शख्सियत

केट मिलेट : रूढ़ियों की निरंकुशता को चुनौती देने वाली महिला

‘सेक्सुअल पोलिटिक्स’ जैसी किताब लिखकर केट मिलेट ने 70 के दशक में नारीवाद को लेकर दुनिया में जारी अवधारणाओं और विचारों को हिलाकर रख दिया था। उनका हाल ही में पेरिस में निधन हो गया।

फोटो : Getty Images
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केट मिलेट, एक अहम् लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता और कलाकार थीं। हाल ही में उनका 82 बरस की उम्र में पेरिस में देहांत हो गया। ज़्यादातर लोग केट मिलेट को उनकी किताब ‘सेक्सुअल पोलिटिक्स’ के लिए जानते हैं, जो पहली बार 70 के दशक में प्रकाशित हुयी थी। इस शोध आधारित किताब ने नारीवाद को लेकर दुनिया में जो भी अवधारणाएं और विचार चल रहे थे, उन्हें हिला कर रख दिया था। यही वजह है कि केट को नारीवाद की दूसरी धारा की प्रणेता माना जाता है। उन्होंने अपनी किताब में सिगमंड फ्रॉयेड, डी एच लॉरेंस और ज्यां जेने जैसे उन सभी लेखकों और विचारकों की आलोचना की जिन्हें अब तक सेक्सुअल आज़ादी का पक्षधर माना जाता था।

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अपनी किताब में केट ने यह दर्शाया कि किस तरह पुरुष वर्चस्व वाले समाज ने ऐसे लेखकों और साहित्यिक कृतियों को जन्म दिया है, जो महिलाओं के लिए अपमानजनक और उनकी स्थिति को सुधारने के प्रयासों के लिए घातक रही हैं। सेक्सुअल पॉलिटिक्स को नारीवादी आंदोलन की एक शास्त्रीय कृति माना जाता है। यह किताब 20वीं सदी के उत्तरी अमरीका में सेक्सुअल रूढ़ियों की निरंकुशता और अत्याचार पर एक सशक्त कथन है।

उनकी गहरी नज़र और विश्लेषण हमारे समाज पर भी सटीक साबित होते हैं। हमारे समाज में भी खुद को नारीवादी मानने और समझने वालों की कमी नहीं, लेकिन बहुत कम ही ऐसे लोग हैं जो नारी मुक्ति और समानता का एक स्वाभाविक और सहज सिद्धांत के तौर पर पालन करते हैं।

मिलेट बहुत स्पष्ट और निश्चयात्मक रूप से इस बात को सामने लायीं कि सेक्स आधारित पूर्वाग्रह हर राजनीतिक सवाल की तह में होता है और इसे स्वीकार करने के बाद ही इस पूर्वाग्रह को ख़त्म करने के प्रयास किये जा सकते हैं। एक विचारक के तौर पर उन्हें एक बार ‘नारी मुक्ति आन्दोलन की माओ त्से तुंग’ की संज्ञा भी दी गयी थी।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनका यह कथन बिलकुल सही था कि स्त्रियाँ असहाय हो जाती हैं, क्योंकि समाज के मूल तंत्र की डोर पूरी तरह से पुरुषों के हाथ में है। उन्होंने उन सूक्ष्म तारों को उधेड़ कर सामने रखा, जिनसे साहित्यिक समालोचना और सामाजिक-राजनीतिक क्रियाएं एक-दूसरे से जुडी हैं। इसलिए, उनका मानना था कि एक-दूसरे के सन्दर्भ में ही इनका अध्ययन किया जाना चाहिए।

