इस 26 जुलाई को नामवर सिंह 93 साल के हो जाते। उनके न रहने का शोक करना उस भरे-पूरे जीवन का अपमान करना होगा जो उन्होंने छक कर जिया और जिसमें हिंदी के संसार को भी शामिल किया। बेशक, हर जीवन की अपनी विफलताएं रहती हैं, नामवर सिंह की भी होंगी, लेकिन क़रीब सात दशकों के अपने अत्यंत सक्रिय और सघन जीवन में नामवर सिंह ने हिंदी साहित्य, विचार और आलोचना को जितना कुछ दिया, वह कई मायनों में अतुलनीय है।
हिंदी में हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल और रामविलास शर्मा जैसे विराट आलोचक पहले भी हुए हैं, लेकिन नामवर सिंह जैसी संवादधर्मिता और सार्वजनिकता लगभग दुर्लभ रही। वे किताबों में, विश्वविद्यालयों में, संस्थाओं में, पत्रिकाओं में, अख़बारों में, टीवी चैनलों में और सभाओं-गोष्ठियों में इस तरह मौजूद दिखते थे कि लगभग छाए रहते थे। हिंदी की कोई बात नामवर सिंह के बिना पूरी नहीं होती थी, हिंदी का कोई विचार नामवर सिंह की स्वीकृति के बाद बड़ा हो जाता था। हिंदी की हर किताब जैसे अपने लिए नामवर सिंह की मुहर मांगती थी।
यह निजी उपलब्धि भर नहीं थी। इसका एक सामाजिक-सांस्कृतिक आयाम भी था। उन्होंने हिंदी के बौद्धिकों की कई पीढ़ियां तैयार कीं। सागर विश्वविद्यालय, जोधपुर विश्वविद्यालय और जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय में रहते हुए उन्होंने हिंदी के नए अध्येता तैयार किए, हिंदी के आधुनिक पाठ्यक्रम बनाए और आज़ादी के बाद का वह मानस बनाया जिसमें हिंदी साहित्य प्रतिरोध के साहित्य के रूप में विकसित हुआ।
हिंदी की जो वाम चेतना दिखाई पड़ती है, वह जिन लोगों के सान्निध्य में फूली-फली, उनमें नामवर सिंह भी एक रहे। एक दौर में इसी वाम चेतना से अनुप्राणित वे राजनीति में भी आए और उन्होंने चुनाव भी लड़ा। लेकिन वह राजनीति उनके मिज़ाज के अनुकूल नहीं थी, उन्हें जो करना था, वह साहित्य और विचार की दुनिया में ही करना था।
नामवर सिंह की स्मृति का यही मोल है। वे विद्वान थे, परंपरा से पूरी तरह परिचित थे, लेकिन पुराने लोगों की तरह आधुनिकता से आक्रांत नहीं थे। बल्कि हिंदी का आधुनिक चेहरा गढ़ने और पढ़ने में उनकी अहम भूमिका रही। हिंदी में राष्ट्रवाद और संस्कृति से जुड़ी बहसों को उन्होंने आगे बढ़ाया। इन बहसों के लिए वे हिंदी पर निर्भर नहीं रहते थे। साल 2000 में जब ‘आलोचना’ पुनर्नवा हुई तो उन्होंने पहले अंक के पहले लेख के तौर पर एजाज अहमद की बहुत महत्वपूर्ण और लंबी टिप्पणी छापी, जिसका अनुवाद मुझसे कराया। ऐसे अनुवाद उन्होंने बाद में भी मुझसे कराए।
