चुनाव आयोग भले ही गुजरात चुनाव की तारीखों की घोषणा न करे लेकिन गुजरात विधानसभा में राजनीतिक खिलाड़ियों ने अपनी-अपनी बिसात बिछा ली है और चालें चलनी शुरू कर दी हैं। किसी पार्टी के प्यादे ने अभी सिर्फ दम ही भरा है, तो किसी के घोड़े ने अपनी ढाई चाल चलनी शुरू कर दी है। किसी का हाथी सूंड उठाए तैयार खड़ा है, तो कोई अपने ऊंट को युद्ध के मैदान में उतारने की तैयारी कर रहा है।
कांग्रेस ने अपनी पहली ढाई चाल चल दी है, और अल्पेश को मैदान में ले आई है। हार्दिक ने इस चुनावी बिसात पर अपनी चाल चलते हुए अपने इरादे साफ कर दिए हैं कि उनका रास्ता बिल्कुल सीधा है और कुछ भी हो, हर हाल में बीजेपी की हार होनी ही चाहिए। और इस मकसद के लिए वह दोनों तरफ सीधी चाल चलकर अपने दुश्मन को रौंदने के लिए तत्पर हैं।
वहीं जिग्नेश मेवानी की नजरें अपने चुनावी ऊंट पर हैं और वह बीजेपी को हराने के लिए अपने ऊंट को कच्छ क्षेत्र में ले जाने के लिए कदम भर चुके हैं, और रेगिस्तान में उनका ऊंट रफ्तार से दौड़ने के लिए तैयार है। वजीर भी अपना काम कर रहा है, क्योंकि कांग्रेस ने अपनी चाल पहले ही चल दी है।
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ऐसे में सत्तारूढ़ बीजेपी अपने प्यादे, हाथी, घोड़ों और ऊंटों के साथ जवाब देने की रणनीति में जुटी हुई है, और संभावना है कि जल्द ही मैदान में भी उतरेगी। उसकी कोशिश कांग्रेस की चाल का जवाब दिया जाए। लेकिन उसके सामने एक समस्या है। और वह यह कि इस चुनावी बिसात में बीजेपी की एक एक चाल से वाकिफ जनता को देने के लिए कुछ नया नहीं है। गुजरात की जनता पिछले 22 साल से उसके इस खेल देख रही है और इतने लंबे समय में उसे बीजेपी की हर चाल और तरकीब को समझ चुकी है।
लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि बीजेपी किसी को वॉक ओवर दे देगी। बीजेपी मुकाबला तो पूरा करेगी, और हर वह चाल चलेगी, जिससे कांग्रेस घोड़ा चित हो, कांग्रेस का हाथी गड्ढे में गिर जाए और उसका ऊंट रेगिस्तान में अपनी मंजिल से ही भटक जाए। लेकिन बीजेपी की एक और बड़ी मजबूरी यह है कि जिन घोड़ों, ऊंटों और हाथी के दम पर वह कांग्रेस के मोहरों को हराना चाहती है, वे भी बीजेपी के ही खिलाफ बोल रहे हैं। इससे बीजेपी के खिलाफ माहौल और गर्म हो गया है। बीजेपी इन मोहरों में से कुछ कमजोर मोहरों को अपनी तरफ मिलाने की कोशिश करेगी, ताकि उसके खिलाफ नाराजगी बंट जाए और कम वोटों के बाद भी वह सत्ता तक पहुंचने में कामयाब हो जाए।
इसके अलावा जो राजनीतिक हालात दिख रहे हैं, उनसे अनुमान लगाया जा सकता है कि बीजेपी के मोहरे, केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, शरद पवार की एनसीपी और ओवैसी की एआईएमआईएम के ही हैं। बिहार चुनाव में ओवैसी की एआईएमआईएम का नकाब उतर चुका है, और मुसलमानों को समझ आ गया कि उनका वोट बंटकर बीजेपी को फायदा नहीं होना चाहिए। इसी तरह महाराष्ट्र के नांदेड़ में भी सामने आया है।
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रही बात केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की, तो यह पार्टी तो सिर्फ वहीं चुनाव लड़ती है जहां बीजेपी सत्तारुढ़ है, जिससे सरकार विरोधी और नाराजगी वाले वोटों का विभाजन हो और बीजेपी को इसका फायदा मिले। केजरीवाल की पार्टी गुजरात में तो चुनाव लड़ने को तत्पर है, लेकिन हिमाचल में नहीं। उसने पंजाब में तो चुनाव लड़ा, लेकिन हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और कर्नाटक में नहीं। सिर्फ इसीलिए कि सरकार के खिलाफ वोट सिर्फ बीजेपी को मिले और वोटों का विभाजन न हो। आप को जो भी वोट मिलेगा, उसका फायदा बीजेपी को होगा, लेकिन कितना होगा, क्योंकि पंजाब और गोवा में पार्टी का असली चेहरा बेनकाब हो चुका है। यानी, आप के गुब्बारे की हवा निकल चुकी है।
उधर एनसीपी ने जिस तरह मोदी विरोधी आवाजें शुरू की हैं और पटेलों को टिकट देने की बात की है, उससे साफ है कि उनकी कोशिश पाटीदार वोटों को बांटने की है, ताकि पटेलों की नाराजगी एक जगह इकट्ठा न हो। यही वह तीन मोहरे हैं, जिनके दम पर बीजेपी गुजरात में कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने की कोशिश करेगी।
गुजरात में मोदी और शाह की नैया अगर कोई पार लगा सकता है और कांग्रेस को मात दे सकता है तो वह केवल यह तीन मोहरे हैं। लेकिन क्या बीजेपी के शाह सही समय पर इन मोहरों को चल पाएंगे, क्योंकि कांग्रेस ने इस चुनावी शतरंज पर पहली चाल चलकर खेल के नियम अपने पक्ष में करने की पहल कर दी है। यूं भी गुजरात में मौजूदा बीजेपी सरकार के खिलाफ जबरदस्त नाराजगी है। इतना ही नहीं, गुजरात में बीजेपी के पास कोई मोदी जैसा चेहरा भी नहीं है। गुजरातियों ने मोदी को प्रधानमंत्री बनाकर भी देख लिया और उन्हें लग रहा है कि मोदी को प्रधानमंत्री बनाकर गुजराती जनता को कुछ नहीं मिला। गजरात चुनाव मोदी और शाह की किस्मत का फैसला भी करेगा और इन दोनों की किस्मत की चाबी ओवैसी, केजरीवाल और प्रफुल्ल पटेल के हाथ में है।
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