फिल्म बाजार (1982) के लिए हसन कमाल ने एक गीत लिखा था "करोगे याद तो हर बात याद आएगी – गुजरते वक्त की हर लहर ठहर जाएगी"। इस गीत को अमर बनाया संगीतकार ख़य्याम ने। हसन कमाल की ये पंक्तियां आज सबसे ज्यादा खय्याम साहब की हर बात याद दिला रही हैं। खास कर पचासों सुरीली रोमांटिक धुनें जिन्हें सुनकर और जो भी महसूस होता हो लेकिन सुकून जरूर मिलता है। उनकी धुने दिमाग़ में एक मखमली सा एहसास जगा कर अतीत में ले जाती है। वह अतीत जो शिद्दत से याद आता है।
जिस संगीत को ख़य्याम ने अपनी ज़िंदगी अपना वुजूद बनाया था उससे रिश्ता जोड़ने में शुरूआत में बहुत मशक्कत करनी पड़ी। जालंधर के रोहन गांव में पैदा हुए ख़य्याम का नाम मोहम्मद जहूर हाशमी था। बचपन से सिनेमा ने गहरा असर डाला लेकिन घरवालों की बंदिशों थी, जिससे बचन के लिये वे अपने चाचा के घर दिल्ली आ गए। जहां उन्हें पंडित अमर नाथ और हुस्न लाल भगत राम से संगीत सीखने का मौका मिला। लेकिन, 17 साल की उम्र में खय्याम को यकीन होने लगा कि वे हीरो बन सकते हैं। लिहाजा वे लाहौर जा पहुंचे। वहां काम की तलाश में भटकने के दौरान मशहूर संगीतकार जीएम चिश्ती से मुलाकात हुई, जो उस समय एक गाने की धुन तैयार कर रहे थे। खय्याम ने गीत सुना और फौरन अपनी आवाज में सुना दिया।
Published: undefined
चिश्ती खय्याम की आवाज और संगीत की समझ से इतना प्रभावित हुए कि खय्याम को अपना सहायक बना लिया। छह महीने बाद घर वालों के बहुत बुलाने पर खय्याम वापस घर लौट आए और पिता के दबाव में सेना में भर्ती हो गये। तीन साल बाद उन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी और वापस मुंबई जा पहुंचे। इस बार अपने गुरू हुस्नलाल भगत राम के सहायक बन गए, जिन्होंने खय्याम से जोहराबाई अंबाले वाली के सथ फिल्म रोमियों और जूलियट में एक गीत गवाया । हीरो बनने का ख्वाब देखन वाले खय्याम को गायन से अधिक दिलचस्पी गानो की धुन बनाने में थी। वे यही करने लगे।
1948 में उन्होंने अजीज खान और वर्मा जी के साथ मिल कर शर्मा जी के नाम से फिल्म हीर रांझा में संगीत दिया। इसके बाद शर्मा जी के नाम से परदा (1949) सहित कुछ फिल्मों में संगीत दिया। 1953 में उन्होंने खय्याम के नाम से फिल्म फुटपाथ में संगीत दे कर संगीतकारों को भी चौंका दिया। दिलीप कुमार और मीना कुमारी की इस फिल्म के तलत महमूद के गाये गीत “शामे ग़म की कसम आज ग़मगीं हैं हम” को आज भी सुना जाता है। 1954 में उनके नाम एक फिल्म “धोबी डॉक्टर” भी दर्ज है। इसी तरह उस साल धनी राम के साथ मिल कर उन्होंने “गुलबहार” में भी संगीत दिया। 1955 में उनकी एक फिल्म आयी तातार का चोर। लेकिन इससे कुछ पैसों के अलावा खय्याम को कोई फायदा नहीं पहुंचा।
Published: undefined
इस दौरान शायरी की गहरी समझ रखने वाले खय्याम के साहिर लुधियानवी, जां निसार अख्तर और हसरत जयपुरी से मजबूत रिश्त बन चुके थे। साहिर की उन दिनों फिल्मी दुनिया में तूती बोल रही थी। साहिर के कहने पर खय्याम को राजकपूर अभिनीत फिल्म “वो सुबह कभी तो आएगी” में संगीतकार की जिम्मेदारी दिलवायी। ये फिल्म खय्याम की जिंदगी का अहम मोड़ साबित हुई। इसमें मुकेश के गाए दो गीत “वो सुबह कभी तो आएगी” और “ चीनो अरब हमारा हिंदोस्तां हमारा” बहुत लोकप्रिय हुए।
60 के दशक में ख्य्याम ने ‘शोला और शबनम‘ में फिर यादगार गीतों की धुनें बनायीं। इसका एक गीत “जीत ही लेंगे बाजी प्यार की” कैसे भुलाया जा सकता है। और ‘आखिरी खत’ जैसी फिल्मों में यादगार गीत दिये। लेकिन इसी दौर में बम्बई की बिल्ली और बारूद जैसी फिल्में भी करना पड़ीं जिन्हें कोई याद नहीं करता।
Published: undefined
धीमी आवाज़ में कम बोलने वाले खय्याम किसी गीतकार या बड़े फिल्मकार के खेमे में कभी शामिल नहीं हुए, यही उन्हें कम फिल्में मिल पाने की यह एक बड़ी वजह थी। 1962 में चीन युद्ध के दौरान खय्याम को दो बार फिल्मी गीतों की धुन तैयार करने का मौका मिला इसमें एक गीत साहिर ने लिखा था, वतन की आबरू खतरे में है और दूसरा जांनिसार अख्तर ने आवाज दो हम एक हैं। फिल्मकार महबूब ने ये गीत दिलीप कुमार राजकुमार और राजेंद्र कुमार पर फिलमाए, जिसे फिल्म डिवीजन ने देश भर के सिनेमाघरों में प्रसारित किया। दोनो गीत हिट हो गए और देशभक्ति का जज़्बा जगाने मे अहम काम किया। लेकिन खय्याम के फास फिल्मों में काम मिलने के मौके कम होते जा रहे थे।
इसके बाद खय्याम ने प्राइवेट एलबम के लिये धुने तैयार करने में अपना खासा समय लगा दिया। सी एच आत्मा ने खय्याम की धुनों से सजी कई ग़ज़लें इन एलबम के लिये गायीं। खय्याम का तैयार किया गया सुदर्शन फाकिर की गज़लों का एलबम फाकिर भी पसंद किया गया। 1976 में एक बार फिर खय्याम को साहिर के साथ फिल्म कभी कभी में जोड़ी बनाने का मौका मिला और किस्मत शायद इसी फिल्म का इंतज़ार कर रही थी। कभी कभी के संगीत की सफलता इतिहास बन चुकी है इसके बाद तो शोहरत और सफलता मचल मचल कर 50 साल के हो चले खय्याम के कदम चूमने लगी।
Published: undefined
अस्सी का दश्क फिल्म संगीत में खय्याम का दश्क कहलाए तो गलत नहीं होगा। नूरी (1980) थोड़ी सी बेवफाई (1981), उमराव जान और बाज़ार (1982) और रजिया सुल्तान (1984) तो म्यूजिकल हिट फिल्में साबित हुईं। उमराव जान के गीत तो 37 साल बाद भी उतने ही लोकप्रिय हैं। खय्याम को अस्सी के दशक में छह बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। और उमराव जान के लिये नेशनल अवार्ड भी मिला।
खय्याम की पत्नी जगजीत कौर भी अच्छी गायिका हैं. उन्होंने ख़य्याम के साथ कुछ फिल्मों जैसे 'बाज़ार', 'शगुन' और 'उमराव जान' में गीत गाए हैं. तुम अपना रंजो गम अपनी परेशानी मुझे दे दो (शगुन) गा कर तो वे फिल्म संगीत के इतिहास में अमर हो चुकी है।
इसे वक्त का सितम कहें या लोगों की मानसिकता में आया बदलाव। इतनी उपलब्धियों के बावजूद खय्याम को 1985 के बाद फिल्मों में संगीत देने के मौके बहुत कम मिले। इसका उन्हें कोई मलाल भी नहीं था। क्योंकी वे पीढ़ी दर पीढ़ी ज़िंदा रहने वाले गीतों की रचना कर चुके थे। सुकून से जिंदगी गुजार रहे खय्याम तीन साल पहले पहले तब जीते जी मर गए जब उनके इकलौते बेटे की दिल का दौरा पड़न से मौत हो गयी। तभी से वह सब से दूर-दूर रहने लगे थे और एक दिन पहले तो 92 साल की उम्र में वे हमेशा के लिये सबसे दूर चले गए।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined