शख्सियत

संत कबीर जयंती विशेष: आज के माहौल में कबीर के सद्भावना और एकता के संदेश को याद करना जरूरी

संत कबीर ने निरंतर लोगों को धार्मिक कर्मकांडो, भेदभाव और झगड़ों से दूर रहने के लिए कहा और उन्हें भक्ति और नैतिकता का ऐसा मार्ग दिखाया जो सभी मजहबों के लोगों के लिए खुला है और जिस पर वे सभी साथ-साथ चल सकते हैं।

रेखाचित्रः सोशल मीडिया
रेखाचित्रः सोशल मीडिया 

इस वर्ष हम कबीर जयंती ऐसे समय में मना रहे हैं जब उनके सद्भावना एवं एकता संदेश की बहुत जरूरत है। संत कबीर ने निरंतर लोगों को धार्मिक कर्मकांडो, भेदभाव और झगड़ों से दूर रहने के लिए कहा और उन्हें भक्ति और नैतिकता का ऐसा मार्ग दिखाया जो सभी मजहबों के लोगों के लिए खुला है और जिस पर वे सभी साथ-साथ चल सकते हैं।

उन्होंने कहा -

कहै हिंदू मोंहि राम पिआरा तुरूक कहै रहिमाना

आपस में दोउ लरि-लरि मूए मरम न काहू जाना

इन व्यर्थ के झगड़ों पर गहरा दुख प्रकट करने वाले संत कबीर ने यह भी बताया कि सब धर्मों का मूल संदेश एक ही है-

ग्रन्थ पन्थ सब जगत के बात बतावे तीन।

राम हृदय मन में दया, तन सेवा में लीन।

एक अन्य जगह वे कहते हैं-

काशी काबा एक है, एकै राम रहीम।

मैदा इक पकवान बहु, बैठ कबीरा जीम।

कृष्ण करीमा एक है, नाम धराया दोय।

कहै कबीर दो नाम सुनि, मर्मि परो मति कोय।।

दो टूक बात कहने वाले संत कबीर ने सदा कहा कि ईश्वर को पाने के लिये दूर-दूर के तीर्थों में जाने की जरूरत नहीं है।

ज्यों नैनों में पूतली, त्यों मालिक घट मांय।

मूर्ख लोग न जानिए, बाहर ढूंढन जांय।।

ज्याें तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग।

तेरा मालिक तुझी में, जाग सके तो जाग।।

नफरत की राह छोड़कर परस्पर प्रेम की राह अपनाने के लिए संत कबीर ने कहा -

प्रेम प्रेम सब कोई कहै, प्रेम न चीन्हें कोई।

जा मारग साहब मिले, प्रेम कहावे सोय।

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया ना कोय

ढाई आखर प्रेम का, पढै़ सौ पंडित होय।

धर्म के नाम पर धन्धा करने वालों और संकीर्ण स्वार्थ साधने वालों को कबीर ने इन शब्दों में धिक्कारा -

माला फेरत हात में बात करत है और

ऐसे साधु सन्त को तीन लोक न ठौर

माला फेरत जुग भया फिरा न मन का फेर,

कर का मनका डारि दे मन का मनका फेर।

धर्म के कर्मकाण्ड और कपटता वाले रास्ते की पोल खोलकर कबीर ने जनसाधारण को धर्म की वह राह दिखाई जिसमें सहनशीलता, प्रेम, समर्पण, सादगी, परोपकार तो खूब है पर जिसमें ढोंग, अहंकार, भोग-विलास और अन्याय के लिए कोई जगह नहीं है।

दो टूक की बात कहने वाले कबीर ने सदा कहा कि ईश्वर को पाने के लिये दूर-दूर के तीर्थों मंदिर-मस्जिद में जाने की जरूरत नहीं है।

