आज अचानक किसी संदर्भ में कुछ पंक्तियां याद आ गईं। यह पंक्तियां अभिनेता इरफान खान की हैं जो उन्होंने किसी अवार्ड समारोह में कही थीं, अख़बार में छपीं और मैंने कहीं नोट कर लिया था। खोजा तो डायरी में मिल गईं। इरफान कह रहे थे- ‘सिस्टम में बदलाव एक से नहीं होगा, सबकी कोशिश से होगा। जब तक जनता को सवाल पूछना नहीं आएगा, बदलाव नहीं होगा। जब तक लोग सिस्टम में शामिल नहीं होंगे, सिस्टम भी लोगों को नहीं पूछेगा। ऐसे में सिस्टम केवल उनका गुलाम बनकर रहेगा जो उसे चला रहे हैं।’ संयोग है कि वह साल 2014 का था। देश की राजनीतिक दशा-दिशा बदल देने वाला साल।
पता नहीं इरफान उन हालात से प्रभावित होकर बोल रहे थे या कि यह उनका एक सहज बयान भर था। लेकिन मुझे याद है यह थोड़ी लम्बी स्पीच थी, फिल्म वाले मंचों की प्रकृति के थोड़ा विपरीत। इसमें इरफान ने जीवन, संघर्ष, परिवार, क्रिकेट प्रेम और वहां से लगे झटकों सहित जिंदगी के तमाम रंगों के बारे में बात की थी। धर्म के बारे में भी। मृत्यु के बारे में भी।
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इरफान कह रहे थे - ‘धर्म के बारे में चिंतन इसलिए जरूरी है क्योंकि इसे भगवान से जोड़ दिया गया है। धर्म को अनुशासन बना दिया है।’ और मृत्यु के बारे में भी (पिता की मृत्यु से उपजे हालात का बयान करते हुए) कि “मुझे मौत का डर बचपन से रहा, मैंं सोचता था कि कैसे ये सब छूटेगा, जिंदगी की उलझनें, वगैरह। लेकिन जितनी आसानी से मेरे पिता ने फैसला लिया, उससे मैंने मौत को आसानी से लेना सीखा। मौत का डर मुझसे कुछ तरह दूर हुआ।” इरफान सब कुछ सही कह रहे थे। मौत का डर खुद से दूर कर लेने की बात भी जिसका बयान अपने अंतिम दिनों में वरिष्ठ फिल्म अध्येता और समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज को भेजे एक पत्र और ऑडिओ संदेश में भी किया। यह एक तरह से उनका अपने प्रशंसकों के लिए संदेश भी था, जिसे वह अजय के माध्यम से साझा करना चाह रहे थे। संभवतः उनका अंतिम पत्र या संदेश।
संयोग ही था कि कल रात ही इरफान पर अजय ब्रह्मात्मज की किताब ‘इरफान: और कुछ पन्ने कोरे रह गए ’ (सरस्वती बुक्स, नई दिल्ली, मूल्य 299 रुपए) मिली और सुबह-सुबह फेसबुक से पता चला कि आज उनका जन्मदिन है। लगा इस अभिनेता को उसके जन्मदिन पर याद करने का इससे बेहतर बहाना कुछ हो नहीं सकता। इरफान आज होते तो 56 साल के होते।
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इरफान एक ऐसे अभिनेता थे जिसके बारे में लगता ही नहीं कि अब वो नहीं हैं। आज भी लग रहा है कि यहीं कहीं हमारे बीच हैं और अचानक आकर कंधे पर हाथ रखकर या कमरे के किसी कोने में दीवार से टिककर खड़े हो या टेलीविजन के अंदर से झांककर बिना बोले अपनी आंखों से कुछ कहकर निकल जाएंगे। हां, इरफान शब्दों से ज्यादा आंखों से बोलते थे और यह ज्यादा मारक होता था।
इरफान को देखकर कभी लगा ही नहीं कि वह कोई तयशुदा संवाद बोल रहे हैं। हमेशा यही लगता है कि वह दिल से बोल रहे हैं। तिग्मांशु धूलिया के शब्दों में कहें तो ‘स्क्रिप्ट से बाहर जाकर अभिनय करने, संवाद के शब्द नहीं उसके पीछे की सोच डिलीवर करने वाले कलाकार।’
इरफान को पर्दे पर देखते हुए मुझे अक्सर ‘अल्बर्ट पिंटो को ग़ुस्सा क्यूं आता है’ के भीष्म साहनी (लेखक-उपन्यासकार) याद आते। भीष्मजी अभिनेता नहीं थे, लेकिन जैसी गजब की उपस्थिति उन्होंने पर्दे पर दिखाई वह अद्भुत थी और उसे फिल्म देखकर ही समझा जा सकता है। कभी लगा ही नहीं कि वह अभिनय कर रहे हैं।
