आज बैरिस्टर सैय्यद हसन इमाम की जन्म-तिथी हैसरज़मीन-ए-हिन्द ब्रिटेन दौर के दीवानी क़ानून की दुनिया में बैरिस्टर सैय्यद हसन इमाम का कोई हमसफ़र नहीं पैदा कर सकी। हिन्दू लॉ के सिलसिले में हसन इमाम को ऑथोरिटी का दर्जा हासिल है। हिन्दुओं के क़ानून को सामने रखकर जब वो बहस करते तो शास्त्रों और वेदों के हवालों से ऐसे नुक्ते पेश करते कि बड़े-बड़े संस्कृत जानने वाले पंडितों के होश उड़ जाते थे।
वकालत की दुनिया में सबसे बड़े नाम
हसन इमाम हिन्दू लॉ के तो पंडित स्वीकार कर लिए गए थे। लेकिन इनकी ख़ूबी ये थी कि वो उस वक़्त के दीवानी क़ानून के सबसे बड़े वकील होते हुए भी बहुत से फौजदारी मुक़दमों की भी पूरी कामयाबी के साथ पैरवी की। जलियांवाला बाग मामले की पैरवी भी सैय्यद हसन इमाम ही कर रहे थे।
अगर आज भी ऐसे वकीलों की फ़हरिस्त तैयार की जाए, जिन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा की हो, तो यक़ीनन सैयद हसन इमाम का नाम उस फ़हरिस्त में सबसे ऊपर होगा।
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महात्मा गांधी से सैय्यद हसन इमाम का रिश्ता
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से सैयद हसन इमाम के काफ़ी क़रीबी रिश्ता था। उनकी क़ाबलियत का लोहा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी मानते थे। इसका अंदाज़ा गांधी जी द्वारा लिखे कई पत्रों से होता है। एक पत्र गांधी जी ने साबरमती आश्रम से 24 अगस्त, 1926 को लिखा।
इस पत्र में वो लिखते हैं ‘प्यारे दोस्त, आपका खत मिला। मैं आपको और आपकी मेज़बानी को बिलकुल नहीं भूला हूं। लेकिन मानना पड़ेगा कि आपका ऐलान तो मुझे ज़रा भी पसन्द नहीं आया। आपकी अपील की रीढ़ साम्प्रदायिकता ही है। आप अपने हिन्दू मतदाताओं से सिर्फ़ इस बिना पर मत पाने की आशा करते हैं कि आप मुसलमान हैं, इस बिना पर नहीं कि आप ज़्यादा क़ाबिल हैं और आपमें कई दूसरी ख़ूबियां हैं।’
गांधी और हसन इमाम की दोस्ती में ख़ास बात ये थी कि दोनों कई बार कई मुद्दों पर असहमत होते थे, बावजूद इसके इनके बीच बातचीत लगातार जारी रहती थी। और खुलकर दोनों अपने विचार लिखा करते थे।
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एक और पत्र में गांधी जी इनके विचार पर असहमति जताते नज़र आते हैं। ये पत्र गांधी जी ने 10 अगस्त, 1924 को साबरमती से लिखा था। वो लिखते हैं
‘प्रिय मित्र, हिन्दू वह है जो ‘वेदों’, ‘उपनिषदों’, ‘पुराणों’ आदिमें और वर्णाश्रम-धर्म में विश्वास करता है। मैं आपके इस विचार से सहमत नहीं हो सकता कि हमें उन लोगों का दावा स्वीकार नहीं करना चाहिए तो अपने को किसी विशेष धर्म का अनुयायी बताते हैं। मैं अपने विश्वास का सबसे अच्छा पारखी स्वयं अपने को मानने का दावा करता हूं. क्या आप ऐसा नहीं करते?”
