'हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे,
कहते हैं की ग़ालिब का अंदाज़-ए-बयां और'
ग़ालिब की शायरी को पसंद करने वालों की फेहरिस्त आज भी बहुत लम्बी है। आज के कई बड़े बड़े शायरों के आइडियल हैं मिर्ज़ा ग़ालिब। उर्दू अदब में जो रुतबा, मुक़ाम, शोहरत ग़ालिब को हासिल है शायद ही किसी को हो।
Published: 27 Dec 2022, 1:31 PM IST
27 दिसंबर 1797 में आगरा के अब्दुल्लाह बेग के यहां उनकी पैदाइश हुई और बड़े होकर ये असदुल्लाह, नीशां मियां और फिर ग़ालिब के नाम से मशहूर हुए। ग़ालिब अपने बारे में कहते तो शायद मशहूर की जगह बदनाम लफ्ज़ का इस्तेमाल करते। ग़ालिब हमारे दौर के हैं या हम उनके ज़माने से आगे नही निकल पाए हैं ये कहना थोड़ा मुश्किल है, क्यूंकि ग़ालिब ने भी तो कहा था कि,
'सीखें हैं महरुखों के लिये हम मुसव्वरी,
तरक़ीब कुछ तो बहरे मुलाक़ात चाहिए।'
Published: 27 Dec 2022, 1:31 PM IST
ग़ालिब उर्दू और फ़ारसी ज़ुबान के एक अज़ीम शायर थे, उनको उर्दू ज़ुबान का महान शायर माना जाता है और फ़ारसी ज़ुबान की शायरी को हिन्दुस्तानी ज़ुबान में मशहूर करवाने का श्रेय भी उनको ही दिया जाता है, हालांकि उनसे पहले के गुज़िश्ता सालों में मीर तक़ी मीर भी इसी ख़ातिर जाने जाते थे।
ग़ालिब के लिखे ख़त जो उस वक़्त छप नहीं पाए थे, आज उन्हें भी उर्दू अदब का अहम दस्तावेज़ माना जाता है। वह ना सिर्फ हिंदुस्तान में बल्कि दुनियभर में बेहद अहम शायर की हैसियत से जाने जाते हैं। अगर गालिब आज होते तो फिर बड़ा नाज़ उठवाते और ये शेर शायद उन्होंने इसीलिये कहा था कि,
'बहरा जो हूं तो चाहिए दूना हो इल्तेफात,
सुनता नहीं हूं बात मुक़र्रर कहे बगैर।'
Published: 27 Dec 2022, 1:31 PM IST
ग़ालिब और असद नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़लिया सल्तनत के आखिरी बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी शायर भी रहे थे। आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुज़ारने वाले ग़ालिब को ख़ासकर उनकी गज़लों के लिये याद किया जाता है।
ग़ालिब का जन्म आगरा में हुआ था, इनका परिवार सैनिक पृष्ठभूमि वाला था। उन्होंने अपने वालिद और चचा को अपने बचपन में ही खो दिया था। उनका गुज़ारा उनके चचा के इन्तेक़ाल के बाद उन्हें मिलने वाली पेंशन से होता था।
Published: 27 Dec 2022, 1:31 PM IST
ग़ालिब एक तुर्क़ परिवार से थे। सन 1750 के आस पास उनके दादा मिर्ज़ा कोबान बेग शाह समरक़न्द से हिंदुस्तान आए थे। उस वक़्त हिंदुस्तान में अहमद शाह की हुक़ूमत थी। ग़ालिब की शुरुवाती तालीम के बारे में साफ़-साफ़ कुछ कहा नही जा सकता, लेकिन मालूमात के मुताबिक़, उन्होंने 11 साल की उम्र से ही उर्दू और फ़ारसी में गज़लें लिखना शुरू कर दिया था। उन्होंने ज़्यादातर फ़ारसी और उर्दू में पारंपरिक भक्ति और सौंदर्य रस पर गज़लें लिखीं।
13 साल की उम्र में इनकी शादी नवाब इलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से करा दी गई थी। शादी के बाद वो दिल्ली आ गए थे, जहां फिर वो ताउम्र रहे। अपनी पेंशन के सिलसिले में उन्हें कभी-कभी कलकत्ता का लम्बा सफ़र करना पड़ता था, जिसका ज़िक़्र उन्होंने अपनी गज़लों में जगह-जगह किया है।
Published: 27 Dec 2022, 1:31 PM IST
1850 में शंहनशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय ने मिर्ज़ा ग़ालिब को दबीर-उल-मुल्क़ और नज़्म-उद-दौला के खिताब से नवाज़ा। बाद में उन्हें मिर्ज़ा नौशां का भी खिताब मिला। उन्हें बहादुर शाह ज़फ़र के बड़े बेटे का उस्ताद भी मुक़र्रर किया गया था। वो मुगल दरबार के अहम दरबारी और इतिहासकार थे।
ग़ालिब अगर आज के इस दौर में होते तो उन्हें सोशल मीडिया बहुत रास आता, क्योंकि वो किसी को कुछ कहने से चूकने वाले नही थे। उनके लिए फॉलो और अनफ्रेंड दोनों के बटन का खूब इस्तेमाल किया जाता।
Published: 27 Dec 2022, 1:31 PM IST
ग़ालिब में एक बात और थी जो बहुत कम ही शायरों में देखने को मिलती हैं, वह दूसरों की तारीफ़ करने में भी कभी पीछे नही हटते थे। उनकी चोट का असर कोई उनके समकालीन शायर ज़ौक से पूछे की बादशाह ज़फ़र को बीच में आना पड़ा था और अच्छी बात ये है की जब ज़ौक़ का शेर उनके सामने पढ़ा गया तो वो शतरंज छोड़ कर उसके बारे में पूछने लगे। उनकी पसंद का शेर ये था कि,
'अब तो घबरा के कहते हैं की मर जायेंगे
मर के भी चैन ना पाया तो कहां जायेंगे।'
15 फ़रवरी 1869 में दिल्ली के चांदनी चौक में उर्दू के इस अज़ीमुशशान शायर ने दुनिया को हमेशा हमेशा के लिए अलविदा कह दिया, लेकिन ग़ालिब आज भी ज़िंदा हैं हमारे बीच अपनी अनमोल गज़लों के ज़रिये और हमेशा ज़िंदा रहेंगें।
Published: 27 Dec 2022, 1:31 PM IST
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Published: 27 Dec 2022, 1:31 PM IST