ज्यों नैनों में पूतली, त्यों मालिक घट मांय।

मूर्ख लोग न जानिए, बाहर ढूंढन जांय।।

ज्याें तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग।

तेरा मालिक तुझी में, जाग सके तो जाग।।

मोकौ कहां ढूढ़त बंदे मै तो तेरे पास में

ना मैं बकरी ना मै भेड़ी ना धारी गंडास में

नहीं खाल में नहीं पौधा मे ना हड्डी ना मास में

ना मै दैवल ना मै मस्जिद ना काबा कैलाश में

ना तो कौनो किरिया करम में, नाहि जोग वैराग में

खोजो हो तो तुरंतै मिलि हैं, पलभर की तलाश में

तेरा सांई तुझ में ज्यों पुष्पन में बास

कस्तूरी का मिरग ज्यो ढूंढै फिरै सुवास

साधु-सन्तों की पहचान इसी में है कि वे दूसरों की भलाई में कितने समर्पित हैं-

वृक्ष कबहु नहि फल भखें नदी न संचय नीर,

परमारथ के कारने साधुन धरा सरीर।

दूसरी महत्वपूर्ण बात (विद्वता की सही पहचान में) यह है कि वे मूल बात को ग्रहण करते हैं कि नहीं-

साधु- ऐसा चाहिये जैसा सूप सुभाय

सार वस्तु गहि लेत है थोथा देय उड़ाय

साधु की पहचान कभी उसकी जाति में नहीं हो सकती, यह कह कर कबीर ने सदियों से चली आ रही संकीर्णता पर चोट की-

जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान

मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान

कबीर ने जो धर्म प्रतिपादित किया, उसमें दूसरों का भला करने को विशेषकर दीन दुखियों की सेवा करने पर, उन्हें कभी भी न सताने पर, विशेष महत्व दिया गया, जैसा कि नीचे की पंक्तियों से स्पष्ट है-

जो तोको कांटा बोवे, ताहि बोवे तू फूल

तोहि फूल के फूल है, वाको है तिरसूल।

दुर्बल को न सताईये, जाकी मोटी हाय।

बिना जीव की सांस से, लोह भस्म हो जाय।

दीनन पर कर दया विपत में हाथ बटाई

कबिरा बस एक यही धर्म की है गहराई।

हर कोई कबीर नहीं बन सकता है, यह सच है। पर क्या हम कबीर से कुछ सीख भी नहीं सकते हैं? कबीर जैसी गहरी करुणा और उससे जुड़ी आध्यात्मिकता हर किसी में नहीं हो सकती है, पर फिर भी कबीर के जीवन से कितनी ही अन्य बाते हम सीख सकते हैं जो हमें एक जिम्मेदार और सार्थक सामाजिक भूमिका निभाने में मदद करेगी। ‘साई इतना दीजिये जा में कुटुम समाये’ का अमर वाक्य कहने वाले कबीर ने सदा आवश्यकताओं को सीमित करने, माया-मोह से यथा संभव बचने और सादगी का जीवन जीने का संदेश दिया। ‘‘धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधु नांहि’’, कह कर उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि कौन से लोग साधु हो ही नहीं सकते हैं।

पूर्ण रूप में तो कबीर को बहुत कम लोग ही अपना सकेंगे। पर लालच, उपभोक्तावाद, अहंकार और सांप्रदायिकता जैसी संकीर्ण भावना के विरुद्ध और सादगी, नम्रता और भाई चारे के पक्ष में उनका संदेश तो हम सब अपना सकते है।

ठीक बाजार के बीच खड़े होकर डंके की चोट पर इस जन-कवि ने एक से एक चुनौती भरी बात पूरी निर्भीकता से कही।

धर्म के कर्मकाण्ड और कपटता वाले रास्ते की पोल खोलकर कबीर ने जनसाधारण को धर्म की वह राह दिखाई जिसमें सहनशीलता, प्रेम, समर्पण, सादगी, परोपकार तो खूब है पर जिसमें ढोंग, अहंकार, भोग-विलास और अन्याय के लिए कोई जगह नहीं है।

बिना किसी भेदभाव और डर के कबीर ने अपनी यह बात कही -

कबीरा खड़ा बाजार में सब की मांगे खैर

ना काहू से दोस्ती न काहू से बैर

ना काहू से बैर ज्ञान की अलख जगाये

भूला भटका जो होए राह ताही बतलाये

बीच सड़क के मांहि झूठ को फोड़े भंडा

बिन पैसे बिन दाम ज्ञान का मारै डंडा।

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