वे उस दौर के उन चंद लेखकों में से थे जो हिंदी संस्कृत और अंग्रेजी में दक्ष थे, साथ ही शास्त्रीय संगीत के भी खासे जानकार थे। ये दौर था जब हरि शंकर परसाईं, शरद जोशी और श्री लाल शुक्ल के कारण हिंदी में व्यंग्य की विद्या लोकप्रिय हो रही थी। लिखना तो हालांकि शुक्ल जी ने बहुत पहले से शुरू कर दिया था। उनका पहला उपन्यास था ‘सूनी घाटी का सूरज’ जो 1957 में लिखा गया, लेकिन उसके बाद उनके व्यंग्य और एक ख़ास विद्या में लिखे गये उपन्यास श्री लाल शुक्ल की पहचान बन गए। उनके व्यंग्य परसाईं जी के व्यंग्य की तरह गुदगुदाते नहीं थे बल्कि कचोटते थे। एक ख़ास तरह की विडम्बना उनके लेखन में व्यक्त होती थी, जो रह-रह कर सालती थी। उनके बहु चर्चित व्यंग्य ‘अंगद का पाँव’ की बानगी देखिये-
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‘अब भीड़ तितर-बितर होने लगी थी और मित्र के मुँह पर एक ऐसी दयनीय मुस्कान आ गई थी जो अपने लड़कों से झूठ बोलते समय, अपनी बीवी से चुरा कर सिनेमा देखते समय या वोट माँगने में भविष्य के वादे करते समय हमारे मुँह पर आ जाती होगी। लगता था कि वे मुस्कुराना तो चाहते हैं पर किसी से आँख नहीं मिलाना चाहते। ... एक साहब वजन लेने वाली मशीन पर बड़ी देर से अपना वजन ले रहे थे और दूसरों का वजन लेना देख रहे थे। गार्ड की सीटी सुनते ही वे दौड़ कर आए और भीड़ को चीरते हुए मित्र तक पहुँचे। गाड़ी के चलते-चलते उन्होंने उत्साह से हाथ मिलाया। फिर गाड़ी को निश्चित रूप से चलती हुई पा कर हसरत से साथ बोले, ‘काश, कि यह गाड़ी यहीं रह जाती।’
दिलचस्प बात ये है कि उन्होंने एक जासूसी उपन्यास भी लिखा। हिंदी का पाठक अमूमन जासूसी लेखन को ‘साहित्यिक’ नहीं मानता। पता नहीं क्यों लेखन की इस शैली को हमारे यहाँ हमेशा ‘पोपुलर’ साहित्य की श्रेणी में ही रखा गया। लेकिन शुक्ल जी के उपन्यास ‘आदमी का ज़हर’ में एक जासूसी उपन्यास की खूबियाँ तो हैं ही यह समाज और राजनीतिक हालात को भी प्रतिबिंबित करता है या यूं कहें कि ये कहानी के इतर इन परिस्थितियों पर सोचने को भी विवश करता है।
अब हम आते हैं उनकी सबसे लोकप्रिय रचना, ‘राग दरबारी’ पर। जिसका कई भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। श्री लाल शुक्ल अपने इस उपन्यास से बहुत संतुष्ट नहीं थे और ये उनकी प्रिय रचना नहीं थी। ज़ाहिर है साहित्य और भाषा के इस विद्वान को अपनी ऐसी कृति पसंद कैसे आती जो दरअसल उपन्यास की विद्या के शास्त्रीय नियमों का पालन नहीं करता। राग दरबारी कोई एक कहानी नहीं है बल्कि बहुत से प्रसंगों का संकलन है, जिनसे उपन्यास का किरदार रंगनाथ गुज़रता है जब वह शिवपालगंज में आता है।
लेकिन वे प्रसंग एक स्तर पर बहुत दिलचस्प, हास्यास्पद और व्यंग्यपूर्ण हैं, तो दूसरे स्तर पर समाज और राजनीति पर तीखी टिप्पणी करते हैं और हमारे पाखंडपूर्ण जीवन और परम्पराओं पर प्रहार भी। विडम्बना ये है कि उपन्यास में चित्रित ये सभी बातें आज भी यथार्थ में जस की तस हैं, बल्कि हालात सुधरने के बजाय बिगड़ ही रहे हैं। 1968 में लिखे गए इस उपन्यास का एक बेहद छोटा अंश ये ज़ाहिर करता है:
