वह समाज सांस्कृतिक रूप से समृद्ध माना जाता है जो अपने साहित्यकारों और नायकों का सम्मान करता है। भारतीय समाज इस मायने में हमेशा से अग्रणी रहा है। यह हमेशा से अपने साहित्यकारों के समाज के प्रति योगदान को बहुत सम्मानित तरीके से याद करता है। फिलहाल भारतीय समाज यह सम्मान 80 के हो गए साहित्यकार अशोक वाजपेयी को दे रहा है, जिन्होंने अपनी कृतियों और सामाजिक जिम्मेदारियों का समुचित निर्वहन करते हुए समाज को बहुत कुछ दिया है।
कवि, समीक्षक और कला-संस्कृति के क्षेत्र में विशेष उल्लेखनीय कार्य करने वाले के रूप में देश और दुनिया में प्रसिद्ध दुर्ग (छत्त्तीसगढ़) में 1941 में जन्मे अशोक वाजपेयी ने भारतीय प्रशासनिक सेवा में अधिकारी रहते हुए भी न केवल साहित्य के क्षेत्र में प्रभावी दखल रखा बल्कि साहित्यिक-सांस्कृतिक दुनिया को संपन्न बनाने में अनवरत लगे रहे। इतना ही नहीं, साहित्य, कला और संस्कृति की प्रतिभाओं को अवसर प्रदान करने, उन्हें आगे बढ़ाने और प्रोत्साहित करने में भी लगे रहे।
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अपनी रचनाओं में आम जन की पीड़ा को आवाज प्रदान करने वाले, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति रहे, भोपाल में भारत भवन जैसे सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना कराने जैसी अहम जिम्मेदारी निभाने वाले अशोक वाजपेयी फिलहाल रजा फाउंडेशन के प्रबंध न्यासी के रूप में अपना सामाजिक योगदान देने में लगे हुए हैं। बीते करीब छह दशकों से ज्यादा की अपनी साहित्यिक-सामाजिक यात्रा के जरिये आम जन में भी अपनी अलग पहचान और स्वीकार्यता बनाई है।
ऐसे अशोक वाजपेयी के 16 जनवरी को 80 वर्ष पूरे होने पर एक आयोजन सोशल मीडिया पर हुआ जिसमें उनकी रचनाओं का लोकार्पण किया गया और गणमान्य रचनाकारों और बुद्धिजीवियों ने उनके साहित्यिक योगदान पर अपनी बातें रखीं।
रश्मि वाजपेयी और परिवार की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में अशोक वाजपेयी की दो और उन पर लिखी चार पुस्तकों का लोकार्पण किया गया। ये पुस्तकें हैं अंतरंगः प्रभात त्रिपाठी (सूर्य प्रकाशन मंदिर), वह छन्द की आवृति साः ध्रुव शुक्ल (सेतु प्रकाशन), हिन्दी भाषा और संसारः उदयन वाजपेयी (सेतु प्रकाशन), उपस्थितिः अर्चना त्रिपाठी (संभावना प्रकाशन), थोड़ा सा उजालाः अशोक वाजपेयी (वाणी प्रकाशन) और कविता-क्या कहां कैसेः अशोक वाजपेयी (राजकमल प्रकाशन)।
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कबीर वाजपेयी के संचालन में हुए इस आयोजन में प्रोफेसर अपूर्वानंद ने थोड़ा सा उजाला पर अपनी बात रखीं। उन्होंने कहा कि "अशोक वाजपेयी साहचर्य की खोज करने वाले कवि हैं। वह अवसर खोजने वाले, दूसरों को अवसर देने वाले और अपने लिए भी उपलब्ध कराने वाले कवि हैं। इस कोरोना काल में हम इस समय टेक्नालॉजी के जरिये एक दूसरे को महसूस कर रहे हैं, जबकि हमारी आदत अशोक संध्याओं की थी।" उन्होंने कहा कि "भाषा और कविता का संसार स्वायत्त है। कविता सेंस आफ अर्जेंसी के रूप मे पेश करती है। थोड़ा सा उजाला में यह आस्था थोड़ी हिलती नजर आती है। इस वक्त में संवेदना कितनी बदलेगी। स्पर्श अब डर का वायस है। अपना चेहरा तक नहीं छू सकते। इसे निर्जन शीर्षक कविता से समझा जा सकता है। इसे शब्दों की ईमानदार खोज कहा जा सकता है।
वहीं प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह ने कविता क्या कहां क्यों पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि यह बहुत गंभीर किताब है। इसमें कविता और समाज के बारे में गंभीर टिप्पणियां हैं। इसमें अशोक वाजपेयी का चिंतक रूप उभरकर सामने आता है। कहा जा सकता है कि काव्य चिंतकों की परंपरा का नाम अशोक वाजपेयी होगा। उन्होंने यह भी कहा कि कविता सिर्फ शब्द नहीं जीवन भी है। अशोक वाजपेयी सिर्फ शब्दों से प्रेम करने वाले नहीं बल्कि जीवन से भी प्रेम करने वाले कवि हैं। कविता में दृष्टि भी होती है और कला भी, ऐसा अशोक जी मानते हैं। वह दोनों का त्याग करने के पक्ष में नहीं हैं।
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कवि, कथाकार और आलोचक ध्रुव शुक्ल कहते हैं कि यह समय अकेले होते जाने का है। ऐसे में अशोक वाजपेयी जैसा कवि ही हो सकता है जो सार्वजनिकता की रचना करता है। वह अपनी कविताओं में किसी नायक की बात नहीं करते बल्कि अपने नायक खुद गढ़ते हैं जिनमें कुम्हार, लोहार और बढ़ई आदि होते हैं जो हमारे समय के नायक हैं। इन्हीं छोटे-छोटे नायकों से उनकी कविता बनती है।
ध्रुव शुक्ल कहते हैं कि अशोक वाजपेयी शब्दों को तिनकों की तरह संग्रहीत करने वाले कवि हैं। संगीत से उनका लगाव है। वह होने और न होने के बीच के कवि हैं। उनकी कविताओं में प्रार्थना की लयकारी है। वह संवेदना को रफू करने वाले कवि हैं। उन्होंने कविता को ही साध्य माना है। अशोक वाजपेयी का सबसे बड़ा अवदान प्रतिभा को पकाने का अवसर प्रदान करने का रहा है। इस किताब में छोटे से इतिहास का रेखांकन भी है।
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कार्यक्रम के अंत में अशोक वाजपेयी ने अपनी की कविताओं का पाठ किया। यह कविताएं हर संग्रह से ली गई थीं। भाई उदयन वाजपेयी के जन्म पर मां पर कांच के टुकड़े, पिता पर काका से पूर्वजों पर मल्लिकार्जुन मंसूर पर, रजा पर रजा का समय, प्रेम के लिए जगह, कोई कबीर नहीं, सब कुछ को, शब्द गिरने से बचाते हैं, वहीं से आऊंगा, करो प्रार्थना और संग्रहों से बाहर की हाल की दो कविताएं हर दिन कविता का औऱ अपना संपंदन नहीं छोड़ता शीर्षक कविताएं सुनाईं।
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