शख्सियत

“हमें फिर से तुम्हारी जरूरत है”: भगत सिंह के चाहने वालों ने किया उन्हें याद

<b>दक्षिणपंथियों ने लंबे समय से कम्युनिस्ट क्रांतिकारी भगत सिंह के नाम को हड़पने की कोशिश की है, लेकिन इसमें वे सफल नहीं हो सके। </b><b></b>

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

“शहीद भगत सिंह के जन्मदिन पर संघी कोशिश कर रहे हैं कि इस कम्युनिस्ट के नाम को हड़प लें। वे क्यों नहीं चंडीगढ़ एयरपोर्ट का नाम बदलने के लिए अभियान चलाते हैं?” सैलीना ने ट्विटर पर लिखा। भारतीय स्वंतत्रता आंदोलन के मजबूत योद्धा भगत सिंह के 110वें जन्मदिन पर सोशल मीडिया पर बड़ी संख्या में लोगों ने उन्हें याद किया।

Published: 28 Sep 2017, 8:10 PM IST

फैसलाबाद (पूर्ववर्ती ल्यालपुर) जिले के बंगा गांव (अब पाकिस्तान) में 28 सितंबर 1907 को भगत सिंह का जन्म हुआ था। स्वतंत्रता आदोलन और जालियांवाला बाग हत्याकांड ने उन्हें काफी उद्वेलित किया। जालियांवाला बाग हत्याकांड के समय भगत सिंह सिर्फ 12 साल के थे। भगत सिंह एक बेहद गंभीर और सक्रिय पाठक-लेखक थे और उनके विचारों में जबरदस्त साफगोई थी। समाजवाद, साम्यवाद जैसे विचारों की तरफ उनका झुकाव था।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेवानिवृत प्रोफेसर चमन लाल ने अपने एक लेख में लिखा है: “भगत सिंह को लेकर हालिया वर्षों में राजनीतिक चाल के तहत कई कहानियां गढ़ी गई हैं, उनके लेखन और विचारों पर एक नकली चादर चढ़ा दी गई है, जो आरएसएस हर तरह के इतिहास के साथ करता है, लेकिन कब तक? भगत सिंह एक धधकती हुई आग हैं, अपनी चमकती उपस्थिति में वे दक्षिणपंथी फासीवादियों को खुद को छूने नहीं देते और बहुत तेजी से उनके दोमुंहेपन का पर्दाफाश कर देते हैं जैसा चंडीगढ़ एयरपोर्ट के नामकरण के मामले में हुआ।”

भगत सिंह ने नास्तिकता को लेकर ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ शीर्षक से एक ताकतवर लेख लिखा था। यह लेख देश के युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय है। यह हिंदुत्व की ताकतों को उन्हें हड़पने से रोकता है।

अप्रैल 1929 में दिल्ली के केंद्रीय एसेंबली में बम फेंकने के बाद उन्होंने गिरफ्तारी दे दी, जिसके बाद वे दो साल जेल में रहे। इन मामलों में चला अपना पूरा मुकदमा उन्होंने खुद लड़ा। भगत सिंह ने जातिवादी व्यवस्था के विरोध की जरूरत और क्रांति के मकसद के बारे में बहुत ही तार्किक ढंग से लिखा है जो आज भी प्रासंगिक है।

हम भगत सिंह के ऐतिहासिक लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ का एक अंश प्रकाशित कर रहे हैं:

ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने, स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बांधने के लिए - ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की। अपने व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ाकर कल्पना और चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक डरानेवाले के रूप में किया जाता है, ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए। जब उसके अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है। इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था। विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है।

समाज को इस ईश्वरीय विश्वास के विरुद्ध उसी तरह लड़ना होगा जैसे कि मूर्ति-पूजा और धर्म-संबंधी क्षुद्र विचारों के विरुद्ध लड़ना पड़ा था। इसी प्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमें परिस्थितियां उसे पलट सकती हैं। मेरी स्थिति आज यही है। यह मेरा अहंकार नहीं है। मेरे दोस्तों, यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज-बरोज की प्रार्थना - जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ - मेरे लिए सहायक सिद्ध होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, इसलिए मैं भी एक मर्द की तरह फांसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊंचा किए खड़ा रहना चाहता हूं।

देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूँ। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे।’ मैंने कहा, ‘नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा। ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक और पराजय की बात होगी। स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूंगा।’ पाठकों और दोस्तों, क्या यह अहंकार है? अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूं।

Published: 28 Sep 2017, 8:10 PM IST

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Published: 28 Sep 2017, 8:10 PM IST

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