पश्चिम बंगाल के पिछले चुनावों- 2016 में विधानसभा, 2019 में लोकसभा और फिर स्थानीय निकाय और पंचायत चुनावों के आधार पर बात करें तो इस बार होने जा रहे विधानसभा चुनावों में क्या नतीजा रह सकता है, इसका संकेत जरूर मिलता है।
1. तृणमूल ने राज्य में 2019 में हुए आम चुनाव में 43.6% वोट हासिल किए थे और वह 164 विधानसभा क्षेत्रों में आगे रही। दूसरी ओर बीजेपी के हिस्से 40.5% वोट आए और वह 121 सीटों पर आगे रही थी। तब दोनों में अंतर 3.1% का था। तमाम जनमत सर्वेक्षणों के आधार पर तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी में वोटों का फासला अब भी 4-5 प्रतिशत के बीच ही है। अगर यह फासला राज्य में विधानसभा के लिए पड़ रहे वोटों के दौरान भी बना रहा तो तृणमूल कांग्रेस के खाते में 180 सीटें आ सकती हैं। लेकिन चुनावी गुणा-भाग शायद ही इतना सरल होता है।
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2. मीडिया में प्रचारित किया जा रहा है कि इस बार तृणमूल और बीजेपी में सीधा मुकाबला है। लेकिन हकीकत तो यह है कि वामदल और कांग्रेस अब भी बंगाल की राजनीति में अहम हैं। हां, इतना जरूर है कि उनका पहला विरोध किससे है, इस बारे में इन दलों का वोटर थोड़ा भ्रम में जरूर है। इन दलों के नेता जहां ममता बनर्जी को मुख्य विरोधी के रूप में देखते हैं, तमाम कार्यकर्ताओं और यहां तक कि त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार जैसे नेताओं का भी मानना है कि असली खतरा तो बीजेपी से है और उसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।
पिछले लोकसभा चुनाव में लेफ्ट और कांग्रेस ने बिना गठबंधन सिर्फ 9 सीटें हासिल की थीं, जबकि बीजेपी के पास 18 सीटें आई थीं। कांग्रेस और वाम दलों ने 2016 के विधानसभा चुनावों में गठबंधन किया था और उन्हें 77 सीटें मिलीं। इस कारण दोनों दलों के नेता उम्मीद कर रहे होंगे कि जमीनी स्तर पर गठबंधन काम करेगा। लेकिन अगर हाल में कोलकाता ब्रिगेड परेड मैदान में लोगों की मौजूदगी के आधार पर बात करें तो ऐसा नहीं लगता। वाम मोर्चे ने 2016 और 2019 में इसी मैदान पर विशाल रैलियां की थीं।
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3. बीजेपी 2019 के लोकसभा चुनाव में 20% का भारी वोट-स्विंग हासिल करने में कामयाब रही थी। बीजेपी की यह बढ़त वामपंथियों की कीमत पर थी। उसके कारण ममता विरोधी वोट में बंटवारा हुआ और एक अच्छा बड़ा वर्ग उसकी ओर गया। भगवा पार्टी को उम्मीद है कि इस बार भी वामदलों का परंपरागत वोटर उसका पक्ष लेगा। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि विधानसभा चुनावों में वोटर तमाम अन्य कारणों से प्रभावित होकर वोट डालता है। मुद्दे की बात यह भी है कि वामदल अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं और इस बार वे पिछले सात वर्षों में सबसे ज्यादा संगठित और संकल्पित दिख रहे हैं। अगर लेफ्ट और कांग्रेस गठबंधन ने जमीन पर अपनी पकड़ बना ली तो जाहिर है, यह बीजेपी के लिए बुरी खबर होगी।
4. नारों और केंद्रीय बल से वोट नहीं बढ़ते। मतदान के दिन बूथ प्रबंधन कैसा है, यह अहम होता है और इस मामले में तृणमूल कांग्रेस को बढ़त हासिल है। पिछली बार बीजेपी 78,000 बूथों का प्रबंधन ही मुश्किल से कर पाई थी और अब तो कोविड संबंधी औपचारिकताओं के कारण बूथों की संख्या एक लाख से अधिक हो गई है, तो धनबल के बावजूद पार्टी को हर बूथ पर कार्यकर्ताओं को तैनात करने में पसीने छूट जाएंगे।
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5. एआईएमआईएम बंगाल में पहली बार चुनाव लड़ रही है और मीडिया में इसकी खूब चर्चा हो रही है। असदुद्दीन ओवैसी जो भी कहें, किसी को नहीं पता कि वास्तव में इनकी पार्टी का कितना प्रभाव है। बंगाली भाषी राज्य में कुछ उर्दू भाषी अल्पसंख्यकों में एआईएमआईएम का कुछ प्रभाव हो सकता है, लेकिन चंद विधानसभा क्षेत्रों को छोड़कर यह निर्णायक नहीं हो सकती।
6. अल्पसंख्यक वोटों के एकमुश्त किसी एक पार्टी के पक्ष में जाने की संभावना तो नहीं है, लेकिन इसमें कोई संदेह भी नहीं कि इनमें से ज्यादातर ममता बनर्जी को ही वोट देंगे। यहां तक कि परंपरागत रूप से वामपंथी या कांग्रेस समर्थक रहे लोगों में भी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की होगी जो बंगाल में बीजेपी को बड़े खतरे के रूप में देखते हैं। अगर यह एक बड़ा कारक बनता है तो वाम-कांग्रेस गठजोड़ के खाते में काफी कम सीटें आएंगी।
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तमाम शोर-शराबे के बीच इसकी संभावना तो नहीं दिखती कि ममता पहले की तुलना में कम अंतर से जीतें। बीजेपी जरूर इस बात की कोशिश कर रही है कि बंगाल का चुनाव ममता बनर्जी और नरेद्र मोदी के बीच राष्ट्रपति चुनाव जैसा हो जाए, लेकिन लगता नहीं कि इन कोशिशों का बीजेपी को कोई फायदा होने जा रहा है। ग्रामीण बंगाल में ममता का बहुत ही अच्छा प्रभाव है। अब तक के जनमत सर्वेक्षण भी इसी ओर इशारा करते हैं कि तृणमूल 43-45% वोट शेयर के साथ सत्ता में लौटेगी और बीजेपी को 31-35% वोट शेयर से संतोष करना पड़ेगा।
(नवजीवन के लिए भास्कर चट्टोपाध्याय की रिपोर्ट)
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