनक सीटें जीते। वह चिराग पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा के भी कद कम करना चाहेंगे। उन्होंने 2020 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी द्वारा चतुराई से इस्तेमाल किए गए चिराग पासवान को विधानसभा में जेडीयू की संख्या को बीजेपी के 78 और आरजेडी के 79 के मुकाबले 45 पर सीमित कर देने के लिए दोषी ठहराया। तीनों असहज सहयोगी हैं और यह दिख भी रहा है।
बीजेपी 195 उम्मीदवारों की अपनी पहली लिस्ट में बिहार से एक भी उम्मीदवार का नाम घोषित नहीं कर पाई। ऐसे समय छह दिन के लिए लंदन जाने के नीतीश के फैसले ने पर्यवेक्षकों को हैरान कर दिया है। उधर, चिराग पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा ने औरंगाबाद और बेगूसराय में पीएम मोदी की रैलियों को नजरअंदाज करके सस्पेंस बरकरार रखा है जिससे अटकलें तेज हो गई हैं कि वे तेजस्वी यादव से हाथ मिला सकते हैं। हालांकि दूसरे तरह की अटकलें भी हैं- उनके पास न विकल्प है और न वक्त। इसलिए उन्हें जितनी भी सीटें दी जाएंगी, वे स्वीकार कर लेंगे।
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चिराग के पास है इक्का
चिराग जानते हैं कि वह अपने पिता की राजनीतिक विरासत के उत्तराधिकारी हैं। अपने उम्रदराज चाचा पशुपति नाथ पारस की तुलना में चिराग को हवा के ताजा झोंके की तरह देखा जा रहा है। एक जाति विशेष का नेता होने के अलावा वह ‘बिहार पहले’ की क्षेत्रीय पहचान पर बड़ी सूझ-बूझ के साथ फोकस कर रहे हैं। दलितों की युवा पीढ़ी भी पारस या जीतन राम मांझी की तुलना में चिराग जैसे किसी व्यक्ति को पसंद करती है।
उसके पास एक इक्का भी है। पासवान समाज के लोग पूरे राज्य में फैले हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि राज्य के 40 संसदीय क्षेत्रों में से ज्यादातर में लगभग 30-40 हजार पासवान वोटर हैं और कांटे की टक्कर वाले मुकाबलों में यह संख्या पलड़े को किसी एक ओर झुकाने के लिए काफी है। इसलिए एनडीए और ‘इंडिया’ गठबंधन- दोनों के लिए चिराग पासवान अहम हैं और इसी वजह से उनकी चुप्पी पर दोनों की बराबर की नजर है।
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