सबसे बड़ी बात यह, कि इस समय में भी उन्होंने जीवन भर अपने सिद्धांतों का पालन किया और गर्भपात, ट्रांसजेंडर और समलैंगिकों के अधिकारों पर दोगले राजनीतिक फैसलों की खुल कर आलोचना की। उन्होंने ताउम्र इस बात पर जोर दिया कि पितृसत्तात्मक समाज का मूल राजनीतिक और सांस्कृतिक है। इस व्यवस्था के प्रति हमारी सामाजिक स्तर पर कंडिशनिंग कर दी गयी है कि यह ‘प्राकृतिक’ है, जबकि दरअसल ऐसा है नहीं। सेक्सुअल समीकरण में किसी भी तरह के बदलाव के लिए ज़रूरी है कि परिवार की परंपरागत अवधारणा को तोड़ा जाए, जिसके मूल में स्त्री-पुरुष को दंपति के तौर पर रखा जाता है।

केट अवसाद की मरीज़ रहीं, लेकिन न सिर्फ वे इस बीमारी से लड़ कर इससे उबरीं, बल्कि वे समाज के उस रवैये के खिलाफ भी जूझती रहीं, जिसके तहत मानसिक रोगियों को अस्पताल में बंद कर उन्हें भुला दिया जाता है।

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उनकी किताब, <i><b>“द लूनी-बिन ट्रिप ” </b></i>अपनी ज़िन्दगी का नियंत्रण अपने हाथों में लेने के उनके निजी संघर्ष का सशक्त और भावपूर्ण चित्रण है। न सिर्फ उन्होंने अपनी बिखरी ज़िन्दगी को एक बार फिर समेटने की हिम्मत जुटाई, बल्कि इसके बारे में स्पष्ट और बेलाग तरह से लिखा भी।

उनके लेखन को कानूनी तौर पर गर्भपात का अधिकार पाने, कार्यक्षेत्र में महिलाओं से बराबरी का बर्ताव और सेक्सुअल आज़ादी पाने की लडाई में बेहद अहम् माना जाता है। लेकिन वे खुद को नारीवादी आन्दोलन का ‘प्रवक्ता’ कहलाना पसंद नहीं करती थीं। उन्होंने ज़िन्दगी को अपनी शर्तों पर जीया और महिलाओं के लिए चुनाव की स्वतंत्रता का भरसक समर्थन किया।

न्यूयॉर्क में उन्होंने विमेंस आर्ट कॉलोनी फार्म की शुरुआत की, जिसे वे क्रिसमस ट्री की खेती और इस पौधे को बेच कर मिलने वाली आय से चलाती रहीं।

एक बार जब ‘ द गार्डियन ’ के पत्रकार ने उनसे आज के समाज में नारीवाद के बारे में सवाल किया, तो केट ने कहा: “देखिये, नारीवाद के दो पहलू हैं। महिलाओं के अधिकार और सामाजिक नारीवाद।”

जब आप औरतों के हकों के बारे में सोचना शुरू करते हैं तो अन्य अनेक सामाजिक मुद्दों पर आपका ध्यान जाता है, यह सामाजिक नारीवाद है। इसलिए नहीं कि आप भीतर से बहुत परवाह करने वाले हैं, बल्कि इसलिए कि शक्तिहीनता और लाचारी का जो सामाजिक ताना-बाना है, वह आपके सामने खुल जाता है। आप चाहें या ना चाहें, नारीवाद अपने आप में ही बदलाव लाने वाला सिद्धांत है। और जब ऐसा होता है तो पहले से स्थापित समाज अपना आपा खोने लगता है।

जहाँ तक औरतों का सवाल है, तो हमारा समाज भी अपना आप खोने लगा है. इसीलिए जितने नारीवादी विचार सामने आते हैं, औरतें जितना खुल कर बोलती हैं, समाज में उनके प्रति हिंसा और असहनशीलता भी बढ़ती जाती है। लेकिन उम्मीद है कि इससे हमारे वृहत नज़रिए में कुछ अहम् बदलाव होंगे। और बराबरी के दर्जे और चुनाव की आज़ादी पाने की इसी उम्मीद में केट मिलेट हमारे भीतर जिंदा रहेंगी

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