शख्सियत

पंडित राजन मिश्रा के जाने से बिछड़ गया दो हंसों का जोड़ा : 'मिलहिं न जगत सहोदर भ्राता'

बनारस के अन्य अप्रतिम कलाकार "प्यारे हरिचंद जू" की तरह अब पंडित राजन मिश्रा की भी "कहानी रहि जाएगी।" उनको श्रद्धांजलि उन सबकी ओर से, जिनके कानों को इस बेसुरे बेचारे समय के बीच उनके स्वरों ने तृप्ति दी।

पहली फोटो में सबसे बाईं तरफ लेखिका मृणाल पांडे पंडित राजन मिश्रा और साजन मिश्रा के साथ, दूसरी फोटो में दोनों भाई एक सौम्य मुद्रा में
पहली फोटो में सबसे बाईं तरफ लेखिका मृणाल पांडे पंडित राजन मिश्रा और साजन मिश्रा के साथ, दूसरी फोटो में दोनों भाई एक सौम्य मुद्रा में 

पं.राजन मिश्रा का अचानक निधन हमारे हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की एक बहुत बड़ी क्षति है। 80 के दशक में, उनको पहली बार जब वे बहुत युवा थे, स्व. दीपाली नाग के घर पर सुना था। अपने अभिन्न सहोदर साजन मिश्रा के साथ राग श्री गा रहे थे : " हरि के चरणकमल, निसदिन सुमिर रे, ध्यान धर अविचल भवजलधि तर रे।" भक्तिरस में सराबोर दोनों भाइयों की वह राम लक्ष्मण जैसी वह अभिराम जोड़ी आज भी आंखों में बसी है।

बहुत जानकारी गुणी जनों की महफ़िल थी, जिसमें मेज़बान विजय किचलू और सुकुमार मुखर्जी जैसे लोगों का आई. टी. सी. अकादमी का पूरा शिष्टमंडल बड़े गौर से उनको सुन रहा था। भाइयों के बरस गायन में ओज के साथ ठहराव और चैन था। दोनों में कहीं तनाव या दिखावे की प्रवृत्ति नहीं थी । बड़े भाई गंभीर थे, उनके हाथ में सहज कमान रहती, पर छोटे को भी वे भरपूर छूट देते जाते, सुरों से एक "लछिमनाई" नटखटपने से खेलते हुए तार सप्तक पर छलांग लगाने की ।

श्री धीर गंभीर राग है, पर लछिमन लला के लिए उसमें भी कौतुक क्रीड़ा का अवसर रहता ही है। सही समय पर राजन जी स्वरों को गांभीर्य का पुट देते हुए सधे अश्व की तरह फिर अपनी इच्छित दिशा को मोड़ लेते। दीपाली दी झुक कर बुदबुदाईं, बहुत सुंदर तालमेल है । देखना, ये दोनों बहुत आगे जाएंगे एक दिन ।

उनकी पारखी नज़र ने हीरों की तभी पहचान कर ली थी। राजन-साजन मिश्रा की जोड़ी जल्द ही संगीत की महफ़िलों का गलहार बन गई।

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आकर्षक छबीला पक्का बनारसी अंदाज़, कल्ले में दबा पान का बीड़ा और सही सुघड़ घरानेदार तालीम से समृद्ध उनकी कंठ की मधुरता में जो गहराई भर दी गई थी, वह बार बार रसिक सुजनों ने सराही। बाद को कुछ बार उनसे दूरदर्शन और लोक-सभा टी. वी.के लिए साक्षात्कार का सौभाग्य मिला। बहुत सहज सरल और जानकार गायक थे। मेरे प्रिय तुलसीदास उनके भी आराध्य थे जिनको भाइयों ने रस में डूब कर क्या ख़ूब गाया है। बस अब उनकी वही रिकॉर्ड में बंद यादें बचीं हैं।

अंतिम बार रज़ा न्यास के आयोजन में उनका एक रसवंत साक्षात्कार सुना । दोनों भाई रंग में थे। बनारस का बचपन, गलियों में उछल-कूद, संगीत शिक्षा का कठोर अनुशासन और पारिवारिक रिश्तों की मोहक परतें खुलती गईं। आते समय वादा लिया था, जल्द ही भेंट होगी, पर हंसों का वह जोड़ा बिछड़ गया। साजन जी का दु:ख कौन बंटा सकेगा?

"मिलहिं न जगत सहोदर भ्राता।"

बनारस के अन्य अप्रतिम कलाकार "प्यारे हरिचंद जू" की तरह अब पंडित राजन मिश्रा की भी "कहानी रहि जाएगी।" उनको श्रद्धांजलि उन सबकी ओर से, जिनके कानों को इस बेसुरे बेचारे समय के बीच उनके स्वरों ने तृप्ति दी।

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