आज के ऑटो ट्यून से भरे फ़िल्मी संगीत की दुनिया में जहां गायक ऊंचे स्केल में और गायिकाएं नीचे स्केल में गाकर धुनों के साथ प्रयोग कर रहे हैं, आज जब संगीत का मतलब कम से कम फ़िल्मी दुनिया में तो इलेक्ट्रॉनिक की बोर्ड और अरेंजर तक ही सीमित रह गया है, संगीत और शोर के बीच की रेखा धुंधली हो गयी है, ऐसे दौर में किशोर कुमार को याद करना, बदलते मौसम की हवा के ताज़े झोंके जैसा है।
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आज, इतने बरस बाद भी, किशोर कुमार जैसा काबिल और प्रतिभाशाली गायक, अदाकार, निर्देशक और प्रोड्यूसर, आज की पीढ़ी को भी हैरान और आकर्षित करता है। इक्कीसवीं सदी के हिंदी भाषी नौजवान के लिए भी किशोर कुमार के गीतों के बगैर प्रेम बिछोह, बेवफ़ाई के जज़्बात अधूरे रहते हैं।
किशोर दा की अजीबोगरीब शख्सियत लोगों को आकर्षित भी करती थी और हैरान भी। वे हरेक के लिए एक अलग किशोर कुमार थे- अपने श्रोताओं के लिए अलग, अपने दोस्तों के लिए अलग और परिचितों और मीडिया के लिए एकदम अलग। कौन सा असल किशोर है, यह बताना मुश्किल था, है और रहेगा। वो सही मायनों में परफ़ॉर्मर थे।
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अदाकारा शकीला, जिनका हाल में ही इंतकाल हुआ, ने एक इंटरव्यू में बताया था कि जब किशोर सेट पर आते थे, तो हंगामा और कन्फ्यूजन फैल जाता था। वे सनकी थे, यहां-वहां कूदते-दौड़ते फिरते थे और उन पर यकीन करना मुश्किल था। एक बार उन्होंने शकीला से कहा था कि वे अपनी बीवी रूमा को तलाक दे रहे हैं, क्योंकि वह उनका रात का खाना मेज़ पर छोड़ कर सोने चली गयी थी और जब वे घर पहुंचे तो देखा कि बिल्ली उनका खाना खा रही है! अब इस पर कौन यकीन कर सकता था!
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ठीक इसी तरह, एक बार आर डी बर्मन ने भी एक वाकया सुनाया था, कि कैसे वे किशोर से पहली बार मिले। एक बार उन्होंने देखा कि स्टूडियो की दीवार पर मफलर और टोपी लगाये एक आदमी बैठा है और आने-जाने वालों की बन्दर की तरह नक़ल कर रहा है। जब वे स्टूडियो के अन्दर जाने लगे तो वह शख्स कूद कर नीचे उतरा और रिकॉर्डिंग रूम में आ गया। “जो, जो गाना गाते थे, उनका सत्यानाश करते हुए खुद गाना गाने लगे” जब आर डी ने उनसे पूछा कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। तो किशोर का जवाब था – मैं एक अनाथ हूं। मेरी कोई देखभाल करने वाला नहीं। प्लीज़ मुझे एक चांस दे दीजिये।
ऐसे थे किशोर दा। असल ज़िन्दगी में भी नाटक नौटंकी करने में माहिर। ये किशोर कुमार ही कर सकते थे कि हाफ टिकट के गाने ‘आ के दिल पे लगी..’ को पुरुष और स्त्री दोनों स्वरों में गा लें। ‘हाफ टिकट’ में उनकी कॉमेडी और मधुबाला के साथ उनकी केमिस्ट्री अद्भुत है।
जब वे मंच पर लाइव परफोर्मेंस के लिए आते थे, तो मानो मंच जीवंत हो उठता था। वे सिर्फ परफॉर्म ही नहीं करते थे, बल्कि दर्शकों से एक सीधा नाता जोड़ते थे। मंच पर नाचते-कूदते हुए शायद ही कोई गायक इतने सुर में इतनी ऊर्जा के साथ और इतनी देर तक परफॉर्म कर सकता है।
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‘मैं हूं झूम झूम झुमरू...’ से जब उन्होंने योड्लिंग शुरू की, तो श्रोताओं ने उन्हें हाथोंहाथ लिया। गायकी में उनकी कोई औपचारिक शिक्षा दीक्षा नहीं हुई थी, लेकिन, उन्होंने अपने मौलिक अनूठे अंदाज़ से उस समय में बतौर गायक अपनी ख़ास जगह बनायी जबकि लगभग सभी गायक शास्त्रीय संगीत में मंझे हुए, प्रशिक्षित और अनुभवी कलाकार थे।
आर डी बर्मन, किशोर दा के साथ अपने पिता की परंपरा को निभाते थे। उनके पिता एस डी बर्मन, गाने की रिकार्डिंग से पहले धुन का टेप गायक के पास भेज देते थे। आर डी भी किशोर को धुन का टेप रिकार्डिंग से पहले भेज देते थे, ताकि गाने से पहले गायक उस धुन को आत्मसात कर ले। यही वजह है कि आर डी के बनाए हर गाने में किशोर ने जान फूंक दी। ‘ज़िन्दगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं’ या ‘ओ मांझी रे..’ कालजयी गाने हैं, जिनसे आज के गायक भी प्रेरणा लेते हैं और भावी गायक भी लेते रहेंगे।
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मंच पर और रिकार्डिंग के समय मसखरेपन से सभी का मनोरंजन करता हुआ यह गायक फिल्में बहुत संजीदा बनाता था। ‘दूर गगन की छांव में’ हो या ‘दूर का राही’- दोनों ही फिल्मे गंभीर सन्देश लिए थीं।
इससे ज़ाहिर होता है कि हरफनमौला किशोर दा को महज़ एक कुशल कॉमेडियन या बेहतरीन गायक के खांचे में नहीं समझा जा सकता। वे एक गहरी और उलझी हुई शख्सियत थे। उनकी गायकी और कॉमेडी में हमें इस शख्सियत की बस झलक भर दिखती है।
उन्होंने चार शादियां कीं, इनकम टैक्स विभाग पर अपने बयानों से वे हमेशा विवादों में रहे और मीडिया को इंटरव्यू देते वक्त तमाम परतों में छिपे। ये संजीदा, मगर मसखरा और बेहद प्रतिभाशाली शख्स उम्र के आखिरी पड़ाव में हमेशा खंडवा में अपने घर जाने की बात करता रहा, लेकिन जा नहीं सका। शायद ऐसे विरले लोग घर का रास्ता भूल कर जीवन के हर मोड़ पर घर तलाशते हुए ही अपनी कला की अज़ीम मिसालें हमारे लिए छोड़ जाते हैं जो एक समाज की हरेक पीढ़ी के लिए वक्त के तमाम उतार-चढ़ावों के बीच दुलार भरा सहारा बन जाती हैं।
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