आधुनिक भारतीय कला के अग्रणी चित्रकारों में से एक सैयद हैदर रज़ा ने महात्मा गांधी को मांडला में देखा था। तब उनकी उम्र बमुश्किल आठ साल रही होगी। गांधी जी राष्ट्रीय आंदोलन के सिलसिले में किसी सार्वजनिक सभा को संबोधित करने वहां आए थे। उनके पिता अंग्रेज सरकार के जंगलात विभाग में अधिकारी थे। हैदर जंगलात के ही किसी कर्मचारी के साथ आए थे, जिन्होंने वर्दी नहीं पहन रखी थी। रज़ा को याद नहीं कि गांधी जी ने उस रोज क्या कहा, पर हाथ में लाठी लिए एक ‘अधनंगे फकीर’ की छवि उनके मन में गहराई से बैठी रह गई।
15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हो गया। दुर्भाग्य से उसका विभाजन हो चुका था। सांप्रदायिक तनाव और फसादों के साथ-साथ काफी बड़ी आबादी को अपने घर-बार छोड़ने पड़े। रज़ा के भाई, एक बहन और भारत में रहने वाली उनकी पहली पत्नी के घरों पर हमले हुए और उन्हें तोड़-फोड़ा गया। उन सबने पाकिस्तान जाने का फैसला किया। हैदर ने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया।
उन्होंने कहा, मेरा वतन यही है। एक बार मैंने उन्हें कुरेदने की कोशिश की कि जब उनके परिवार के सब लोग चले गए, तो उन्होंने भारत क्यों नहीं छोड़ा। रज़ा ने सकुचाते हुए स्वीकार किया, “मुझे लगा कि मैं गया तो महात्मा से दगा करूंगा। उनके मन में 17 साल पहले देखे महात्मा की वही छवि बैठी हुई थी।”
रज़ा हमेशा मानते रहे कि भारत का विभाजन भारी गलती थी और एक धर्मांध हिन्दू के हाथों उनकी हत्या बड़ी त्रासदी। जब रज़ा 80 के हो रहे थे, तब मैंने एक इंटरव्यू में उनसे पूछा, उनका शिकवा क्या है। उन्होंने कहा, ‘मुझे सबसे बड़ा क्षोभ हुआ 1948 में उनकी हत्या से। एक उन्मादी व्यक्ति का वह क्रूर कर्म था। वह दौर था, जब हम ऊर्जावान युवा थे। अपनी तकदीर बदलना चाहते थे। ऐसे ऊर्जावान समय में यह हादसा हुआ। मुझे अपनी जिंदगी में इससे ज्यादा बड़े संकट की याद नहीं है। एक शून्य था, गहरी निराशा और नाराजगी। मुझे याद है, उसी साल मैंने अपने माता-पिता को खोया। बचपन में हमारी राजनीतिक चेतना नहीं थी। पिता की सख्त निगहबानी में हम सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों से दूर भी थे। पर राष्ट्रीय स्वाभिमान और आजादी की चाहत तो थी। महात्मा गांधी ने शक्ति के अजस्र स्रोत की भांति पूरे देश को जगा दिया था। अंग्रेजों को मुल्क छोड़ना पड़ा। यानी आजादी। और तभी राष्ट्रपिता की हत्या हो गई। इससे बड़ा दर्द मेरे जीवन में दूसरा नहीं उठा।’
रज़ा ने फ्रांस में तकरीबन छह दशक बिताए और वे अक्सर अपने वतन आते थे, तो सेवाग्राम, साबरमती या राजघाट भी जाते। उनके विचार से गांधी से जुड़ी जगहों पर जाना मंदिर, मस्जिद या किसी पवित्र स्थल पर जाने जैसा था। यहां तक कि जब उनकी उम्र 85 बरस की थी, हमने उन्हें महात्मा के सम्मान में घुटनों के बल जमीन पर बैठकर मत्था टेककर अभिवादन करते देखा।
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उन्होंने महात्मा की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ और महान ग्रंथ ‘गीता’ पर महात्मा की टीका को पढ़ा था। गांधीजी के अध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से गहरे अनुराग के कारण गांधी के अध्यात्मिक उत्तराधिकारी आचार्य विनोबा भावे को भी उन्होंने पढ़ा। खासतौर से विनोबाजी की ‘स्वधर्म’ अवधारणा से वे अनुप्राणित रहे। अपने जीवन के अंतिम साढ़े पांच साल व्यतीत करने जब वे पेरिस से दिल्ली आए, तो अपने साथ जो कुछ किताबें लेकर आए, उनमें विनोबाजी की हिन्दी पुस्तक ‘गीता प्रवचन’ भी एक थी।
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रज़ा इस पीड़ादायक तथ्य से भलीभांति परिचित थे कि समकालीन भारत के जीवन, धर्म और राजनीति में गांधीजी का असर कम होता जा रहा है। यह महात्मा के साथ भारी विश्वासघात है। उनका गहराई से विश्वास था कि गुजरी सहस्राब्दी में गांधी सबसे ऊंचे कद का महानतम व्यक्ति हुआ है। अक्सर पेरिस से और भारत में रहते हुए भी मुझसे बात करते समय वे समकालीन भारत के गांधी को बिसराने का उल्लेख करते थे।
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सत्तर के मध्य दशक में जब उन्हें अच्छी तरह से पेरिस स्कूल (इकोल द पारी) का पेंटर मान लिया गया था, उनके मन में पीड़ा थी। वे खुद से पूछते थे, मेरे भीतर का भारत कहां है? और मेरे काम में रज़ा कहां है? उन्होंने अपना रुख भारतीय अवधारणाओं पर केंद्रित किया। खासतौर से ‘बिन्दु’ पर जो बाद में पेंटर के रूप में उनका प्रतीक चिह्न बन गया।
बिन्दु के अलावा दूसरी अवधारणाओं मसलन ‘शांति’ ने भी उन्हें आकर्षित किया। उन्होंने इस थीम पर बहुत से चित्र बनाए। यह माना जा सकता है कि शांति गांधी-विचार है, जिसमें सत्य और अहिंसा के दो मंत्र मिल जाते हैं।
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रज़ा गहरे धार्मिक व्यक्ति थे। भारत और पश्चिम में आधुनिकतावाद पर आस्था का ह्रास हावी हो रहा था, जिसमें टकराव, तनाव, प्रवाद की भूमिका है। रज़ा ने आस्था और शांति-आधारित एक वैकल्पिक आधुनिकतावाद का अवगाहन किया। इस सहज अध्यात्मिकता में बहुधर्मी तत्व समाहित थे।
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जीवन के अंतिम दिनों तक रज़ा हर हफ्ते चर्च, मंदिर और मस्जिद में जाते और देर तक खड़े या बैठे गहरे ध्यान में मग्न रहते। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि सृजनात्मकता को जब तक अलौकिक शक्ति का सहारा नहीं होगा, वह प्रस्फुटित नहीं होगी। मुझे लगता है कि महात्मा ने अनेक-धर्मशास्त्रों के उपदेशों और निःशब्द-ध्यान गुंफित ‘प्रार्थना सभा’ की जिस विशिष्ट अध्यात्मिक संस्था को जन्म दिया था, वह रज़ा के इस व्यवहार की प्रेरणा-स्रोत थी।
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रज़ा ने मुझसे कई बार कहा था कि वह महात्मा की इस बात से सहमत हैं कि सभी धर्म सच्चे हैं, पर सभी अपूर्ण हैं। इसका मतलब है कि सभी धर्मों को एक-दूसरे से सीखने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना चाहिए। रज़ा मुसलमान थे और उनकी इस्लाम में पूरी आस्था थी। पर वे हिन्दू अध्यात्मिक अवधारणाओं से भी प्रभावित थे और कई बार ईसाई अवधारणाओं से भी।
रज़ा ने 2011 में अपने वतन वापस लौटने का फैसला किया और अंतिम साढ़े पांच साल दिल्ली में बिताए। उन्होंने इसके पहले हौज खास के सफदरजंग डेवलपमेंट एरिया में एक मकान खरीद लिया था, जिसे रज़ा फाउंडेशन के नाम से रजिस्टर कराया गया था। आमतौर पर हर रोज जब वे अपना काम पूरा कर लेते थे, तब मैं उनके यहां जाता था। हमने तमाम विषयों पर बात की। उनके काम पर और उनके शीर्षकों पर। कई बार मैं उन्हें ग़ालिब, मीर और कबीर की पंक्तियां सुनाता। कभी-कभार गांधी के विचार। एक बार मैंने उनसे कहा, गांधी के विचारों पर पेंटिंगों का सेट क्यों न बनाएं। उन्होंने सहमति व्यक्त की।
साल 2013 के एक तीसरे पहर मैंने देखा कि वे कैनवस पर धूसर रंगों से कुछ काम कर रहे हैं। मुझे विस्मय हुआ कि पेंटिंग में उनके ज्यामितीय आकार अनुपस्थित थे। जब हम शाम को बैठे तो उन्होंने बताया कि मैंने गांधी पर पेंटिंगों का सेट बनाने का फैसला किया है। जिस पेंटिंग की बात हो रही है, वह पहली थी, जो गांधी के अंतिम शब्दों ‘हे राम’ पर आधारित है। कैनवस पर धूसर रंग का कुहासा है, जिसके बीच में से सफेद रंग भी झलक रहा है, जो शुद्धता और आशा का संकेत है। गाढ़े भूरे रंग का एक स्तम्भ है, जो अवज्ञा और दृढ़-प्रतिज्ञा का प्रतीक है। शरीर मर गया, आत्मा अमर हो गई।
