पहाड़ी संस्कृति को बढ़ावा देने, वहां की लोक गाथाओं का संरक्षण करने और रंगमंच से जातिवाद और धर्मवाद के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली कुमाऊं की बेडू पाको....वाली आपा यानी नईमा खान अभी 16 जून को चुपचाप इस दुनिया से चली गईं। वे प्रख्यात रंगकर्मी स्व. मोहन उप्रेती की पत्नी थीं। उनके निधन से रंगकर्मी स्तब्ध हैं।
दिल्ली दूरदर्शन से प्रोड्यूसर के पद से सेवानिवृत्ति के बाद वे दिल्ली के मयूर विहार इलाके में अपने घर में अकेले रहती थीं। उनका जन्म अल्मोड़ा में हुआ और वहीं शिक्षा ग्रहण करने के बाद जातिवाद और धर्मवाद से परे उन्होंने प्रख्यात रंगकर्मी स्व. मोहन उप्रेती के साथ विवाह किया। स्व. मोहन उप्रेती के साथ रहकर उन्होंने रंगकर्म की कई विधाओं को और अच्छी तरह से जाना और इनमें काम भी किया।
उत्तराखंड की प्रसिद्ध लोकगाथा राजुला मालूशाही और अजुवा बफौल जैसी कई लोक गाथाओं के संरक्षण में उन्होंने अपने पति स्व. मोहन उप्रेती के साथ काफी काम किया। दिल्ली दूरदर्शन में रंगीन स्क्रीन पर बने सबसे पहले कार्यक्रम में भी उन्होंने हिस्सा लिया था।
रंगकर्म से विशेष लगाव होने के कारण वह हमेशा संस्कृति और कला के क्षेत्र में ही सक्रिय रही। नईमा ने मृत्यु के बाद अपने शरीर को एम्स को दान करने की इच्छा जताई थी। उनकी इच्छा के मुताबिक ही उनका पार्थिव शरीर एम्स को दान कर दिया गया।
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80 वर्ष की नईमा खान अरसे से बीमार थीं। 1955 मे नईमा खान ने अल्मोड़ा लोक कलाकार संघ से जुड़कर मोहन उप्रेती के साथ 'बेडू पाको..., 'ओ लाली ओ लाली...और 'पारा भीड़ा को छै घस्यारी... जैसे कालजयी लोकगीतों को राष्ट्रीय पहचान दिलवाई। उन्होंने 1968 मे राष्ट्रीय नाट्य विघालय से एक्टिंग मे डिप्लोमा लिया और कई नाटकों मे भूमिकाएं भी कीं।
अपने पति संगीतज्ञ मोहन उप्रेती की मत्यु के बाद वह राजधानी की प्रसिद्ध संस्था पर्वतीय कला केंद्र की अध्यक्ष भी रहीं। न सिर्फ उत्तराखण्ड, बल्कि देश की लोकसंस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए नईमाजी का योगदान अक्षुण्ण है। इसे कभी नहीं भुलाया जा सकता।
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