बॉलीवुड दीवा और अपने नृत्य की अदाओं से सबका मन मोह लेने वाली मोहिनी यानी माधुरी दीक्षित की पहचान 1988 में आई हिंदी फिल्म ‘तेजाब’ के जिस गीत, ‘एक, दो तीन, चार, पांच, छह. सात....’ से बनी, वह यूं तो जावेद अख्तर ने लिखा है, लेकिन इस गीत की प्रेरणा या फिर कहें कि शुरुआती लाइनें उन्हें कहां से मिलीं, शायद कम लोग ही जानते हैं। माधुरी दीक्षित पर फिल्माये गये गीत का मुखड़ा दरअसल 1959 में रिलीज हुई हिंदी फिल्म कागज के फूल के एक गीत से लिया गया है, जिसे लिखा था मशहूर शायर, गीतकार, स्क्रिप्ट राइटर कैफी आजमी ने।
आज यानी 14 जनवरी को उनका जन्मदिन है। कैफी की शायरी में उनके व्यक्तित्व के कई अक्स नजर आते हैं। कभी वह रूमानियत में डूबे आशिक नजर आते हैं, तो कभी बागी। कहते हैं कि जिसने भी उन्हें पहली बार सुना, अपना दिल कैफी को दे बैठा। ऐसा ही एक किस्सा उनके बारे में उनके समकालीन शायर निदा फाजली ने साझा किया था। बकौल निदा फाजली, ''कैफी आज़मी सिर्फ शायर ही नहीं थे। वह शायर के साथ स्टेज के अच्छे ‘परफार्मर’ भी थे। इस ‘परफार्मेंस’ की ताकत उनकी आवाज़ और आवाज के उतार चढ़ाव के साथ मर्दाना कदोकामत और फिल्मी अदाकारों जैसी सूरत भी थी।
कहते हैं कि कैफी आजमी को बचपन से ही शोहरत मिलना शुरु हो गयी थी। वे कई बार मोहर्रम के दौरान मजलिसों में मर्सिए सुनाते थे, जिसे सुनकर लोगों की आंखों से आंसू बहना शुरु हो जाते थे। कैफी अपनी आंखों और हाथों के हाव-भाव और आवाज़ के उतार-चढ़ाव से सुनने वालों को जब चाहे हंसाते थे, जब चाहे रुलाते थे और कभी उनसे मातम करवाते थे। कैफी आजमी का पढ़ने का अंदाज़ अपने-अपने समकालीनों में सबसे अनोखा था।
कैफी को कहीं प्रगतिवादी शायर कहा गया तो कहीं रूमानी। कैफी का असली नाम सैयद सैयद अतहर हुसैन रिज़वी था। एक किस्सा खूब मशहूर है। कहा जाता है कि वे शुरुआत में मुशायरों के दौरान अपने बड़े भाई की गजलें सुनाते थे। तमाम लोगों के साथ उनके पिता का भी ऐसा ही मानना था। कैफी की पैदाइश आजमगढ़ जिले के मजवां गांव में हुई थी। कैफ़ी का ख़ानदान एक ज़मींदार ख़ुशहाल ख़ानदान था। घर में शिक्षा व साहित्य और शे’र-ओ-शायरी का माहौल था। ऐसे माहौल में जब उन्होंने आंखें खोलीं तो उन्हें लिटरेचर से, शे’र-ओ-अदब से दिलचस्पी हो गयी। अपने समय के रिवाज के अनुसार अरबी फ़ारसी की शिक्षा हासिल की और शे’र कहने लगे।
लेकिन कैफ़ी के पिता उन्हें मज़हबी तालीम दिलाना चाहते थे। इसके लिए कैफी को लखनऊ में सुल्तान-उल-मदारिस में दाख़िल करा दिया। यही वह जगह थी जहां कैफी एक प्रगतिवादी और इन्कलाबी शख्स के रूप में सामने आए। कैफ़ी ने मदरसे की दक़ियानूसी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और दूसरे छात्रो के साथ मिलकर प्रबंधन का सामना किया।
लेकिन सही मायनों में इन्कलाब और संघर्ष क्या होता है इसे कैफी ने समझा कानपुर में, जहां वे 1921 में मजदूरों के आंदोलन में हिस्सा लेने आए। कैफ़ी को कानपुर की फ़िज़ा बहुत रास आयी। यहाँ रहकर उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य को गहराई से पढ़ा। 1923 में कैफ़ी सरदार जाफ़री और सज्जाद ज़हीर के कहने पर बम्बई आ गये और तरह-तरह के कामों में मशगूल हो गए।
आंदोलन के साथ जिंदगी चलाने के लिए भी पैसे की जरूरत थी, तो कैफी ने फिल्मों के लिए गीत लिखना शुरु कर दिए। सबसे पहले कैफ़ी को शाहिद लतीफ़ की फ़िल्म ‘बुज़दिल’ में दो गाने लिखने का मौक़ा मिला। धीरे-धीरे कैफ़ी की फ़िल्मों में सक्रियता बढ़ती गयी। उन्होंने गानों के अलावा कहानी, संवाद और स्क्रिप्ट भी लिखे। ‘काग़ज़ के फूल’, ‘गर्म हवा’, ‘हक़ीक़त’, ‘हीर राँझा’, जैसी फ़िल्मों के नाम आज भी कैफ़ी के नाम के साथ लिये जाते हैं।
Published: undefined
उनका कौन सा गीत सबसे बेहतर कहना बड़ा मुश्किल काम है। लेकिन इस वीडियो में देखिए एक खूबसूरत गीत...
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined