गुलजार ने विनोद खन्ना के व्यक्तित्व में कुछ तो देखा होगा जो उन्होंने अपनी अगली फिल्म “अचानक” (1973) में विनोद खन्ना को लिया। फिल्म में कोई गाना नहीं था, फिर भी फिल्म हिट रही और विनोद खन्ना के फिल्मी कैरियर में मील का पत्थर बन गयी। धीरे धीरे विनोद खन्ना ने फिल्मी पर्दे पर इतनी मजबूती से कदम जमा लिये कि अमिताभ बच्चन की आंधी में जो गिने चुने अभिनेता डटे रहे उनमें विनोद खन्ना प्रमुख थे। “जमीर”, “हेरा फेरी”, “खून पसीना”, “अमर अकबर एंथनी”, “मुकद्दर का सिकंदर” और “परवरिश” जैसी फिल्मों में विनोद खन्ना और अमिताभ की जोड़ी बहुत पसंद की गयी। वैसे जब ये दोनो मशहूर नहीं हुए थे, तब भी दोनो ने एक साथ पहली फिल्म की थी “रेश्मा और शेरा”।
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विनोद खन्ना चढ़ते सूरज की तरह ऊपर उठ ही रहे थे कि उनकी मां का निधन हो गया। इससे वे अवसाद में चले गए। उस समय आचार्य रजनीश के भक्त महेश भट्ट और परवीन बॉबी की सोहबत में विनोद खन्ना भी रजनीश के विचारों से प्रभावित हो गए। वे सेट पर गेरूआ वस्त्र पहन कर आने लगे। अभी लोग समझ ही रहे थ कि माजरा क्या है। विनोद खन्ना फिल्मों से संन्यास लेकर रजनीश के अमेरिका स्थित आश्रम में संन्यासी बन कर रहने लगे।
पत्नी गीतांजलि से उनके रिश्ते टूट गए। गीतांजलि दो बेटों के साथ मुंबई में ही रहती रहीं। पांच साल बाद जब विनोद खन्ना रजनीश के मोह से मुक्त हुए, तो वापस उसी दुनिया में लौटे, जिसने उन्हें इज्जत, शोहरत और दौलत दी थी। हांलाकि तब तक हालात बदल चुके थे। लेकिन नहीं बदला था तो विनोद खन्ना का आकर्षक व्यक्तित्व। खुद को फिर से स्थापित करने के लिए उन्हें जो भी फिल्में मिलीं वे करते गए। इनमें “फरिश्ते”, “सीआईडी”, “ईना मीना डीका”, “धर्म संकट” जैसी कम चर्चित कई फिल्मों थीं। वैसे इसी दौर में उन्हें “बंटवारा” और “चांदनी” जैसी फिल्में भी मिलीं, लेकिन “दयावान” और “कुर्बानी” जैसी फिल्मों में अपनी प्रतिभा दिखाने का जो मौका उन्हें मिला था वो दोबारा नहीं मिल पया।
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विनोद खन्ना का जीवन सामान्य गति की ओर लौटने लगा, उन्होंने दूसरी शादी कर ली। अमृता सिंह से उनके अफेयर के चर्चे काफी दिन तक मीडिया में छाए रहे। अपने बेटे अक्षय खन्ना को लॉच करने के लिये उन्होंने फिल्म “हिमालय पुत्र” बनायी, लेकिन फिल्म कोई कमाल नहीं दिख सकी। विनोद खन्ना को एहसास हो गया था कि पर्दे पर युवा अभिनोताओं की फ़ौज बढ़ती जा रही है और खुद पर उम्र का बढ़ता असर वे ईमानदारी से महसूस करने लगे थे।
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फ्लैशबैक में जाएं तो लाखों नौजवानो की तरह फिल्मी पर्दे की चमक ने उन्हें भी आकर्षित किया। कॉलेज में साथी लड़कों ही नहीं, बल्कि लड़कियों ने भी जब उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व की तारीफ करते हुए उन्हें फिल्मों में हाथ आजमाने की सलाह दी तो उन्होंने अभिनय की दुनिया में हाथ आजमाने का फैसला किया। पिता ने उनके फैसले का घोर विरोध किया लेकिन मां ने और सुनील दत्त ने पिता को समझा कर शांत किया।
ये महज इत्तेफाक था कि सुनील दत्त ने उन्हें फिल्म “मन का मीत” के लिए खलनायक का रोल ऑफर कर दिया। विनोद खन्ना को हर हाल में पर्दे पर दिखना था, इसलिये नायक, खलनायक, सहनायक जैसे दायरों पर ध्यान न देते हुए वह रोल स्वीकर कर लिया। यह साल 1968 की बात है।
इसके बाद “आन मिलो सजना” में विनोद खलनायक के रूप में पसंद किये गए। फिर उन्हें राजखोसला ने अपनी फिल्म “मेरा गांव मेरा देश” में उस समय के सबसे चर्चित अभिनेता धर्मेंद्र के साथ खलनायक के रूप में पेश किया। 1971 में इस फिल्म की रिलीज के बाद विनोद खन्ना स्टार बन गए। हालांकि इसी साल हीरो के रूप में उनकी फिल्म “हम तुम और वो” और “मेरे अपने” भी रिलीज हुई, लेकिन “मेरा गांव मेरा देश” की शोहरत सब पर भारी पड़ी।
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एक दिन उन्हें राजनीति मे शामिल होने का ऑफर मिला। भारतीय जनता पार्टी उनकी शोहरत को भुनाना चाह रही थी। बीजेपी का पासा सही पड़ा और 1998 में 12वीं लोकसभा में पंजाब के गुरदासपुर से जीत कर विनोद खन्ना पहली बार संसद पहुंचे। 1999 और 2004 के आम चुनावों में भी वह लगातार इसी सीट से जीते। 2002-03 में वह अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र की बीजेपी सरकार में पर्यटन एवं संस्कृति राज्यमंत्री और 2003-04 में विदेश राज्यमंत्री रहे। 2009 में उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा। पर 2014 में एक बार फिर उन्होंने बीजेपी के टिकट पर गुरदासपुर से चुनाव जीता।
इस बीच समय-समय पर विनोद खन्ना पर्दे पर भी दिखते रहे। उनकी अंतिम फिल्मों में से एक सलमान खान की दबंग थी। अचानक विनोद खन्ना काफी कमजोर दिखायी देने लगे। काफी समय बाद खबर आयी कि उन्हें कैंसर हो गया है। 27 अप्रैल 2017 को उनका निधन हो गया। उनके निधन के बाद उन्हें दादा साहब फालके पुरस्कार प्रदान किया गया।
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