शख्सियत

“मेरे लहू से चुल्लू भर कर, महादेव के मुंह पर फेंको...”

जहां तक राही मासूम रजा की शायरी का सवाल है, तो उन्होंने लोगों का दर्द इस तरह बयां किया है, मानो वह उनका अपना ही दर्द हो।

फाइल फोटो
फाइल फोटो 

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है

मुझको क़त्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो

लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है

मेरे लहू से चुल्लू भर कर

महादेव के मुंह पर फेंको

और उस जोगी से कह दो

महादेव, अपनी इस गंगा को वापस ले लो

यह हम ज़लील तुर्कों के बदन में

गाढ़ा, गर्म लहू बन बन के दौड़ रही है

इस नज़्म में आज के दौर के हालात कितनी अच्छी तरह परिलक्षित होते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि यह नज़्म 1965 में प्रकाशित एक शे’री मजमूए (काव्य संकलन) में शामिल थी। और, इस नज़्म को लिखने वाले शख्स का नाम है राही मासूम रज़ा।

हां, वही राही मासूम रज़ा, जिन्होंने अपने दिल में गंगा-जमुनी तहज़ीब को संभाले रखा और अपने लेखों, अपने उपन्यासों और अपनी शायरी से खुद को असली मायनों में भारतीय साबित किया। उनकी कलम से निकले शब्द सांप्रदायिकता के खिलाफ आवाज भी बुलंद करते थे और सामाजिक और नैतिक मूल्यों की मशाल भी जलाते थे। और यही वजह है कि, 1 सितंबर, 1927 को उत्तर प्रदेश के गंगोली में पैदा हुए राही मासूम रज़ा को जितनी मुहब्बत उर्दू वालों से मिली उतनी ही हिंदी वालों से भी। बल्कि, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि 'महाभारत' सीरियल के संवाद लिखकर उन्होंने गंगा-जमुनी तहजीब की नई मिसाल पेश की। इस धारावाहिक ने उन्हें नई पहचान दी और और वह प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंच गए। हिंदू वर्ग में तो उन्हें दूसरा वेद व्यास तक कहा जाने लगा था।

वैसे तो लोग राही मासूम रज़ा को उनकी सामाजिक और क्रांतिकारी शायरी की वजह से ज्यादा जानते हैं, लेकिन उन्होंने 'आधा गांव', 'टोपी शुक्ला', 'ओस की एक बूंद', 'हिम्मत जौनपुरी' और 'दिल एक सादा कागज' जैसे उपन्यास भी लिखे हैं जिसमें भारत-पाकिस्तान विभाजन का दर्द, दंगों के क्षण और सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को विषय बनाया गया है। जब आप राही मासूम रज़ा को पढ़ेगे तो आपको एहसास होगा कि वे 1947 से 1980 के बीच के दर्द और दिक्कतों को नहीं बता रहे हैं, बल्कि वे 21वीं सदी के भारत की पीड़ा और मुद्दों को भी सामने रख रहे हैं।

1966 में प्रकाशित उनके उपन्यास 'आधा गांव' का वह अंश ही देख लो, जो इस उपन्यास का शुरुआती हिस्सा है:

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“गाजीपुर के पुराने किले में अब एक स्कूल है, जहां गंगा की लहरों की आवाज़ें तो आती हैं, लेकिन तारीख के गुनगुनाने या ठंडी सांस लेने की आवाज नहीं आती। किले की दीवारों पर अब कोई पहरेदार नहीं घूमता, न ही उन तक कोई तालिब इल्म ही आता है जो डूबते हुए सूरज की रोशना में चमचमाती हुई गंगा से कुछ कहे या सुने। गदले पानी की इस धारा को न जाने कितनी कहानियां याद होंगी, लेकिन मांएं तो जिनों, भूतों, परियों और लुटेरों की कहानियों में मगन हैं। और, गंगा के किनारे न जाने कब से बेकरार इस शहर को इसका खयाल भी नहीं आता कि गंगा की पाठशाला में बैठकर अपने अजदाद की कहानियां सुने।“

इस उपन्यास अंश में भागदौड़ भरी जिंदगी का अक्स और गंगा से जुड़ी ऐसी बेशुमार कहानियों की तरफ इशारा है जो इतिहास के धुंधलके में कहीं खो गयी हैं। इस में गंगा की जिन लहरों की बात की जा रही है उसे गाजीपुर के पुराने किले से हटाकर उन्हें अपने इलाके की किसी नदी की लहरों से जोड़कर देखिए। आपको यही लगेगा कि राही मासमू रज़ा आपके ही किसी इलाके की कहानी सुना रहे हैं।

राही मासूम रज़ा ने गाजीपुर में अपनी आंखें खोलीं और उच्च शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हासिल की, लेकिन जिंदगी का बड़ा हिस्सा मुंबई में गुजारा। 1968 में मुंबई को अपना घर बनाने वाले राही मासूम रज़ा साहित्यिक गतिविधियों में शामिल रहने के साथ ही फिल्मों में स्क्रिप्ट राइटिंग (पटकथा लेखन) का काम भी करते रहे। इससे उनकी रोजी रोटी का मसला ही हल नहीं हुआ बल्कि उनकी काबिलियत ने उनका कद और ऊंचा कर दिया।

महाभारत सीरियल की बात पहले हो चुकी है, इसके अलावा उन्होंने ‘आधा पेड़’, 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' जैसे धारावाहिकों के लिए भी पटकथा लिखने का काम किया। आपको शायद यह जानकर हैरानी होगी कि राही मासूम रजा ने कम से कम 300 फिल्मों में पटकथा लेखन और संवाद लेखन का काम किया। 1979 में उन्हें ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ के लिए संवाद लेखन का फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला।

जहां तक राही मासूम रजा की शायरी का सवाल है, तो उन्होंने लोगों का दर्द इस तरह बयां किया है, मानो वह उनका अपना ही दर्द हो। या यूं कह सकते हैं कि उन्होंने अपने दर्द को इस तरह बयां किया कि लोग उसे अपना ही दर्द समझने लगे। राही को अपनी मातृभूमि गंगोली और गाजीपुर से बहुत प्यार था, लेकिन जब रोटी की रोटी की तलाश में उन्हें इसे छोड़ना पड़ा, तो बहुत तकलीफ हुयी। शायद इसीलिए उन्होंने यह शे’र लिखा था:

हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चांद

अपनी रात की छत पर, कितना तन्हा होगा चांद

अब आप खुद ही तय कीजिए कि क्या यह सिर्फ राही मासूम रज़ा का दर्द है। इस गज़ल को जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने अपनी शानदार आवाज दी है। अगर आप इसे सुनेंगे तो आंखे नम होना लाजिमी है। फिर यह शे’र देखें, जिसमें परदेस में रहते हुए दिल बहलाने की बात कही गयी है :

सोचता था कैसे कटेंगी रातें परदेस की

ये सितारे तो वही हैं, मेरे आंगन वाले

यानी अपने शहर से दूर होने के दर्द की दवा भी वह खुद ही तलाश कर रहे हैं। इसी तरह के शे’रों की वजह से ही राही मासूम रजा लोगों को दिलों में आज भी जिंदा हैं। अपनी कलम से लोगों में सिहरन पैदा करने वाला यह शख्स 15 मार्च 1992 इस दुनिया से रुखसत हो गया, लेकिन हर मजहब, हर धर्म के मानने वाले के दिलों में वह आज भी बसता है। गंगा-जमुनी तहजीब का उन जैसा अलमबरदार अब ढूंढे भी नहीं मिलता है।

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