आज ही के दिन यानी 31 अगस्त, 1871 को पटना ज़िला के नेउरा गांव में जन्मे गांधी का ये दोस्त सैय्यद इमदाद इमाम के बेटे और सर अली इमाम के छोटे भाई थे। 1889 में वकालत की पढ़ाई के लिए इंगलैंड के मिडिल टेम्पल गए। 1892 में भारत लौटे और कलकत्ता हाई कोर्ट में वकालत शुरू की। 1912-16 तक वे कलकत्ता हाईकोर्ट में जज रहे।
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कांग्रेस से संबंध और देश की आज़ादी में इनका रोल
1909 में बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी की स्थापना सोनपुर में की गई और इसके पहले संस्थापक अध्यक्ष हसन इमाम ही बने और इसी साल नवम्बर में बिहार स्टू़डेन्ट्स कांफ़्रेंस के चौथे सत्र की अध्यक्षता की। 1916 में होमरूल आन्दोलन में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। 1917 में बिहार प्रोवेंशियल कांफ्रेस के अध्यक्षीय भाषण में श्रीमति ऐनी बेसेन्ट की रिहाई की पूरज़ोर वकालत की। यही नहीं, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन 29 अगस्त से 1 सितम्बर 1918 तक बम्बई में हुआ, इसकी अध्यक्षता भी सैय्यद हसन इमाम कर रहे थे। 1927 में बिहार में साइमन कमीशन के बहिष्कार आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। वहीं 1930 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भी सक्रिय रूप से भाग लिया।
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ख़िलाफ़त आन्दोलन में सबसे सक्रिय
1920 में शुरू हुए ख़िलाफ़त आन्दोलन में सैय्यद हसन इमाम ने सबसे सक्रिय भूमिका निभाई। 24 फ़रवरी, 1921 को कलकत्ता में बंगाल विधान मंडल के निर्वाचित मुस्लिम सदस्यों के एक शिष्टमंडल के सामने उस वक़्त वाईसराय अपना भाषण दे रहे थे। इस भाषण में उन्होंने ये प्रस्ताव रखा कि देश में चल रहे ख़िलाफ़त आन्दोलन को नतीजे पर पहुंचाने के लिए आप लोगों की एक टीम यूरोप जाए और अपना पक्ष प्रस्तुत करे। जाने वाले लोगों की टीम में वाइसराय ने चार लोगों का नाम शामिल रखा। जिनमें सबसे महत्वपूर्ण नाम हसन इमाम का था। इसके अलावा आगा खां, छोटानी,डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी के नाम भी शामिल थे। कहा जाता है कि तुर्कों को जब अंग्रेज़ों ने पहली विश्व युद्ध में शिकस्त देकर ‘सिवरे’ समझौते के लिए मजबूर किया तो भारतीयों का एक डेलीगेशन हसन इमाम की अध्यक्षता में इंगलैंड गया। यही नहीं, न सिर्फ़ तुर्कों को पूरी तरह से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ उभारा बल्कि इस समझौते को तोड़ने की राय दी और जंग को जारी रखने के लिए ललकारा।
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बिहार की स्थापना और हसन इमाम
बिहार को बंगाल से अलग कर बिहार नाम की रियासत बनाने में सैय्यद हसन इमाम का रोल सबसे अहम है। इन्हीं की कोशिशों के कारण बिहार 1912 में वजूद में आया। कहा जाता है कि 1914 में हसन इमाम ने लार्ड हार्डिंग की दावत पटना स्थित अपने मकान में की थी। भारत के इतिहास में हसन इमाम पहले बैरिस्टर थे जिनके घर पर भारत का वाइसराय मिलने आया था। प्रसिद्ध राष्ट्रावादी अंग्रेज़ी अख़बार “सर्चलाईट" और “बिहारी” सैय्यद हसन इमाम ने ही शुरू किया था।
एक समाज सुधारक की भूमिका में हसन इमाम
हसन इमाम सामाजिक सुधार के ज़बरदस्त हिमायती थे। उन्होंने महिलाओं और दलित वर्गों की स्थिति में सुधार करने की कोशिश पूरी ज़िन्दगी की। शिक्षा के महत्व पर ख़ास तौर पर औरतों की तालीम पर आपने ख़ास ध्यान दिया। आप अलीगढ़ और बनारस दोनों कालेजों में ट्रस्टी थे। उस ज़माने में बीएन कालेज पटना को हर साल एक हज़ार रूपये बतौर सहयोग राशि देते थे। 19 अप्रैल, 1933 को बिहार के शाहाबाद ज़िला के जपला नाम के गांव में दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गए।
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