मुंशी प्रेमचंद को शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने 'उपन्यास सम्राट' का नाम दिया। सहज हिंदी में बोझिल बातों को आसानी से कहकर आंखों से पानी की धार बहा देने का हुनर था प्रेमचंद में। जिन्होंने जो कागजों में लिखा उसे जीवन में भी उतारा। गोदान, रंगभूमि, निर्मला, गबन जैसी अनगिनत कृति रचने वाले प्रेमचंद की 8 अक्टूबर को पुण्यतिथि है।
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प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य को यर्थाथवाद का अमृत चटाया। सामाज के तमाम झंझावात झेल आगे बढ़ रहे कैरेक्टर को उन्होंने कहानी का नायक बनाया। यही वजह है कि दशकों बीत गए लेकिन आज भी प्रासंगिक हैं। लगता है जैसे रचनाएं आज के माहौल में ही गढ़ी गई हों।
कौन भूल सकता है हामिद और अमीना का वो संवाद जिसमें दादी पोते पर खिजियाती है कि वो मेले से तीन पैसे का चिमटा क्यों लाया, कुछ खाया पिया क्यों नहीं? इस पर हामिद का मासूम सा अंदाज बरबस अंदर तक भेद जाता है। कहता है -तुम्हारी ऊँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैंने इसे लिया। एक पल में ही सब बदल जाता है बूढ़ी दादी बच्चा बन जार-जार रोती है और बच्चा बड़ा बन बस दादी को देखता जाता है। प्रेमचंद की ईदगाह बड़े जतन से समां बांधती है। गरीबी कैसे बच्चे को बड़ा बना देती है इसकी बानगी है।
प्रेमचंद के ये भाव शायद उनके अपने जीवन से उधार लिए हुए थे। जीवन में बहुत कुछ झेला। 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के नज़दीक लमही गांव में जन्मे प्रेमचंद का मूल नाम धनपत राय था। पिता अजायब राय डाकखाने में मामूली नौकरी करते थे। तब सिर्फ आठ साल के थे और मां का निधन हो गया।
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पिता ने दूसरी शादी की लेकिन मां का प्यार उन्हें नहीं मिला। प्रेमचंद का जीवन बहुत अभाव में बीता। ऐसे दौर में ही वो कहानियां पढ़ने लगे और फिर रचने भी लगे। कम उमर में पिता ने बेटे की शादी करा दी। लेकिन वो चल नहीं पाई। पत्नी छोड़कर चली गई। तन्हा प्रेमचंद गुजारा किसी तरह करते रहे।
टीचर थे बाद में प्रोन्नति हुई तो डिप्टी इंस्पेक्टर भी बने। किताब सोजे वतन 1908 में छपी। जिसमें वतन के लिए मर मिटने का जज्बा था। आवाम का दर्द था। पांच कहानियों का संग्रह खूब पढ़ा गया। हुक्मरान डर गए। फिर 1910 में सभी प्रतियां अंग्रेज कलेक्टर के इशारे पर जला दी गईं। लिखने पर भी पाबंदी लगाई गई।
उस समय धनपत राय नवाबराय के नाम से लिखते थे। खैर, एक मित्र की सलाह पर नवाब राय प्रेमचंद बन गए और कलम से दिल की बात लिखने लगे।
नया भारत करवट ले रहा था। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ माहौल बन ही रहा था ऐसे दौर में ही उन्होंने समाज और देश को झकझोरती कई कहानियां गढ़ीं। सामंतवाद को आंखें दिखाईं तो कृषकों और गरीबों का दर्द साझा किया। पूस की रात का हल्कू हो या गोदान का होरी- सबकी व्यथा ऐसे सुनाई कि रूह कांप गई।
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300 कहानियां और 14 बड़े उपन्यास लिखना कोई मामूली बात नहीं होती लेकिन प्रेमचंद ने बड़ी सहजता से साहित्य उपासना की। नारी के सम्मान, रूढ़िवादी सोच की बखिया भी उधेड़ी। युवा निर्मला का अधेड़ शख्स से ब्याह पढ़ने वालों को सालता है तो बूढ़ी काकी का बुढ़ापा कचोटता है। इस लिखाड़ ने समाज को यर्थाथ का जायका चखाया।
खास बात ये थी कि जैसा उन्होंने अपनी रचनाओं में गढ़ा उसे जीवन में भी अपनाया। बाल विधवा शिवरानी से ब्याह रचा समाज को अपनी परिपक्व सोच से रूबरू कराया। 8 अक्टूबर 1936 में उन्होंने अंतिम सांस ली। प्रेमचंद चले गए लेकिन जो रचनाओं का अथाह सागर छोड़ गए वो अब भी समाज को जड़ों से जुड़े रहने का महत्व समझाती हैं।
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