शख्सियत

32 साल पहले आज ही के दिन दुनिया से चली गई थीं 31 साल की स्मिता

स्मिता पाटिल की आवाज भी बेहद खास थी। इसका एहसास स्मिता को भी था। वे अपनी आवाज को बहुत सोच समझ कर इस्तेमाल करती थीं। बाजार के निर्दशक सागर सरहदी ने उनकी आवाज में एक नज्म रिकार्ड की थी, जिसे फिल्म में तो इस्तेमाल नहीं किया गया, लेकिन फिल्म के गीतों के कैसेट में वो नज्म सुनी जा सकती है।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

“करोगे याद तो हर बात याद आएगी...” फिल्म ‘बाज़ार’ का ये गीत जब भी सुना जाएगा, स्मिता पाटिल की शिद्दत से याद दिलाएगा। भरी जवानी में वे दुनिया छोड़ गयीं थीं लेकिन जितना जीवन भी उन्होंने जीया, उसी में अपने अभिनय की वजह से वे अमर हो गयीं। कला फिल्मों की तो वे महारानी थीं हीं, लेकिन कमर्शियल फिल्मों में भी स्मिता का चेहरा गजब ढाता था।

17 अक्टूबर 1955 को जन्मी स्मिता के पिता शिवाजी राव पाटिल महाराष्ट्र सरकार में मंत्री रह चुके थे। स्मिता पाटिल ने मुंबई से पढ़ाई की और फिर मुंबई दूरदर्शन पर समाचार पढ़ने लगीं। तभी कुछ छात्रों ने स्मिता से उनकी फिल्म में काम करने का अनुरोध किया। पुणे फिल्म संस्थान के ये छात्र डिप्लोमा फिल्म बना रहे थे। इनमें से कुछ स्मिता को जानते थे। 1974 में बनी इस फिल्म का नाम था “तीव्र माध्यम”।

टीवी पर स्मिता को समाचार पढ़ते देख चुके श्याम बेनेगल ने जब “तीव्र माध्यम” देखी तो गहरे तक प्रभवित हुए। उन दिनो वे बच्चों की एक फिल्म “चरण दास चोर” बना रहे थे। उन्होंने स्मिता को इस फिल्म में राजकुमारी का किरदार निभाने को कहा। गहरी सांवली, ग्लैमर विहीन, संकोची, शर्मीली और बेहद आम सी दिखने वाली स्मिता हैरान थीं कि उनके साथ ये क्या हो रहा है। वे श्याम बेनेगल को मना नहीं कर सकीं। इसके बाद श्याम बेनेगल ने उन्हें अपनी फिल्म निशांत (1975) में कास्ट किया। निशांत को समीक्षकों ने खूब सराहा।

पर्दे पर स्मिता की आंखों और चेहरे के भाव दर्शकों के सीधे दिल में उतर जाते थे। श्याम बेनेगल स्मिता के चेहरे की इस ताकत से अच्छी तरह वाकिफ हो चुके थे। इस बार उन्होंने स्मिता को लेकर फिल्म “मंथन” बनायी। यही वो फिल्म थी जिसके अंतरर्ष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शन के बाद स्मिता भारतीय और विदेशी फिल्मकारों की नजरों में चढ़ीं। जल्द ही स्मिता को फिल्मों के ऑफर मिलने लगे।

1980 स्मिता के लिये महत्वपूर्ण वर्ष रहा। इस साल केतन मेंहता की “भवनी भवई”, सईद मिर्जा की “अलबर्ट पिंटों को गुस्सा क्यों आता है”, मृणाल सेन की बंगाली फिल्म “अकालेर सधाने”, श्याम बेनेगल की “भूमिका”, रवींद्र धर्म राज की “चक्र” और गोविंद निहलानी की “आक्रोश” में स्मिता ने काम किया। इन सभी फिल्मों ने किसी ना किसी फिल्म समारोह में पुरूस्कार हासिल किया। आक्रोश और चक्र को तो आम दर्शकों के बीच भी सराहा गया। स्मिता के चेहरे ने पर्दे पर गजब ढा दिया। इससे पहले इतनी विविधता का प्रदर्शन करने वाली और कोई अभिनेत्री नहीं दिखी थी।

कला फिल्में स्मिता को शोहरत जरूर दे रही थीं, लेकिन जिंदगी सिर्फ शोहरत के सहारे नहीं चलती। दिले नादां (1981) से स्मिता ने कमर्शियल फिल्में स्वीकारनी शुरू कर दीं, फिर “बदले की आग”, “भीगी पलकें”, “नमक हलाल”, “शक्ति”, “सितम” “दर्द का रिश्ता” “कयामत”, “हादसा”, “आज की आवाज”, “मेरा दोस्त मेरा दुश्मन”, “पेट, पाप और प्यार” जैसी फिल्मों में वो सब किया जो मसाला फिल्मों में हिरोइन को करना होता है, लेकिन महत्व पूर्ण यह रहा कि इस दौर में भी वे “गमन”, “बाजार”, “अर्थ” , “अर्ध सत्य”, “गिद्ध”, और “मिर्च मसाला” जैसी फिल्में भी करती रहीं। कला और कमर्शियल फिल्मों का ऐसा संतुलन फिर किसी और अभिनत्री ने नहीं दिखाया।

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स्मिता की आंखें उनकी जबान से ज्यादा बोलती थीं लेकिन उनकी आवाज भी बेहद खास थी। इसका एहसास स्मिता को भी था। वे अपनी आवाज को बहुत सोच समझ कर इस्तेमाल करती थीं। फिल्म बाजार के निर्दशक सागर सरहदी ने उनकी आवाज में एक नज्म रिकार्ड करी जिसे फिल्म में तो इस्तेमाल नहीं किया गया। लेकिन बाजार के गीतों के कैसेट में स्मिता की आवाज में वो नज्म सुनी जा सकती है जो सुनने वाले के दिल को गहरी उदासी में डुबो देती है।

उदासी तो स्मिता के मन में भी थी। भीड़ में तन्हा होने की उदासी। इसी उदासी से लड़ते लड़ते वे राज बब्बर के इतने करीब पहुंच गयीं कि शादी शुदा और दो बच्चों के पिता राज से उन्होंने शादी कर ली। हांलाकि वह सब आसानी से नहीं हुआ। स्मिता को बहुत तनाव, पीड़ा और आलोचनाओं के गतिरोधों को पार करना पड़ा। वे मां बनना चाहती थीं और बन भी गयीं।

तभी जिंदगी ने उनके कान मे कहा कि बस बहुत हुआ। और फिर मौत उन्हें अपने साथ ले गयी। महज़ 31 साल मिले स्मिता पाटिल को जीने के लिए। 14 दिसंबर 1986 को उनकी मौत हो गयी। उनकी मौत के बाद उनकी करीब 13 फिल्में रिलीज़ हुईं।

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