देश की आजादी में दो नारों का अहम योगदान रहा। 1928 का 'साइमन गो बैक' और 1942 का 'क्विट इंडिया' यानि भारत छोड़ो। दोनों स्लोगन से एक ही नाम जुड़ा है और वो है यूसुफ मेहर अली का। नारे किस परिस्थिति में रचे गए, कैसे भारत भूमि को एक सूत्र में पिरोया इसकी कहानी देशभक्ति की अनूठी मिसाल पेश करती है।
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पहले बात उस नारे की जिसने भारत छोड़ने पर अंग्रेजों को मजबूर किया। ये था 1942 का क्विट इंडिया। जी. गोपालस्वामी ने अपनी किताब "गांधी एंड बम्बई" में शांति कुमार मोरारजी के हवाले से लिखा- "गांधी ने बम्बई (मुंबई) में अपने सहयोगियों से चर्चा की कि स्वतंत्रता के लिए सबसे बेहतर नारा क्या रहेगा? किसी ने कहा “गेट आउट” लेकिन गांधी को ये सभ्य नहीं लगा। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने “रिट्रीट” और ‘‘विदड्रा” सुझाया गांधी जी को यह भी जमा नहीं। तब यूसुफ मेहर अली ने गांधीजी को एक धनुष भेंट किया जिस पर “क्विट इंडिया’’ यानि 'भारत छोड़ो' अंकित था। गांधी ने कहा, “आमीन” (ऐसा ही हो)। और इसी से अगस्त क्रांति का नाम पड़ गया।"
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1942 से तकरीबन 16 साल पहले भी यूसुफ मेहर अली ने ऐसा ही कमाल किया था। उस समय नारा रचा साइमन गो बैक। वो भी कहानी बड़ी दिलचस्प है। दिसंबर 1927 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने साइमन कमीशन के बहिष्कार का प्रस्ताव पारित किया था। 3 फरवरी 1928 को सात सदस्यीय समूह साइमन आयोग मुंबई पहुंचा। इसमें एक भी भारतीय नहीं था। तो यूसुफ ने पुरजोर विरोध की योजना बनाई।
जानकारी ब्रिटिश हुकूमत को लग चुकी थी। कुछ फेरबदल किया लेकिन फिर अली तो माहिर खिलाड़ी थे। जो सोचा उसे डंके की चोट पर पूरा कर दिखाया। वो अपने साथियों संग कुली के वेश में बॉम्बे बंदरगाह पहुंच गए। फिर जो हुआ उसने पूरे देश में हलचल पैदा कर दी। काली तख्ती लिए हुए अंग्रेज अफसर की आंखों में आंखें डालकर कहा- साइमन गो बैक। लाठियां बरसाई गईं साथियों संग लहूलुहान हुए गिरफ्तार भी किया गया लेकिन तब तक पूरे देश में आजादी के दीवानों का ये मूलमंत्र बन चुका था।
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यूसुफ मेहर अली का जन्म 3 सितंबर 1903 को एक नामी गिरामी परिवार में हुआ था। इनके पिता मुंबई के एक बड़े बिजनेसमैन थे। घर में पढ़ाई लिखाई का अच्छा खासा माहौल था सो कई क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ा और इसने ही इनमें देश के लिए मर मिटने का जज्बा पैदा किया। मेहर बाद में बॉम्बे स्टूडेंट ब्रदर हुड संगठन से जुड़े और आंदोलनों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेना शुरू किया। वकालत की पढ़ाई के दौरान बढ़ी फीस और छात्रों पर पुलिस की ज्यादती की पुरजोर मुखालफत की। इतना ही नहीं हड़ताली मिल मजदूरों की आवाज भी बने।
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1925 में इन्होंने महज 22 साल की उम्र में यूथ यंग इंडिया सोसायटी नाम का संगठन बनाया, जिसमें युवाओं को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ प्रशिक्षित किया गया। उन्होंने जिस आजादी के लिए अपनी कलम चलाई, संघर्ष किया खुशनसीब रहे कि उसे खुली आंखों से देख भी पाए। मार्च 1948 में सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से बॉम्बे लेजिस्लेटिव एसेंबली का चुनाव जीता। आजादी के तकरीबन 3 साल बाद 2 जुलाई 1950 में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। अपने हीरो को अंतिम बिदाई देने पूरा बॉम्बे सड़क पर आ गया था। उस शख्स को अलविदा कहने जिसकी मौजूदगी से शहर गुलजार रहा था।
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