ज़िदंगी भर बहुत मेहनत और लगन से काम करते रहे, लेकिन शाहकार एक ही बनाया। उन्हें अमर करने के लिये वही एक शाहकार काफी है। उस शाहकार का नाम है 'बाज़ार' और इसे बनाने वाले का नाम है सागर सरहदी।
'बाज़ार' महज़ एक फिल्म नहीं है। 'बाज़ार' तो सेल्युलाइड पर रचा गया एक मर्सिया है, एक शोक गीत है। जब-जब हिंदी सिनेमा के इतिहास की कालजयी फिल्मों की गिनती की जाएगी तो बेहद भव्य और सितारों से भरी हुई फिल्मों के बीच एक सादी सी फिल्म 'बाज़ार' को भी शामिल किया जाएगा। अफसोस ये है कि 'बाज़ार' जैसी फिल्म बनाने वाला वो शख्स अब हमारे बीच नहीं रहा। 87 साल की उम्र में सागर सरहदी ने मुंबई में आखरी सांस ली।
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11 मई 1933 को ऐबटाबाद (पाकिस्तान) में जन्मे गंगा सागर तलवार ने कहानियां लिखनी शुरू कीं तो अपना नाम सागर सरहदी रख लिया। जब वे 14 साल के थे तब भारत का विभाजन हो गया। सागर सरहदी का खाता-पीता परिवार जान बचा कर पहले श्रीनगर और फिर बाद में दिल्ली पहुंचा। पहले किंग्सवे कैंप इलाके और फिर मोरी गेट एरिया में उनके परिवार ने पैर जमाने शुरू किये। कुछ दिनो बाद बड़े भाई रोजगार की तलाश में मुंबई चले गए। सागर सरहदी इंटर (12वीं) की पढ़ाई पूरी कर मुंबई अपने भाई के पास जा पहुंचे। उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। कालेज में वामपंथी विचारों से प्रभावित हो कर वे नाट्य संस्था इप्टा में शामिल हो गए।
उन्होंने नाटक और कहानियां लिखनी शुरू कीं। कड़की का दौर था, थिएटर से कोई आमदनी नहीं होती थी। सागर सरहदी नाटकों से बचे समय में टैक्सी चलाने लगे। भगत सिंह और अशफ़ाक उल्ला खान पर लिखे उनके नाटक काफी लोकप्रिय हुए। एक बार वे अपनी कहानियां छपवाने के लिये प्रकाशक के पास पहुंचे तो प्रकाशक ने किताब छापने के लिये उनसे पैसे मांगे। सागर सरहदी ने पूछा कि उनके पैसे कैसे और कब तक वापस मिल पाएंगे तो प्रकाशक ने कहा कि पैसे कभी भी वापस नहीं मिल पाएंगे। सागर सरहदी को एहसास हुआ कि नाटक और कहानियां लिख कर गुज़ारा नहीं चल सकता। लेकिन, लेखन के अलावा वे कुछ करना भी नहीं चाहते थे। इप्टा के कई लेखक, शायर और नाटककार सिनेमा में नाम और दाम दोनों कमा रहे थे। सागर भी उसी रास्ते पर चले।
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पहले फिल्मों के संवाद और फिर कहानी और स्क्रीन प्ले लिखे । उनकी पहली फिल्म बासु भट्टाचार्य की अनुभव (1971) थी जिसके उन्होंने संवाद लिखे। लेकिन यश चोपड़ा से उनकी मुलाकात उनके फिल्मी जीवन का टर्निंग पाइंट साबित हुआ। कभी कभी, सिलसिला, चांदनी और फासले में सागर सरहदी की कलम ने मोहब्बत से सराबोर कई ऐसे सीन और संवाद गढ़े जो यादगार बन गए। यहां तक की अमिताभ की एंग्री यंगमैन की मजबूत छवि को भी सागर सरहदी की कलम ने बदल दिया।
उनकी लिखी कहानी राखा पर फिल्म नूरी बनी और सुपर हिट साबित हुई। दूसरा आदमी, कर्मयोगी, दीप्ती नवल की रंग शाहरूख खान की फिल्म दीवाना सहित कहो ना प्यार है आदि फिल्मों में सागर सरहदी का संवाद, स्क्रीन प्ले या कहानी के क्षेत्र में अहम योगदान रहा।
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कई साल तक दूसरों के लिए फिल्में लिखने वाले सागर सरहदी को बार बार लगता था कि उन्हें एक फिल्म तो ऐसी बनाने को मिले जिसमें उनके सिवा किसी और का दखल ना हो। इस तरह फिल्म बाज़ार की बुनियाद पड़ी। फिल्म बनने के बाद उसे खरीदार नहीं मिले। फिल्म को रिलीज़ कराने के लिये सागर सरहद ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया और जब 1982 में किसी तरह फिल्म रिलीज़ हुई तो नवाबी और जमींदारी के खत्म होने के बाद उस समाज के शोक घुटन, बेबसी, मजबूरी और शोषण का जैसे ईंमानदार चित्रण पर्दे पर देखने को मिला वो दर्शकों के दिल और दिमाग में ऐसा बैठा कि आज तक नहीं निकला। इस फिल्म के गीत और संगीत तो मानो अमर हो गए।
फिर छिड़ी रात बात फूलों की, करोगे याद तो हर बात याद आएगी, देख लो आज हमको जी भर के... जैसे गाने आज तक ताज़ा हैं। सागर सरहदी ने बाज़ार की कहानी लिखी, संवाद लिखे, निर्देशन किया और फिल्म को प्रोड्यूस भी किया। सागर ने अपनी मर्जी की फिल्म तो बना ली लेकिन इस दौरान सागर सरहदी जिन कड़वे अनुभवों से गुज़रे उससे उन्होंने अपना ध्यान लेखन पर केंद्रित कर लिया। लेकिन शेर के मुंह खून लग चुका था।
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बेचैनी फिर बढ़ी तो उन्होंने फिल्म लोरी प्रोड्यूस की जिसका निर्दशन उनके भतीजे विजय तलवार ने किया। एक अच्छी और साफ सुथरी फिल्म लोरी फ्लॉप हो गयी। सागर फिर से फिल्मों के लिये लिखते रहे और साहित्यिक भूख शांत करने के लिये नाटक और कहानियां लिखीं।
साल 2004 में सागर सरहदी ने चौसर नाम की फिल्म बनायी। विडंबना देखिये कि बाज़ार जैसी फिल्म बनाने वाले फिल्मकार की फिल्म चौसर रिलीज़ तक नहीं हो सकी। जीवन की पथरीली राहों पर शान से चलते रहने वाले सागर सरहदी ने विवाह नहीं किया। उनके लिखे नाटक कालेज के कोर्स में शामिल हैं। कई कहानी संग्रह उनके नाम है और उनके नाम दर्ज है फिल्म बाज़ार।
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