मंगलेश डबराल के साथ एक और पुराना सहृदय रचनाकार साथी जाता रहा। साल 1948 में टिहरी के काफलपानी गांव में जन्मे मंगलेश जी की शिक्षा देहरादून में हुई। वै दैनिक जनसत्ता से लेकर भोपाल भारत भवन की पत्रिका पूर्वग्रह तक अनेक प्रतिष्ठित हिंदी प्रकाशनों से जुड़े रहे। साहित्य अकादमी से सम्मानित हुए, लेकिन सदा बेहद विनम्र और कमगो रहे।
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वे कम बोलते थे, आदतन। पर मोटे चश्मे के पीछे उनकी बड़ी बड़ी खामोश आंखें बहुत कुछ कहती थीं। उन्होंने हिंदी साहित्यकारों, पत्रकारों, राजनैतिक दलों के लोगों से अपने सहज और घनिष्ठ रिश्तों के बावजूद एक ग्रामीण पहाड़ी की तरह हमेशा अपना आत्मसम्मान सर्वोपरि रखा। अपने बुनियादी उसूलों पर अनेक दबावों और तनावों के बाद भी जमे रहे। कविता में भी, जीवन में भी। पहाड़ी मन को थामना आसान नहीं। उनके ही शब्दों में :
पहाड़ पर चढ़ते हुए
तुम्हारी साँस फूल जाती है
आवाज़ भर्राने लगती है
तुम्हारा क़द भी घिसने लगता है
पहाड़ तब भी है जब तुम नहीं हो ।
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मंगलेश गए, पर उनकी पहाड़ सी भव्य कविता हमारे-आपके बीच रहेगी। मेरे तो वे अपने शुरुआती संकलन "पहाड़ में लालटेन" से लेकर अपनी अंतिम कविताओं तक, एक ऐसे प्रिय कवि रहे, जिनको खोज कर कई बार पढ़ने की प्यास मन में सदा रहती है।
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भोपाल से दिल्ली तक साथ रहा और जब भी मिलते उनसे पहाड़ों, पहाड़ी जीवन, साहित्य और संगीत पर, जो उनका दूसरा पैशन था, सहज बातचीत होने लगती। इस बीच हमारे बाल पक चले, बारी-बारी अवकाश ग्रहण किया, चेहरे पतले और चश्मों के शीशे मोटे हुए, पर परस्पर एक अनकहा स्नेह और भरोसा बना रहा। एक दूसरे से चिरौरी कर कर हमने अपने-अपने प्रकाशनों के लिए बार-बार लिखवाया, एक दूसरे की नई किताब आने पर लंबे पत्राचार किए। अचानक अब वह सब कुछ बर्फ़ बन गया।
"सबसे ज़्यादा ख़ामोश चीज़ है बर्फ़
उसके साथ लिपटी होती है उसकी ख़ामोशी
वह तमाम आवाज़ों पर एक साथ गिरती है
एक पूरी दुनिया
और उसके कोहराम को ढाँपती हुई।"
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अलविदा मंगलेश जी। दुनिया कायदे से चलती तो पहले हमको जाना चाहिए था। चल दिए आप। इतना कोहराम समेटवाने को हम मित्र ही मिले थे, इस बेकायदा हो गई दुनिया में आपको?
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