मुझे, मेरे देश की जनता ने, मेरे हिंदुस्तानी भाइयों और बहनों ने, इतना प्रेम और इतनी मुहब्बत दी है कि मैं चाहे जितना कुछ करूं, वह उसके एक छोटे से हिस्से का भी बदला नहीं हो सकता। सच तो यह है कि प्रेम इतनी कीमत की चीज है कि इसके बदले कुछ देना मुमकिन नहीं। इस दुनिया में बहुत से लोग हुए, जिनकों अच्छा समझकर, बड़ा मानकर, उनका आदर किया गया, पूजा गया, लेकिन भारत के लोगों ने, छोटे और बड़े, अमीर और गरीब, सब तबकों के बहनों और भाइयों ने, मुझे इतना ज्यादा प्यार दिया कि जिसका बयान करना मेरे लिए मुश्किल है और जिससे मैं दब गया। मैं आशा करता हूं कि मैं अपने जीवन के बाकी बरसों में अपने देशवासियों की सेवा करता रहूंगा और उनके प्रेम के योग्य साबित होऊंगा। बेशुमार दोस्तों और साथियों के मेरे ऊपर और भी ज्यादा एहसान हैं। हम बड़े-बड़े कामों में एक दूसरे के साथ रहे, शरीक रहे, मिलजुलकर काम किए। यह तो होता ही है कि जब बड़े काम किए जाते हैं, उनमें कामयाबी भी होती है, नाकामयाबी भी होती है। मगर हम सब शरीक रहे कामयाबी की खुशी में भी और नाकामयाबी के दुख में भी।
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मैं चाहता हूं, और सच्चे दिल से चाहता हूं कि मेरे मरने के बाद कोई धार्मिक रस्में अदा न की जाएं। मैं ऐसी बातों को मानता नहीं हूं और सिर्फ रस्म समझकर उनमें बंध जाना, धोखें में पड़ना मानता हूं। मेरी इच्छा है कि जब मैं मर जाऊं तो मेरा दाह-संस्कार कर दिया जाए। अगर विदेश में मरूं तो मेरे शरीर को वहीं जला दिया जाए, और मेरी अस्थियां इलाहाबाद भेज दी जाएं। उनमें से मुट्ठी भर गंगा में डाल दी जाएं और उनके बड़े हिस्से के साथ क्या किया जाए, मैं आगे बता रहा हूं। उनका कुछ भी हिस्सा किसी हालत में बचाकर न रखा जाए।
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गंगा में अस्थियों का कुछ हिस्सा डलवाने के पीछे, जहां तक मेरा ताल्लुक है, कोई धार्मिक खयाल नहीं है। इसके बारे में मेरी कोई धार्मिक भावना नहीं है। मुझे बचपन से गंगा और यमुना से लगाव रहा है, और जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, यह लगाव बढ़ता रहा। मैंने मौसमों के बदलने के साथ इनमें बदलते हुए रंग और रूप को देखा है, और कई बार मुझे याद याद आई उस इतिहास की, उन परंपराओं की, पौराणिक गाथाओं की, उन गीतों और कहानियों की, जो कि कई युगों से उनके साथ जुड़ गई हैं और उनके बहते हुए पानी में घुलमिल गई हैं।
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गंगा तो विशेषकर भारत की नदी है, जनता की प्रिय है, जिससे लिपटी हुई हैं भारत की जातीय स्मृतियां, उसकी आशाएं और उसके भय, उसके विजयगान, उसकी विजय और पराजय। गंगा तो भारती की प्राचीन सभ्यता की प्रतीक रही है, निशानी रही है, सदा बदलती, फिर वही गंगा की गंगा। वह मुझे याद दिलाती है हिमालय की, बर्फ से ढंकी मैदानों की, जहां काम करते मेरी जिंदगी गुजरी है, मैंने सुबह की रोशनी में गंगा को मुस्कराते, उछलते-कूदते देखा है, और देखा है शाम के साये में उदास, काली सी चादर ओढ़े हुए, भेद भरी, जाड़ों में सिमटी सी आहिस्ते आहिस्ते बहती सुंदर धारा, और बरसात में दौड़ती हुई, समुद्र की तरह चौड़ा सीना लिए, और सागर को बर्बाद करने की शक्ति लिए हुए, यही गंगा मेरे लिए निशानी है भारत की प्राचीनता की, यादगार की, जो बहती आई है वर्तमान तक, और बहती चली जा रही है भविष्य के महासागर की ओर।
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भले ही मैंने पुरानी परंपराओं, रीति और रस्मों को छोड़ दिया हो, और मैं चाहता भी हूं कि हिंदुस्तान इन सब जंजीरों को तोड़ दे, जिनमें वह जकड़ा है, जो उसको आगे बढ़ने से रोकती है और देश में रहने वालों में फूट डालती है, जो बेशुमार, लोगों को दबाए रखती है और जो शरीर और आत्मा के विकास को रोकती है। यह सब मैं चाहता हूं, फिर भी मैं यह नहीं चाहता कि मैं अपने को इन पुरानी बातों से बिलकुल अलग कर लूं। मुझे फख्र है इस शानदार उत्तराधिकार का, इस विरासत का, जो हमारी रही है और हमारी है, और मुझे यह भी अच्छी तरह से मालूम है कि मैं भी, हम सबों की तरह, इस जंजीर की एक कड़ी हूं, जो कि कभी नहीं और कहीं नहीं टूटी है और जिसका सिलसिला हिंदुस्तान के अतीत के इतिहास के प्रारंभ से चला आता है। यह सिलसिला मैं कभी नहीं तोड़ सकता, क्योंकि मैं उसकी बेहद कद्र करता हूं, और इससे मुझे प्रेरणा, हिम्मत और हौसला मिलता है। मेरी इस आकांक्षा की पुष्टि के लिए और भारत की संस्तिकृ को श्रद्धांजलि भेंट करने के लिए, मैं यह दरख्वास्त करता हूं कि मेरी भस्म की एक मुट्ठी इलाहाबाद के पास गंगा में डाल दी जाए, जिससे कि वह उस महासागर में पहुंचे, जो हिंदुस्तान को घेरे हुए है। मेरे भस्म के बाकी हिस्से को क्या किया जाए? मैं चाहता हूं कि इसे हवाई जहाज में ऊंचाई पर ले जाकर बिखेर दिया जाए, उन खेतों पर, जहां भारत के किसान मेहनत करते हैं, ताकि वह भारत की मिट्टी में मिल जाए और उसी का अंग बन जाए।
(नेहरू की राष्ट्र को सौंपी गई आखिरी वसीयत, जो उन्होंन 21 जून, 1954 को लिखी थी और इसे उनके निधन के बाद 03 जून, 1964 को प्रसारित किया गया)
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