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घरघराकर ट्रक चला। शहर की टेढ़ी-मेढ़ी लपेट से फुरसत पाकर कुछ दूर आगे साफ़ और वीरान सड़क आ गई। यहाँ ड्राइवर ने पहली बार टॉप गियर का प्रयोग किया पर वह फिसल-फिसल कर न्यूटल में गिरने लगा। हर सौ गज़ के बाद गियर फिसल जाता और एक्सिलेटर दबे होने से ट्रक की घरघराहट बढ़ जाती, रफ्तार धीमी हो जाती। रंगनाथ ने कहा, ‘‘ड्राइवर साहब, तुम्हारा गियर तो बिलकुल अपने देश की हुकूमत जैसा है।’’ड्राइवर ने मुस्करा कर वह प्रशंसा-पत्र ग्रहण किया। रंगनाथ ने अपनी बात साफ़ करने की कोशिश की। कहा, ‘‘उसे चाहे जितनी बार टॉप गियर में डालो, दो गज़ चलते ही फिसल जाती है और लौटकर अपने खाँचे में आ जाती है।’’ड्राइवर हँसा। बोला, ‘‘ऊँची बात कह दी शिरिमानजी ने।’’
शिक्षा प्रणाली की जो गत आज हमारे देश में हो रही है जिस तरह शिक्षा का बाजारीकरण हुआ है, हो रहा है उस पर उन्होंने बहुत हलके फुल्के ढंग से पहले ही इस उपन्यास में कह दिया था:
क्या करिश्मा है ऐ रामाधीन भीकमखेडवी, खोलने कालिज चले, आटे की चक्की खुल गई।”
और तो और इतने बरस पहले ही वो ‘गोरक्षक’ जूते की बात कर गए थे जिसके आघात से आज हमारा समाज बिलबिला रहा है:
पढ़े-लिखे आदमी को जुतियाना हो, तो गोरक्षक जूते का प्रयोग करना चाहिए।
हमारे समाज में काम करने (मतलब ना करने) और एक-दूसरे की दिखावटी ‘रवायती’ इज्ज़त करने पर भी उपन्यास सटीक कमेन्ट करता है:
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तुमने मास्टर मोतीराम को देखा है कि नहीं? पुराने आदमी हैं। दरोगाजी उनकी, वे दरोगाजी की इज्जत करते हैं। दोनों की इज्जत प्रिंसिपल साहब करते हैं। कोई साला काम तो करता नहीं है, सब एक-दूसरे की इज्जत करते हैं।
इस उपन्यास के अनेक प्रसंग और कथन मेरी पीढ़ी, मुझसे पहली पीढ़ी और आज के युवाओं को ज़बानी याद हैं और रहेंगे। साहित्य की समाज से जुड़े होने की इससे अच्छी मिसाल क्या हो सकती है!
बेशक इस मायने में ये उपन्यास महान है। लेकिन इस उपन्यास का आज भी प्रासंगिक होना, इसके किरदारों का आज भी असलियत के इतने करीब होना हमारे लिए एक चेतावनी है—इतने बरस हो गए और आज भी विकास वगैरह की बातें करते हुए हम वही खड़े हैं जहां पहले थे।
इस अर्थ में श्री लाल शुक्ल जैसे साहित्यकारों का लेखन हमारे समाज के लिए एक सन्दर्भ स्रोत भी हैं और मार्ग दर्शक भी कि अगर हम उन परिस्थितियों को बदल नहीं पाए जो पचास बरस पहले भी ऐसी ही थीं जैसी आज हैं तो ये एक समाज के तौर पर, एक देश के तौर पर हमारी बहुत बड़ी नाकामी है और अब तो हमें जाग ही जाना चाहिए।
उनका लेखन हमें याद दिलाता रहेगा कि आडम्बरों, पाखंडों और दिखावे की राजनीति, रस्मो रिवाज़ से परे जाकर ही हम अपनी बेहतरी की इच्छा कर सकते हैं।
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