रहें न रहें हम, महका करेंगे
बनके कली, बनके सबा, बाग़े वफा में...
यह गीत सुनो तो जैसे कली चटक रही हो, सबा यानी सुबह हौले-हौले वाली चलने वाली हवा बह रही हो और फूलों की खुश्बू फज़ा में महकने लगी हो। यह लता मंगेशकर हैं। स्वर कोकिला, साक्षात सरस्वती...सुर साध्वी...वह जब बहुत ही आसान से लगने वाले गीत गातीं तो उसमें भावों की चाशनी ऐसे मिला देती मानों रस बरस रहा हो। वह नहीं हैं, लेकिन हमारे बीच वह आज भी बनके कली, बनके सबा महक रही हैं। आज होतीं तो 95 साल की होतीं।
आम तौर पर जब हम कोई गीत गाते हैं या गुनगुनाते हैं, तो चेहरे पर भी भाव होते हैं, हाथों की मुद्राएं भी होती हैं, शरीर भी हरकत करता है...लेकिन लता मंगेशकर जब गाती थीं, तो उनकी जो तस्वीरें बाद के दिनों की हैं उनमें वे सफेद साड़ी में कभी एक या कभी दो चोटी बनाए, आंखों पर मोटा चश्मा लगाए और हाथ में डायरी लिए सुरों की ऐसी बारिश करतीं कि श्रोता भाव विह्वल हो उठते, लेकिन उनका चेहरा भावहीन ही होता...यह एक रहस्य है कि कोई कैसे जज्बातों में डूबे लफ्जों को इतनी सरलता-सहजता से आकार दे सकता है।
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आम तौर पर कहा जाता है कि किसी ठुमरी या किसी खयाल में सारे भाव आकार ले लेते हैं और पूर्णता हासिल करते हैं, और उनकी अवधि आधे-पौन घंटे तो होती ही है, लेकिन बनारस की एक ठुमरी पर ही आधारित पाकीज़ा फिल्म के गीत ठाड़े रहियो, ओ बांके यार... में लता मंगेशकर ने महज 4-5 मिनट में जिस तरह और जिन भावों के साथ सारा श्रंगार भर दिया, वह विस्मित कर देने वाला है। इस गीत की पंक्ति मैं तो कर आई सोलह सिंगार...दरअसल इन सोलह सिंगार को लता मंगेशकर ने अपनी आवाज की नक्काशी से सुर दे दिए हैं।
भारतीय संगीत जगत में सदा से एक बहस रही है कि फिल्मी संगीत तो संगीत ही नहीं होता, असली संगीत तो शास्त्रीय होता है, लेकिन संगीत की शास्त्रीयता और उसकी शुद्धता का निर्धारण तो श्रोता ही करता है, या फिर वह ईश्वर जिसकी साधना में संगीत का अर्पण किया जाता है। शास्त्रीय संगीत में जो बात कहने में 40-45 मिनट लगते हैं, तमाम मुरकियों और आलापों के साथ गाए जाने वाले राग के लिए शब्द माध्यम मात्र होते हैं, वहीं लता मंगेशकर शब्दों को शास्त्रीयता देती हैं और चंद मिनटों में राग और उससे जुड़े आलाप को आकार दे देती हैं।
रेशमा शेरा फिल्म का गीत तू चंदा मैं चांदनी... हो या फिर सत्यम शिवम् सुंदरम् का शीर्षक गीत...इन गीतों में क्या शास्त्रीयता नहीं है। इसी तरह एक गीत है मन मोहना, बड़े झूठे...इस गीत में जो तीन आवर्तन की तान है, उसमें क्या शास्त्रीयता नहीं है।
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लता मंगेशकर के गीतों की फेहरिस्त बहुत लंबी है, कई दशक की साधना की है उन्होंने...देश, समाज के बदलते मिजाज के लिए गीत गाए हैं, लेकिन एक बात जिसमें निरंतरता रही है, वह है सुरों पर उनकी गहरी पकड़, शब्दों का शुद्ध उच्चारण, भावों की परिपूर्णता...। एक बेहद लोकप्रिय गीत है लग जा गले के फिर यह हसीं रात हो न हो...इस गीत की एक पंक्ति है...हमको मिली हैं आज यह घड़ियां नसीब से...इस पंक्ति में आज शब्द को जिस तरह से लता मंगेशकर ने गाया है, मानो किसी जेवर में बहुत ही बारीक कलाकारी की गई हो...
हिंदुस्तानी फिल्मी संगीत में एक शब्द बहुत इस्तेमाल होता है...वर्सेटेलिटी यानी किसी भी मिजाज के गीत को सहजता से गा देना। लता मंगेशकर की यही बहुमुखी चपलता उनके कई गीतों में देखने को मिलती है। मसलन जहां वह शोखी में डूबा यह गीत गाती हैं बाहों में चले आओ, हमसे सनम क्या पर्दा... वहीं यह गीत ओ..सजना, बरखा बहार आई...रस की फुहार लाई...अंखियों में प्यार लाई... यही लता मंगेशकर हैं जो अल्लाह तेरो नाम... गाती हैं, तो बैयां न धरो, न धरो बलमा ...भी बेहद सहजता से गा देती हैं।
कहते हैं कि लता मंगेशकर ने एक उसूल बना रखा था कि वह कोई भी ऐसा गीत नहीं गाएंगी जिनके शब्दों से जरा सी भी अश्लीलता का एहसास होता हो। उनके इस उसूल ने एक बार मशहूर गीतकार-फिल्मकार गुलजार को मुश्किल में डाल दिया था। यह फिल्म थी मणि रत्नम की दिल से...इस फिल्म के लिए जब गुलजार साहब से कहा गया कि सुहागरात का एक गीत लिखना है तो वे पसोपेश में पड़ गए थे। लेकिन जब उन्हें बताया गया कि गीत को लता मंगेशकर गाएंगी तो उनके लिए सबकुछ आसान हो गया। यह गीत था जिया जले, जां जले....रहमान के संगीत में लता मंगेशकर ने जिस तरह इस गीत को निभाया है वह सिर्फ महसूस करने की बात है।
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एहसासों को गीतों से बयां करने वाला ही एक और गीत भी गुलजार का ही लिखा हुआ है...हमने देखी है इन आंखों की महकती खुश्बू....या फिर आंधी फिल्म का गीत रुके रुके से कदम, रुक के बार-बार चले... लता मंगेशकर गीत के भावों को ही नहीं, बल्कि उसकी क्षेत्रीयता के साथ इंसाफ करती थीं। पंजाबी पृष्ठभूमि पर लिखा गीत चिट्ठिए, पंख लगा के उड़ जा, गैर के हथ न आवी ...या फिर रूदाली का गीत दिल हूम हूम करे...
असंख्य गीत, बेशुमार भाव और दिल छू लेने वाली लय से सजे हिंदुस्तानी फिल्मी संगीत को अगर किसी ने अमृत्व दिया है, तो उस शख्सियत का नाम सिर्फ लता मंगेशकर ही हो सकता है।
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