आपने सरकार और धनी व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा आरंभ किए गए अस्पतालों के विषय में तो अवश्य सुना होगा, पर क्या आपने कभी ऐसे अस्पताल के बारे में भी सुना है जो मजदूरों ने स्वयं बनाया, अपने पसीने की कमाई से आरंभ किया? एक मजदूर जिसकी दिहाड़ी मजदूरी मात्र पचास रुपये है, वह अपनी झोंपड़ी तक तो ठीक से बना नहीं सकता, वह भला अस्पताल कैसे बनाएगा?
पर हकीकत यह है कि छत्तीसगढ़ माईन्स मजदूर संघ के मजदूरों ने छत्तीसगढ़ के दल्ली राजहरा की खनन पट्टी (जिला दुर्ग) में न केवल अपनी मेहनत से ऐसा अस्पताल बनाया अपितु उसे निरंतर सफलता से चलाने में कई तरह का महत्त्वपूर्ण योगदान भी दिया। वे पहले लौह अयस्क की खदानों में खनन कार्य का कठिन श्रम करते और फिर अस्पताल में आकर तरह-तरह की जिम्मेदारियां संभालते रहे। मजदूर केवल मजदूर न रहा। उसने डाक्टरों से स्वास्थ्य संबंधी तरह-तरह का प्रशिक्षण प्राप्त किया और इस ज्ञान का प्रसार उसने अपने अन्य साथियों और आसपास के गांवों में भी किया।
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अस्पताल के सामने सुंदर बगीचा है। उसके पास खड़े सदा धीर-गंभीर रहने वाले डा. शैबाल जाना के चेहरे पर एक हल्की मुस्कान है। मितभाषी डा. जाना बस इतना ही कहते हैं, “यह मजदूरों का अस्पताल है, उनकी मेहनत के पसीने से सींचा गया अस्पताल है।”
अस्पताल के आरंभ से ही डा. शैबाल जाना इसके साथ बेहद नजदीकी तौर पर जुड़े रहे हैं। यहां की एक-एक ईंट को उन्होंने जुड़ते देखा है। मरीज, स्वास्थ्यकर्मी, नर्स-सिस्टर सब उन्हें उतना ही आदर देते हैं जितना किसी तपस्वी को मिलता है।
मजदूरों के इस अनूठे अस्पताल का निर्माण और संचालन करने वाले इन सभी साथियों के लिए जो सबसे प्रेरणादायक व्यक्तित्व हैं वे हैं अमर शहीद शंकर गुहा नियोगी। उनके नेत्तृत्व में यहां मजदूरों विशेषकर लौह अयस्क के खनिकों के जिस संघर्ष ने जन्म लिया, उसी आंदोलन की विभिन्न शाखाओं के रूप में कई तरह के रचनात्मक प्रयास फलते-फूलते रहे और इन्हीं में से एक बहुत महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है शहीद अस्पताल।
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शंकर गुहा नियोगी बंगाल से छत्तीसगढ़ एक विद्यार्थी के रूप में आए पर शीघ्र ही यहां के मजदूरों-किसानों का शोषण दूर करने की चुनौती से जूझने लगे। उन्होंने युवावस्था की पहली देहरी पर ही अपने को छत्तीसगढ़ के मेहनतकशों का दुख-दर्द दूर करने के लिए समर्पित कर दिया और इसके लिए बहुत अत्याचार-उत्पीड़न भी सहा। वे छत्तीसगढ़ में दूर-दूर तक घूमे और यहां की समस्याओं को समझा। इसी दौरान उनका सम्पर्क दल्ली राजहरा की लोहे की खदानों में काम करने वाले मजदूरों से हुआ।
नियोगी जी का और इन नए संगठनों का एक मुख्य सिद्धांत यह था कि संघर्ष को निर्माण से जोड़ना है। संघर्ष तो कदम दर कदम चलते ही रहेंगे पर इनके साथ तरह-तरह के रचनात्मक कार्य भी चलते रहने चाहिए। इन रचनात्मक कार्यों से कम से कम एक झलक तो मिलेगी कि यह मजदूरों और किसानों के संगठन कैसी नई दुनिया बनाना चाहते हैं। इन रचनात्मक कार्यों में स्वास्थ्य कार्यक्रम को बहुत महत्त्व दिया गया।