हिंदी में ‘युगों’ की चर्चा बहुत होती है। आने वाले दिनों में निस्संदेह ‘नामवर युग’ की भी होगी। यह सच है कि अगर ऐसा कोई युग था तो बरसों से अवसान पर था। लोकतांत्रिकता और सर्वसुलभता के अपने जोखिम होते हैं। बाद के दौर में नामवर सिंह हर सभा की शोभा होने लगे थे। मंचों से दिए गए उनके वक्तव्य कई बार अपना अर्थ खोते मालूम होते थे। लेकिन यह उस बहुत बड़ी नदी की सतह पर दिखने वाली जलकुंभियों जैसे थे जिसका नाम नामवर था। उनका काम और योगदान हिंदी के पर्यावरण के लिहाज से बहुत बड़ा और लगभग युगांतरकारी रहा।
हमारी पीढ़ी ने नामवर सिंह को दुर्योग से उस दौर में देखा, जब उनका सूर्य ढलान की ओर जाने की तैयारी कर रहा था। बेशक, उनकी कीर्ति की चमक बहुत प्रखर थी और वे सभी मंचों पर आसीन थे, लेकिन जिस कृतित्व की आभा ने उन्हें नामवर सिंह बनाया और उनके समकालीनों को एक दुर्लभ रचनात्मक सान्निध्य का सुख दिया, वह हमारे समय अनुपस्थित तो नहीं, कुछ क्षीण ज़रूर पड़ गया था। तब भी उनके कई वक्तव्य और आलेख उनकी अनूठी चमक से भरे मिला करते थे।
90 के दौर में ही जब उन्हें लगा कि दक्षिणपंथी वैचारिकी कबीर को साधने में लगी है तो उन्होंने दो तीखे लेख लिखे- ‘कबीर को भगवा’, और ‘कबीर को अगवा।‘ ये दोनों लेख डॉ रामस्वरूप चतुर्वेदी की टिप्पणियों का जवाब थे और बताते थे कि विद्वता जब बहस पर उतरती है तो किस तरह खिलती है।
दूसरी बात यह कि इस दौर में भी नामवर नए लेखकों को, नई प्रतिभाओं को पढ़ते और सराहते रहे। यह 1996 या 1997 का साल रहा होगा जब मेरी कुछ टिप्पणियों की ओर उनका ध्यान गया। इसके तत्काल बाद उन्होंने मेरे बारे में दूसरों से जानकारी हासिल की। और जब मेरी उनसे पहली मुलाकात हुई, उनके पास लगभग मेरा बायोडाटा था। कुछ पुलक और संकोच के साथ यह कहने की इच्छा होती है कि उसके पहले भी लगातार लिखने-छपने के सिलसिले के बावजूद उस दिन मेरा मन हुआ कि मैं ख़ुद को लेखक मान लूं। मेरी पहली किताब का लोकार्पण भी उन्होंने किया और बाद के कुछ साक्षात्कारों में मेरी कुछ कहानियों की चर्चा भी की।
हम फिर भी आने वाली पीढ़ियों के मुकाबले सौभाग्यशाली रहे क्योंकि उनके हिस्से नामवर नहीं आए, उनकी कीर्ति या अपकीर्ति आई। बीते एक दशक से बहुधा ऐसा लगता रहा कि उनकी स्मृति कई बार उन्हें धोखा दे रही है, कई बार वे उन मंचों पर दिखे, जहां उन्हें नहीं होना चाहिए था, लेकिन अंततः उन्हें अपने होने की भी एक क़ीमत चुकानी थी। हिंदी का सबसे बड़ा बौद्धिक हिंदी के किस मंच से अपने को दूर सकता था?
यह सच है कि अगर नामवर सिंह का कोई युग था तो उसका अवसान पहले शुरू हो चुका था, आज उस पर बस परदा गिरा है। लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि उनकी अनुपस्थिति के बाद शायद हम उनके अवदान पर कहीं ज़्यादा तटस्थता के साथ विचार कर पाएं और यह पाएं कि नामवर युग तो अब भी बना हुआ है, कि जिसे हम खत्म मान रहे हैं, वह एक परंपरा की तरह हमारे भीतर जीवित है। नामवर देहातीत हो गए, लेकिन उनकी परंपरा बची हुई है।
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