गांधी जी के आंदोलन और विनोबा जी से प्रेरित पर्यावरण रक्षक सुंदरलाल बहुगुणा के निधन से उस पुरानी पीढ़ी की अंतिम कड़ी भी जाती रही, जो अपने इलाके की चप्पा चप्पा जमीन को जानती थी। जिसने सबसे बीच की सीढ़ी पर खड़े मनुष्य का दर्द देखा और गांव-गांव जा कर युवा लोगों को दरिद्र नारायण और लोकल पर्यावरण के जागरूक पहरुए और सक्रिय कार्यकर्ता बनने को प्रेरित किया।
जब तक वे आने-जाने में सक्षम थे, हिमालयीन इलाके के हित से जुड़े लगभग हर बडे आंदोलन और जनयात्रा में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। पहाड़ के लोगों, खासकर डंगरों का सा बोझ ढोने वाली और घर-घर में शराबी पुरुषों से पीड़िता अपने घर की औरतों की तकलीफ से वे बचपन में ही बहुत विचलित महसूस करते थे।
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एक बार उन्होंने मुलाकात में नम आंखों से बताया था कि “बचपन में जब रात गये सारा कामकाज निबटा कर माँ बगल में कटे पेड़ सी ढह कर लेटती थी, तो हर रात कहती, ‘हे देबी मिकी मौत किले नी औंदी?’(हे देवी, मुझे मौत क्यों नहीं आती?) तब मैंने सोचा जब मैं बडा हो जाऊंगा, मैं सबसे पहले माँ जैसी औरतों का कष्ट दूर करने जो बन सकेगा वही करता रहूंगा।” और वह उन्होने किया भी।
उनकी सहधर्मिणी विमला देवी एक सहज, सरल, लेकिन दृढ़व्रती महिला थीं। सुंदरलाल जी ने उनसे वचन लिया था कि पहाड़ के युवा जोड़ों की तरह न तो वे मैदान को पलायन करेंगे और न ही शहर में रहेंगे। दोनों आजीवन गांवों में ही रहे, जब तक वार्धक्य और रोग ने उनको देहरादून रहने को बाध्य न कर दिया।
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वर्ष 1965-70 के दौरान सुंदरलाल जी शराबबंदी आंदोलन की आवाज़ बने और इस मुहिम में उनको महिलाओं से भरपूर समर्थन हासिल हुआ। फिर 70 के दशक में जब चमोली के रूणी गांव की गौरा देवी तथा अन्य महिलाओं ने इलाके में पेड़ों की कटान रुकवाने को चिपको आंदोलन छेड़ा तो वे उससे जुड़े ही नहीं, राजधानी और गांव के बीच संवाद का सेतु भी बने।
वर्ष 1980 में चंडी प्रसाद भट्ट तथा उनके निरंतर दबाव बनाने का फल था कि इंदिरा गांधी ने इलाके में पेड़ों के कटान पर रोक लगा दी। इस आंदोलन के दौरान उन्होने शुरू से अंत तक महिलाओं को कस कर जोड़ा और उनको पहाड़ के पर्यावरण के क्षरण और सुरक्षा पर अपने अनुभव तथा सुख-दु:ख खुल कर बताने का बड़ा मंच भी दिया।
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साल 1981 से 83 तक बहुगुणा जी ने अपने पर्यावरण रक्षक मित्रों के साथ लगातार हिमालयीन इलाके की लंबी यात्राएं कीं। इससे उनको इलाके के जल, जंगल तथा रहन-सहन पर गहरी अंतर्दृष्टि मिली। और जो शिविर गांव-गांव में हुए उनसे वन क्षेत्र ही नहीं, लोकल स्कूलों और पंचायतों की कार्यप्रणाली तथा रख-रखाव पर भी भरपूर जानकारी मिली।
मैदान में जब पर्यावरण संवर्धन एक विचार के रूप में भी कॉलेजों तक में नहीं आया था, बहुगुणा जी तथा उनके जैसे कार्यकर्ताओं की मदद से प्राइमरी कक्षाओं में एक विषय के रूप में शामिल कर लिया गया। 90 के दशक तक स्कूल जाने वाला हर बच्चा यह जान गया था कि कीमती मिट्टी को, मैदानों को नदियों से बह जाने से वृक्ष ही बचाते हैं, इसलिए जल और जंगल दोनो का संरक्षण बहुत ज़रूरी है।
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1980 के पहले दशक तक एक दूसरी बड़ी समस्या पहाड़ी इलाके में प्रस्तावित बड़े बांधों के निर्माण को लेकर सर उठाने लगी थी। इलाके का नाजुक पर्यावरण और नदियों का तेज बहाव तथा कटान देखते हुए सुंदरलाल जी का मत बना कि टिहरी बांध बना कर भागीरथी की धारा को रोकना तुरंत भले फलदायी हो, पर दीर्घकालिक नजरिये से विनाशक साबित होगा। इस सिलसिले में उन्होने दो लंबे उपवास किये- एक बार जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे, दूसरी बार जब देवेगौड़ा देश के मुखिया थे।
उस दौरान लगभग अर्धमृत हालत में उनको हस्पताल में भर्ती कर उपवास तुड़वाया गया और आश्वासन दिया गया कि बड़े बांधों पर पुनर्विचार होगा। लेकिन 2001 तक काम शुरू हो गया। बहुगुणा जी ने भागीरथी के तट पर कुटिया में रहने की ठान ली। पर जब वह क्षेत्र डूब में आ गया तो उनको जबरन स्थानांतरित कर दिया गया।
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वर्ष 2013 में केदारघाटी और 2021 में देवप्रयाग में विनाशकारी बाढ़ ने बहुगुणा जी की आशंकाओं को सही साबित किया। उनका यह कहा भी कईयों को याद आया कि वे उत्तराखंड के तीर्थाटन को किसी भी तरह का कमर्शियल मोड देने के पुरजोर विरोधी थे। बाढ़ कभी अचानक नहीं आती। उसके आने के पीछे कुदरती कारण ही नहीं मनुष्य निर्मित ताबड़तोड़ विकास कामों का भी योगदान कम नहीं होता।
अंतिम बार जब सुंदरलाल जी को देखा तो वे बहुत क्षीण हो चुके थे। अर्धांगिनी विमला जी के जाने से भी वे काफी अकेले, उदास और थके नजर आने लगे थे। पर पुराने मित्रों को देख कर तब भी उनकी आंखों में वही चमक और चेहरे पर वही स्नेही मुस्कान कौंध जाती थी। कहते- ‘शरीर साथ नहीं देता अब, पर हैं, नई पीढ़ी के लड़के-लड़कियां काबिल हैं, अब वही संभालेंगे।’
एक नेकदिल इंसान, पहाड़ी पर्यावरण और पहाड़ी महिलाओं के संवेदनशील मित्र और हितैषी बहुगुणा जी को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।।
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