इस सीरीज में अगली पेंटिंग नरसी मेहता की एक पंक्ति से प्रेरित है, जो गांधी का प्रिय भजन था। ईश्वर के सच्चे भक्त वे हैं, जो दूसरे की पीड़ा को महसूस करते हैं। व्यक्तिगत रूप से रज़ा दूसरों के दर्द को समझते थे। महात्मा को श्रद्धांजलि के साथ-साथ यह पंक्ति उनकी मनोभावना को व्यक्त करती है। उन्होंने इस भजन की पहली पंक्ति कैनवस पर दर्ज की है। खास बात यह कि इसके पीछे उपदेश देने की कोई कामना नहीं है। केवल एक सहज बात।
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इस सीरीज की तीसरी पेंटिंग में रज़ा अपने ज्यामितीय आकारों पर वापस आते हैं। गांधी के एक और भजन से लिया गया विचार। इसमें राम के नाम अतिरिक्त जोर देने के बजाय उन्होंने भजन के केंद्रीय तत्व ‘ईश्वर अल्ला तेरे नाम’ को स्थापित किया और शीर्षक दिया ‘सन्मति।’ ऐसी सन्मति जिसे समकालीन भारत भूल रहा है।
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पेंटिग ‘सत्य’ बनाने के पहले हमारे बीच विचार-विमर्श हुआ। सत्य अमूर्त विचार है। उसके कई रूप और उसे प्राप्त करने के कई रास्ते हैं। कई दावे हैं, कई दावेदार. दर्शन, नैतिकता, धर्म, अध्यात्म, साहित्य, कला, विज्ञान वगैरह। हमने पाया कि गांधी के सत्य की अपनी गतिशीलता है। लम्बे समय तक वे मानते रहे ‘ईश्वर ही सत्य है’ और फिर इस धारणा को बदल कर कहा, ‘सत्य ही ईश्वर है।’ रज़ा का काम पूरी तरह अमूर्त है। उसकी कई परतें शायद संकेत करती हैं कि सत्य तक तभी पहुंचा जा सकता है या उसे पाया जा सकता है, जब कई सतहों को पार किया जाए। सत्य के करीब भी एक गाढ़ी परत है। जब आप सत्य के प्रकाश तक पहुंचते हैं तब शुद्धता और श्वेत-आभा का दर्शन होता है।
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अगले काम ‘शांति’ में गांधी अपनी पुरानी थीम की पुनरावृत्ति करते हैं। वे मानते हैं कि ऊर्जा, जिसे उन्होंने ‘बिन्दु’ का रूपक दिया था, शांति से प्रस्फुटित होती है और शांति की ओर ले जाती है। ‘स्वधर्म’ की अवधारणा उन्होंने विनोबा से ली। वे स्पष्ट थे कि मेरा अपना ‘धर्म’ चित्र बनाना है और वे इसे आजीवन मानते रहे। इस पेंटिंग में विनोबा का एक उद्धरण है। इसके प्रज्ज्वलित रंग कहते हैं कि जब आप स्वधर्म को समझेंगे, तभी प्रकाशमान होंगे। उन्होंने इन शब्दों को कैनवस पर लिखा है। 91 वर्ष की अवस्था में उन्हें इन शब्दों को कैनवस पर लिखने में खासा श्रम करना पड़ा।
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महात्मा की तरह रज़ा को भी अपनी मातृभाषा हिन्दी से प्रेम था। एकाध मौके को छोड़कर उन्होंने देवनागरी में हिन्दी, संस्कृत और उर्दू पंक्तियों को लिखा। रोमन, अंग्रेजी और फ्रेंच में शायद ही कभी लिखा हो। चित्रकार के रूप में शब्द उन्हें आकर्षित करते थे और वे उन्हें सम्मान देते थे।
इन सात चित्रों के पहले रज़ा ने केवल एक बार गांधी पर चित्र रचना की थी। सन 1990 में अपनी भारत यात्रा के दौरान वे महान चिंतक रामचंद्र गांधी (महात्मा गांधी के प्रपौत्र) से इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के बार में मिले। रामू ने (हम उन्हें प्रेम से यही कहते) उन्हें एक ग्रीटिंग कार्ड दिया, जिसपर गांधी की निम्नलिखित पंक्तियां थीं-
मृत्यु के बीच है जीवन,
असत्य के बीच सत्य,
अंधकार के बीच प्रकाश।
उसी साल रज़ा ने गांधी पर अपनी पहली पेंटिंग बनाई।
(लेखक कवि, कला मर्मज्ञ और पूर्व आईएएस अधिकारी हैं)
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