शख्सियत

पुण्य तिथि पर विशेष: आजादी की विभिन्न धाराओं के बीच सेतु थे गणेश शंकर विद्यार्थी, कोई नहीं ले सकता उनकी जगह

वैसे तो भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में एक से बढ़कर एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व अंकित हैं, पर इन सब के बीच फिर भी गणेश शंकर विद्यार्थी का एक अद्वितीय स्थान है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

वैसे तो भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में एक से बढ़कर एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व अंकित हैं, पर इन सब के बीच फिर भी गणेश शंकर विद्यार्थी का एक अद्वितीय स्थान है। इसका आधार यह है कि उन्हें कांग्रेस नेत्तृत्व से और क्रान्तिकारियों के नेत्तृत्व में उच्चतम स्तर पर एक जैसा सम्मान और विश्वास मिला। इस तरह वे आजादी की इन दो धाराओं में एक सेतु की तरह थे। यह स्थान उनकी तरह कोई अन्य प्राप्त नहीं प्राप्त कर सका।

अल्पायु (40 वर्ष) में 25 मार्च 1931 को शहादत प्राप्त करने पर महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे शीर्ष के नेताओं ने उन्हें जो श्रद्धांजलि दी उससे पता चलता है कि उनके मन में विद्यार्थी के प्रति कितना सम्मान था। जवाहरलाल नेहरु ने कहा, “मर कर उन्होंने जो सबक सिखाया वह हम बरसों जिंदा रह कर क्या सिखाएंगे।” उनकी हिंदू-मुस्लिम एकता की प्रतिबद्धता को याद करते हुए गांधीजी ने कहा, “उनका खून अंत में दोनोंं मजहबों को आपस में जोड़ने के लिए सीमेंट का काम करेगा।”

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दूसरी ओर क्रांतिकारियों को उनपर जो गहरा विश्वास था उसका पता तो इससे चलता है कि वे किसी बड़ी ‘एक्शन’ की योजना बनाने पर कई बार पहले गणेश शंकर की राय या एक तरह से अनुमति लेते थे। इस तरह के उदाहरण मौजूद हैं जब गणेश शंकर देश-दुनिया की व्यापक स्थिति को देखते हुए अपना विचार देते थे और यह प्रायः युवा क्रान्तिकारियों के उत्साह पर कुछ नियंत्रण लगाने जैसा होता था। यह नियंत्रण युवा क्रान्तिकारी और किसी से चाहे स्वीकार न करे, पर विद्यार्थी जी से स्वीकार करते थे।

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वजह यह थी कि जहां विद्यार्थी जी ने गांधीजी के संघर्षों में मूल्यवान योगदान दिया था, वहां उन्होंने क्रान्तिकारियों की भी निरंतरता से सहायता की थी व अपने समाचार पत्र प्रताप और लेखन-संपादन का भरपूर सहयोग भी उन्हें दिया था। भगत सिंह ने उनके साथ रहकर ही पत्रकारिता की थी। इससे पहले काकोरी के शहीदों के मुकदमे के दौरान भी उन्होंने भरपूर सहायता की। रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा को उन्होंने बहुत जोखिम उठाकर छपवाया। अशफाकुल्लाह की मजार बनवाने में महत्त्वपूर्ण सहयोग किया।

इतना ही नहीं, एक अन्य स्तर पर भी उन्होंने आजादी की लड़ाई को दो धाराओं को जोड़ने का कार्य किया। आजादी की एक मुख्य लड़ाई ब्रिटिश भारत में चल रही थी, तो दूसरी ओर जो विभिन्न रियासतें और रजवाड़े थे, वहां भी अनेक छिटपुट संघर्ष बहुत साहस में चल रहे थे। कई संदर्भों में यह रजवाड़ों के संघर्ष और भी जोखिम भरे थे और उन्हें बहुत निर्ममता सहनी पड़ती थी। गणेश शंकर विद्यार्थी ने इन संघर्षों को भी बहुत सहयोग दिया और उनके बारे में जानकारी पूरे देश में पंहुचाई।

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इसी तरह किसानों और मजदूरों के संघर्ष भी आजादी की लड़ाई का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा थे। विद्यार्थी जी ने निरंतरता से किसानों और मजदूरों की आवाज को उठाया उनके संघर्षों में योगदान दिया।

इस तरह एक नहीं बल्कि अनेक स्तरों पर गणेश शंकर विद्यार्थी ने आजादी की लड़ाई में सेतु की भूमिका निभाई। किसी के मजबूत योगदान को बनाने के लिए प्रायः उसे स्तंभ कहा जाता था, पर गणेश शंकर विद्यार्थी तो एक स्तंभ नहीं आजादी की लड़ाई के एक बहुत मजबूत पुल ही थे।

बचपन से ही गणेश शंकर ने लेखन कौशल और ऊंचे आदर्शों के लिए प्रतिबद्धता का परिचय दिया। कम आयु में ही मेहनत और पत्रकारिता से समाज का ध्यान आकर्षित किया। 23 वर्ष की आयु में आजादी की लड़ाई और व्यापक समाज-सुधार में सहयोग के लिए प्रताप पत्रिका आरंभ की और इसे पाठकों का इतना प्यार और सम्मान मिला कि इसे दैनिक समाचार पत्र ही बना दिया गया। फिर प्रभा पत्रिका भी आरंभ की गई। उनका प्रमुख कार्यक्षेत्र कानपुर और संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) रहा।

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वर्ष 1941 में अपनी शहादत तक गणेश शंकर विद्यार्थी ने पत्र-पत्रिका संपादन और लेखन के माध्यम से विश्व के सबसे प्रमुख साम्राज्यवाद से निरंतरता से टक्कर ली और कभी झुके नहीं, कोई समझौता नहीं किया। कानूनी मुकदमों से जुड़ी मजबूरी के कारण कभी उनका नाम संपादक पद से हटता था कभी आता था, पर सब जानते थे कि प्रताप के मुख्य स्तंभ तो वही हैं, हालांकि बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे उनके अनेक साथियों ने भी अपना भरपूर योगदान इसमें दिया।

पत्रकारिता, लेखन-संपादन के इस पूरे दौर में विद्यार्थी जी का एक पैर जेल और कचहरी में रहता था और दूसरा अपने छोटे से कार्यालय में। पांच जेल यात्राएं कीं। अनेक ऐसे मुकदमों से वे जूझते रहे जिससे पीछे केवल ब्रिटिश सरकार की ही नहीं अनेक शक्तिशाली रियासतों और रजवाड़ों की भी भरपूर ताकत थी। कई मुकदमे तो केवल उन्हें परेशान करने, तोड़ने के लिए भी किए जाते थे। पर इन सबके बीच वे बहुमूल्य सामग्री वाले पत्र-पत्रिका निकालते रहे। उनकी अपनी सोच व लेखनी का विस्तार ऐसा था कि केवल भारत के किसी कोने में ही नहीं, मोरक्को में भी साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष हुआ तो यह उनकी कलम का विषय बना। निश्चय ही उन्हें देश का महानतम संपादक कहा जाए तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है।

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जेल यात्राएं करते समय भी उन्होंने अध्ययन-लेखन नहीं छोड़ा, जेल में रहते हुए ही विक्टर ह्यूगों के विख्यात साहित्य का हिंदी अनुवाद भी किया। जेलों की हालत को नजदीक से देखने पर उन्होंने जेल सुधार के लिए जबरदस्त आवाज उठाई। उन्होंने लिखा कि जेल के मौजूदा हालात में किसी का सुधार क्या होगा, चोर आएगा तो डाकू बनकर निकलेगा। उन्होंने यहां तक लिखा कि ऐसे जेलों को तो तोड़ देना ही अच्छा है।

समाज-सुधार और साहित्य की अनेक गतिविधियों से वे जुड़ते रहे। जन आग्रह से चुनावों में खड़े हुए तो कानपुर से विधान परिषद के लिए भारी मत से जीते। फिर पूरे संयुक्त प्रान्त के लिए कांग्रेस के अध्यक्ष बने।

विभिन्न धर्मों के लोगों के भाई चारे और सांप्रदायिक सद्भावना में उनकी बहुत गहरी निष्ठा थी। देश और समाज की प्रगति के लिए वे हिंदू-मुस्लिम एकता को अनिवार्य समझते थे। अपनी लेखनी से उन्होंने सदा इस एकता को आगे बढ़ाया पर इसके साथ अनेक सम्मेलन-सभाएं भी कीं, व इस एकता के लिए समर्पित ‘हिन्दुस्तानी बिरादरी’ संस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

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जब अंग्रेज शासकों ने भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी देने का निर्णय लिया उस समय गणेश शंकर विद्यार्थी जेल में थे। फांसी से कुछ ही समय पहले विद्यार्थी जेल से छूट कर आए थे और अनेक अधूरे कार्यों को पूरा करने में व्यस्त थे। ब्रिटिश शासकों को डर था कि फांसी का सबसे बड़ा विरोध विद्यार्थी के नेतृत्व में ही होगा, अतः भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी देते ही उन्होंने कानपुर में सांप्रदायिक दंगे भड़कवा दिए। इन दंगों में फंसे हुए लोगों को बचाने के प्रयास में ही गणेश शंकर विद्यार्थी ने शहादत प्राप्त की।

उनके महान योगदान को हम कभी भूल नहीं सकते हैं और एक नहीं अनेक बहुत महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए उनके जीवन से प्रेरणा मिलती रही है, मिलती रहेगी।

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