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‘तमस’ में भी उन्हें देखकर ऐसा ही लगा था। इरफान को देखकर भी अक्सर ऐसा ही लगता रहा। चाहे वह ‘लाइफ ऑफ पाई’ में सहजता से अपनी कहानी सुनाते इरफान हों या पिकू, लंच बॉक्स, लाइफ इन मेट्रो, मकबूल या हासिल वाले इरफान। इरफान कभी कुछ होने का प्रयास नहीं करते, वह हो जाते हैं और वैसा ही दिखने लगते हैं। आंखों से अभिनय करने वाले इरफान के जीवन के इन्हीं सारे शेड्स को यह किताब भी दिखाती है।
किताब में इरफान के कई इंटरव्यू और उन पर लिखे अलग-अलग लोगों के 36 संस्मरण हैं। दीपक डोबरियाल से लेकर अमिताभ बच्चन के, उनके साथ काम करने वालों के भी, उन्हें देखकर उन्हें जानने - समझने वालों के भी। करीब 300 पन्नों की यह किताब इस कलाकार को परत दर परत खोलती है।
इंटरव्यू ऐसे हैं, सवाल ऐसे हैं जो जवाब देने वाले को खुलने का मौका देते हैं। इन पन्नों से गुजरते हुए कोई भी इरफान के संघर्ष को देख सकता है, उनकी ऊंचाइयों को भी पकड़ सकता है। यहां फिल्मों के प्रति उनकी दीवानगी का बयान है तो उन नामालूम से पन्नों की चर्चा भी, जिन्हें शायद इरफान भी कभी खुद न पढ़ पाए हों। अजय ब्रह्मात्मज इसमें इरफान के साथ अपने तीन दशक के संग-साथ और आत्मीयता को इस तरह परोसते हैं कि इरफान को चाहने वाले इंसान के लिए इसके हर पन्ने से गुजरना अनिवार्य कर देते हैं।
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इसके पहले खंड का शुरुआती और लम्बा इंटरव्यू ही ऐसा है कि यहां इरफान खुलते हैं या अजय उन्हें खोलकर रख देते हैं, तय करना मुश्किल है। यह किताब पहले ई-बुक फार्म में आ चुकी है और इसका ज्यादातर कंटेंट मेरा पढ़ा हुआ है इसलिए इस पर बात करना मेरे लिए और आसान हो गया है। यह ई-बुक और प्रिंट के उस अंतर और भरोसे को भी रेखांकित कर रही है, कि ‘मुद्रित शब्दों के प्रति आस्था कभी खत्म नहीं होगी’।
इरफान आज हैं भी और नहीं भी! लेकिन इतना तो कहना ही होगा कि इरफान की तरह मुझे अगर कोई और अभिनेता अगर कभी याद आता है तो वह सिर्फ स्मिता पाटिल थीं। स्मिता भी असमय चली गईं और इरफान भी। लेकिन दोनों बताकर गए। अचरज नहीं कि दोनों में यह भी एक साम्य है। यह भी एक साम्य कि हिन्दी सिनेमा के बस यही दो इंसान रहे जिनकी मृत्यु पर मुझे बेतरह रोना आया। इरफान और स्मिता दोनों ही शब्दों से ज्यादा आंखों से बोलते थे। शायद यही उन्हें औरों से अलग करता है।
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मैंने इस टिप्पणी की शुरुआत इरफान के वक्तव्य से की थी। समापन भी उनके वक्तव्य से ही करना अच्छा लग रहा है। है तो यह चर्चित दलित लेखक और चिंतक ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता लेकिन इरफान ने इसे जिस तरह कई बार और कई मंचों पर पढ़ा यह उनका अपना बयान भी है:
चूल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का
बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की
कुआं ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत खलिहान ठाकुर का
गली-मोहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या गांव, शहर, देश !!!
इरफान को हर बार देखना एक नए अनुभव से गुजरना होता था। इस किताब के हर पन्ने से गुजरते हुए भी हर बार एक नए इरफान से मिलने जैसा है।
इरफान का एक संवाद है- ‘मैं समझता हूं आख़िर में सब कुछ जाने देने का नाम ही जिंदगी है और सबसे ज्यादा तकलीफ तब होती है जब आपको अलविदा कहने का वक्त भी नहीं मिलता।’ इरफान भी जब अस्पताल गए तो वहां से लौटकर अपने चाहने वालों के बीच नहीं आए। इरफान इसलिए भी बहुत ज्यादा याद आते हैं।
फिर आना इरफान, भले ही आंखों से ही बात करना!
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