वे संगीत के साधक बनने के लिए कड़ा रियाज़ करते थे, लेकिन हीरो बन गए। शायरी भी की, लेकिन एक दिन वे संन्यासी बन हिमालय की पहाड़ियों में शांति खोजने लगे। साधु संतों की जमात में शामिल हो कर दर-दर की ख़ाक छानी और जब फिर से रूपहले पर्दे का रूख किया तो खलनायक के रूप में छा गए। वे प्रेमनाथ थे। 21 नवंबर 1926 में पेशावर के घंटाघर इलाके में पैदा हुए प्रेमनाथ बहुत आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे, यहां तक की भारतीय सिनेमा की वीनस कही जाने वाली मधुबाला भी उनके प्यार में पड़ गयी थीं।
देश के बंटवारे के समय उनका परिवार पेशावर से जबलपुर आ गया। प्रेमनाथ ने वकालत की पढ़ाई भी की थी, लेकिन उनका मन तो अभिनय में रमा रहता था। पचास के दशक में अपने सपनों को साकार करने के लिये प्रेमनाथ ने मुंबई का रूख किया और पृथ्वी राज कपूर के पृथ्वी थियेटर में अभिनय करने लगे। 1948 में उन्हें फ़िल्म में पहली बार काम करने का मौका मिला। फिल्म का नाम था ‘अजित’। लेकिन उनकी पहचान बनी राजकपूर की फिल्म ‘आग’ से। 1948 में फिल्म ‘आग’ और 1949 में राजकपूर की ही फिल्म ‘बरसात’ की सफलता के बाद प्रेमनाथ ख़ुद को स्थापित करने में सफ़ल हो गए। पचास के दशक में प्रेम नाथ ने कई फिल्मों में नायक की भूमिका निभाईं और इनमें कई हिट भी रहीं।
प्यार के मामले में प्रेमनाथ पहली बार चर्चा में आए मधुबाला को लेकर। लेकिन, जब उन्हें पता चला की उनके दोस्त दिलीप कुमार मधुबाला को हासिल करना चाहते हैं, तो प्रेमनाथ ने अपने कदम पीछे खींच लिये। दूसरी बार प्रेमनाथ अभिनेत्री बीना राय के प्यार में पड़े और दोनों ने शादी कर ली। पचास के दशक में अपनी लोकप्रियता को देखते हुए प्रेमनाथ ने शगूफ़ा, औरत, समंदर और गोलकुंडा का क़ैदी जैसी फिल्में बनाईं।
गोलकुंडा का कैदी बुरी तरह फ़्लाप रही। इससे प्रेमनाथ को भारी आर्थिक नुकसान हुआ। उनका मन दुनिया की गतिविधियों से उचटने लगा। हांलाकि इसके बाद भी उन्होंने जागीर (1959), गैंबलर (1960) पठान (1962), रुस्तम और सोहराब तथा सिकंदरे आजम (1965) जैसी फिल्मों में काम किया।
मगर प्रेमनाथ का मन हर चीज़ से उचट चुका था। फिर प्रेमनाथ संन्यास की ओर मुड़ गए। कई साल के भटकाव के बाद उन्होंने फिल्म जानी मेरा नाम (1970) से पर्दे पर खलनायक का अवतार लिया। एक आक्रमक और अय्याश खलनायक का रोल उन्होंने इतनी लगन से निभाया कि वह रोल उनके जीवन का यादगार रोल बन गया। 1975 में प्रदर्शित धर्मात्मा में प्रेमनाथ के अभिनय का नया रूप दर्शकों को देखने को मिला। इस फिल्म में प्रेम नाथ ने अंडरवर्ल्ड डॉन के किरदार धर्मदास धर्मात्मा को रूपहले पर्दे पर जीवंत कर दिया। इसके अलावा नहले पर दहला, विश्वनाथ (1978) और कर्ज (1980) जैसी सुपरहिट फिल्मों में भी प्रेमनाथ ने अपनी अलग छाप छोड़ी।
अपनी फिल्मी छवि की परवाह किये बिना बीच-बीच में प्रेमनाथ मन पंसद भूमिकाएं भी स्वीकार करते रहे। बॉबी में उन्होनें फिल्म अभिनेत्री डिंपल कपाड़िया के पिता की शानदार भूमिका निभाई। इस फिल्म में दमदार अभिनय के लिये उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का फिल्म फेयर अवार्ड के लिए नामांकित किया गया। इसके अलावा उन्हें शोर (1972) , (अमीर गरीब) 1974, रोटी कपड़ा और मकान जैसी फिल्मों में भी जानदार अभिनय के लिये फिल्म फेयर अवार्ड के लिए नामांकित किया गया।
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प्रेमनाथ की भूमिकाओं की विशेषता यह रही है कि उन्होंने जितनी भी फिल्मों में अभिनय किया उनमें हर पात्र को एक अलग अंदाज में दर्शकों के सामने पेश किया। अपनी हर भूमिका में नये तरीके से संवाद बोलते नजर आये। अस्सी के दशक में स्वास्थ्य खराब रहने के कारण प्रेम नाथ ने फिल्मों में काम करना कुछ कम कर दिया। इस दौरान उनकी क्रोधी (1982), और देशप्रेमी (1982) जैसी फिल्में प्रदर्शित हुई। 1985 में प्रदर्शित फिल्म हम दोनों उनके सिने करियर की आखिरी फिल्म थी।
बहुत कम लोगों को पता होगा कि प्रेमनाथ एक कवि भी थे। श्रद्धांजलि, श्रद्धांजलि और टीयर्स ऑफ हार्ट (अंग्रेजी में) उनके काव्य संग्रह हैं। टीयर्स ऑफ हार्ट का हिंदी अनुवाद दिल के आंसू भी प्रकाशित हुआ। प्रेमनाथ दुनिया के धोखे और फरेब खा कर भी अपने अंदाज़ में आगे बढ़ने के हिमायती रहे, इसे उन्होंने अपनी एक कविता में इस तरह दर्ज किया है
जो जलते हैं उन्हें जलने दो, वो जल कर हो जाएंगे राख
हम तो इसी तरह जिंदगी की बहारों में, गुलिस्तां के नज़ारे देखेंगे।
अस्सी के दशक में प्रेमनाथ अपने बटों कैलाश और प्रेमकिशन के करियर को लेकर खासे चिंतित रहे। प्रेमनाथ का 3 नवंबर 1992 को निधन हो गया।
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