शख्सियत

जन्मदिन विशेष: नूतन, एक ऐसी अभिनेत्री जो नारी भावनाओं की सशक्त अभिव्यक्ति थीं, ‘बंदिनी’ ने बनाया ट्रेजडी क्वीन

सीमा, सुजाता और बंदिनी उनकी तीन ऐसी फिल्में हैं जहां नूतन स्त्री के दुखदर्द की पहचान कराने वाली अभिनेत्री के रूप में दिखती हैं। इनमें से दो- सुजाता और बंदिनी- बिमल राय के निर्देशन में बनी थीं

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

स्टीमर का भोंपू कर्कश आवाज में बज उठता है। गुडलक टी हाउस पर बैठा कोई गाने लगता है-ओ रे मांझी, मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार हूं इस पार। और इस गाने के बोलों के जरिये सहसा जैसे कल्याणी की पीड़ा, उसके मन के भीतर चल रही उठापटक मुखर हो उठती है और गाना खत्म होते होते वह फैसला ले लेती है। कल्याणी युवा नेकदिल डॉक्टर देवेन के साथ सुखद और सुरक्षित भविष्य की तरफ ले जा रही रेल छोड़ कर अपने मन की पुकार सुनकर स्टीमर में बीमार, दुखी और एकाकी विकास के पास चली जाती है जिससे उसका मन वर्षों पहले जुड़ा था लेकिन निष्ठुर संयोगों ने उन्हें वर्षों तक अलग रखा। प्रेम की बंदिनी है कल्याणी ।

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बिमल राय की फिल्म बंदिनी को हिंदी सिनेमा में क्लासिक का दर्जा हासिल है। यह फिल्म नूतन के अभिनय का भी सर्वोच्च शिखर है। बंदिनी में नूतन के अभिनय को भारतीय सिनेमा की सार्वकालिक सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में गिना जाता है। लेकिन इस फिल्म के दो केंद्रीय चरित्रों कल्याणी और विकास के लिए नूतन और अशोक कुमार के चुनाव की भी अपनी ही कहानी है।

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बिमल राय ने जब इस फिल्म पर काम शुरू किया था तब नूतन कुछ हिट फिल्में करने के बाद नौसेना अधिकारी रजनीश बहल से शादी करके फिल्मों को अलविदा कह चुकी थीं। बिमल राय गर्भवती नूतन को स्क्रिप्ट सुनाने पहुंचे तो उनके पति को भी कहानी बहुत पसंद आई। बिमल राय ने जब अशोक कुमार को कहानी सुनाई तो उन्हें क्रांतिकारी विकास का किरदार पसंद नहीं आया। बंदिनी के संवाद लेखक नबेंदु घोष ने अशोक कुमार पर लिखी किताब में यह किस्सा दर्ज किया है। अशोक कुमार ने बिमल राय के प्रस्ताव पर तुरंत हामी नहीं भरी थी क्योंकि वह प्रेम करने वाली महिला से धोखा करके उसे छोड़ जाने वाले क्रांतिकारी के किरदार से असंतुष्ट थे। जब उन्हें क्रांतिकारियों के जीवन, पार्टी के सख्त अनुशासन की वजह से निजी जीवन में दी जाने वाली क़ुर्बानियों की बातें बताई गईं तब जाकर उनका मन बदला। बिमल राय ने उनसे यह भी कहा कि दादामोनी, विकास की तरह की उन्मुक्त, खुले दिल वाली हंसी आपके अलावा और कोई नहीं हंस सकता। यह सुनकर अशोक कुमार ने अपना चिरपरिचित ठहाका लगाया। बात बन गई।

धर्मेंद्र तब नये नये फिल्मों में आए ही थे। सुकुमार, नरमदिल जेल डॉक्टर देवेन की भूमिका में बिमल राय ने उन्हें मौक़ा दिया। बिमल राय की सोच को दर्शाने वाला एक बहुत जानदार संवाद धर्मेंद्र के हिस्से में आया था- क्या लाभ और हानि का हिसाब-किताब ही जीवन की सबसे बड़ी बात होती है? लेकिन बंदिनी नूतन की फ़िल्म है। उनके अभिनय का चरमोत्कर्ष।

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नूतन के बेटे मोहनीश बहल के जन्म के बाद फिल्म की शूटिंग शुरू हुई। 1963 में यह फिल्म रिलीज हुई। एसडी बर्मन की धुनों से सजे शैलेंद्र-गुलज़ार के गीतों ने जो जादुई असर छोड़ा वो आज तक बरकरार है। बंदिनी का एक-एक गाना फिल्म संगीत के खजाने का बेजोड़ नगीना है। ‘मोरा गोरा अंग लई ले, जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे, अब के बरस भेज भइया को बाबुल, ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना’। फ़िल्म के क्लाईमेक्स में सचिन देव बर्मन की आवाज़ में ओ रे मांझी तो प्रेम की सघनता, विरह की पीड़ा और पश्चाताप का अद्भुत सम्मिश्रण है।

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उसी साल नूतन की एक और फिल्म आई थी- तेरे घर के सामने। नायक देव आनंद, निर्देशक उनके भाई विजय आनंद। संगीतकार फिर सचिन देव बर्मन। रोमांटिक फिल्म में नूतन ने अदाकारी का बिल्कुल अलग रंग दिखाया। चुलबुली, शोख़ शहरी लड़की। कुतुब मीनार की लोकेशन पर फ़िल्माया गया मोहम्मद रफी का गाया सुपरहिट रोमांटिक गाना याद करिये- दिल का भंवर करे पुकार, प्यार का राग सुनो रे।

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नूतन की लोकप्रियता में उनकी फिल्मों के हिट संगीत का बहुत बड़ा हाथ रहा। खुद भी बहुत अच्छा गाती थीं। लता मंगेशकर ने उन्हें अपने गाये गानों पर सबसे अच्छी तरह होंठ हिलाने वाली अभिनेत्री कहा था और सीमा फिल्म के गाने मनमोहना बड़े झूठे की मिसाल दी थी।

सीमा, सुजाता और बंदिनी उनकी तीन ऐसी फिल्में हैं जहां नूतन स्त्री के दुखदर्द की पहचान कराने वाली अभिनेत्री के रूप में दिखती हैं। इनमें से दो- सुजाता और बंदिनी- बिमल राय के निर्देशन में बनी थीं। नूतन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के तौर पर पांच बार फिल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला, जिसे उनके बाद उनकी छोटी बहन तनुजा की बेटी काजोल ने दोहराया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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