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इन दिनों मजदूरों ने एक बहुत बड़ा फैसला किया कि हम मजदूर स्वयं एक अस्पताल बनाएंगे, उसमें सेवा-भाव से जुड़े डाक्टरों को कार्य करने के लिए आमंत्रित करेंगे और उनकी सहायता से इस अस्पताल को सफल बना कर दुनिया को दिखा देंगे कि मजदूरों की रचनात्मक क्षमता जब खिलती है तो किस तरह के नए-नए रंग बिखेरती है।
इस बीच जब छत्तीसगढ़ माईन्स श्रमिक संघ (छ.मा.श्र.सं.) की स्वास्थ्य कार्यक्रम के लिए प्रतिबद्धता की चर्चा फैलने लगी तो वर्ष 1982 में मजदूरों-किसानों के स्वास्थ्य के प्रति निष्ठावान युवा डाक्टर यहां अपनी सेवाएं उपलब्ध करने के लिए आने लगे। डा. शैबाल जाना ने वर्ष 1978 में कलकत्ता नेशनल मेडिकल कालेज में स्नातक होने के बाद कलकत्ता के प्रेसीडेंसी जनरल अस्पताल से मेडिसन का विशेष अनुभव प्राप्त किया। उसके बाद स्कूल ऑफ ट्रापिकल मेडिसन में अध्ययन किया। डाक्टर विनायक सेन ने क्रिश्चियन मेडिकल कालेज वेलोर में अध्ययन किया और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में पढ़ाया। डाक्टर आशीश कुन्डू ने कलकत्ता नेशनल कालेज से स्नातक होने के बाद जनरल सर्जरी और आर्थोपीडिक्स का अनुभव प्राप्त किया।
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जब इतने निष्ठावान डाक्टर आ गए तो फिर अस्पताल का भवन बनने तक इंतजार करने की क्या जरूरत थी? संघ के गैरेज में ही कुछ जगह निकालकर डिसपैंसरी आरंभ की गई। 26 जनवरी, 1982 को शहीद डिसपैंसरी आरंभ हुई। पर इससे भी पहले ‘स्वास्थ्य के लिए संघर्ष’ आंदोलन आरंभ हो चुका था। लगभग 100 मजदूर स्वयंसेवकों की एक स्वास्थ्य समिति बनाई गई। समिति के कुछ सदस्यों ने अस्पताल के लिए भवन निर्माण की जिम्मेदारी ली तो कुछ सदस्यों ने अन्य कार्य संभाले। विभिन्न बस्तियों में स्वास्थ्य का सर्वेक्षण भी होने लगा।
स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए चिकित्सा सुविधाओं के साथ स्वास्थ्य समस्याओं के बुनियादी कारणों को भी दूर करना जरूरी है। स्वास्थ्य समस्याओं का सबसे बड़ा कारण है गरीबी और शोषण। इसके विरुद्ध तो छ.मा.श्र.सं. का कार्य आरंभ से ही चल रहा था और मजदूरों की आर्थिक स्थिति में महत्त्वपूर्ण सुधार हुआ भी था। पर कई अन्य बुनियादी समस्याएं आज भी मौजूद थीं जैसे बस्तियों में साफ पेयजल का अभाव। सबसे बड़ी व पेचीदा समस्या थी नशे की समस्या। यह खतरा मौजूद था कि कहीं आय बढ़ने के साथ कई खनिकों में शराब की आदत न आ जाए। इसके कुछ संकेत मिलने लगे थे। अतः नशाबंदी, सफाई और पेयजल के लिए विशेष अभियान आरंभ कर बेहतर स्वास्थ्य की नींव तैयार की गई।
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अस्पताल के उद्घाटन के समय शंकर गुहा नियोगी ने कहा कि यह संगठित मेहनतकशों का अपने असंगठित भाई-बहनों को एक उपहार है। आरंभ से ही अस्पताल के मरीजों में आसपास के गांवों के उन लोगों की संख्या अधिक रही जिन्हें और कहीं संतोषजनक इलाज उपलब्ध नहीं था। आज तो यहां 100 किलोमीटर या उससे अधिक की दूरी के भी गांववासी इलाज के लिए आते हैं।
हर कदम तरह-तरह के सार्थक कार्यों को जोड़ते हुए आगे बढ़ता रहा है शहीद अस्पताल, पर साथ ही इसे कई कठिनाईयों से भी जूझना पड़ रहा है। इन्हें कम करने के लिए और कार्य बढ़ाने के लिए जरूरी है कि सेवा भाव से कार्य करने वाले नए डाक्टर भी इस कार्य में हाथ बंटाएं।
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