पचास साल पहले 1969 में जब अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ रिलीज हुई तो अमिताभ सहित किसी को भी पता नहीं था कि यह हिंदी सिनेमा के ऐसे सुनहरे इतिहास की बुनियाद पड़ रही है जिसकी इमारत सबसे बुलंद और चमकदार होगी।
अमिताभ बच्चन को सिनेमा के सबसे बड़े पुरस्कार दादा साहब फाल्के सम्मान से नवाजे जाने का एलान हुआ है, लेकिन हिंदी सिनेमा के दर्शक तो जाने कब से उन्हें महानायक का खिताब दे चुके हैं। इस खिताब के लिये अमिताभ ने जी तोड़ मेहनत की। जान पर खेले और पहले से अधिक विनम्र होते चले गए। ‘सात हिंदुस्तानी’ के बाद अमिताभ ने करीब 13 फ्लाप फिल्में कीं। लेकिन यह उनका शालीन व्यवहार ही था कि लगातार फ्लाप देने के बावजूद उन्हें फिल्में मिलती रहीं।
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फिर जब किस्मत ने उनके नाम फिल्म ‘जंजीर’ की अभूतपूर्व सफलता लिखी तो आगे कई सालों तक सफलता अमिताभ के कदमों में लिपटी रही। उन्होंने एक्शन किया तो दर्शक जोश में चीखने लगते थे। कॉमेडी पर तो लोग दीवानो की तरह हंसते रहते थे। रोमांस किया तो सिलसिला, कभी कभी और अभिमान जैसी फिल्में दीं। अपनी आवाज में गाने गाए तो लोग झूम उठे। उनके फैन्स की भीड़ में नौजवानो से अधिक बच्चों की संख्या हुआ करती थी। उनकी लोकप्रियता का आलम यह रहा कि सिनेमा में सत्तर और अस्सी का दश्क अमिताभ के एंग्री यंगमैन के दशक के रूप में याद किया जाता है।
लेकिन पर्दे पर नजर आने वालों के सामने सफलता के बाद एक दिक्कत आती है और वो होती है छवि की दिकक्त। अभिनय करने वाले अपनी ही बनायी छवि में कैद हो जाते हैं। जंजीर, दीवार, डॉन, शोले, नसीब, अमर अकबर एंथोनी और शान जैसी फिल्मों के दौर में भला कितने लोग अभिमान, मिली और अलाप जैसी फिल्मों को तरजीह देते। इन फिल्मों में गुस्से की आग से धधकते अमिताभ की जगह एक ऐसे अमिताभ से सामना होता है जो आम इंसानो की तरह है।
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जैसा कि कहा जाता है कि समय का पहिया ऊपर जाता है तो नीचे भी आता है। करीब 12 साल ऊपर रहने के बाद जब पहिया नीचे आया तो अमिताभ की तमाम फिल्में फ्लाप होने लगीं। एक तो उनकी उम्र बढ़ रही थी दूसरे वे खुद अपनी एंग्री यंगमैन की छवि को लेकर बोर हो चुके थे।
इस दौरान अमिताभ ने अपने मित्र राजीव गांधी के कहने पर चुनाव लड़ा और अभूतपूर्व सफलता हासिल की। लेकिन राजनीति की तिकड़मों और घिनौनी चालों को देख एहसास हुआ कि उन्होंने राजनीति मे आकर गलत फैसला किया है तो उन्होंने राजनीति छोड़ दी।
इसके बाद उन्होंने अपनी कंपनी बना कर बेंगलुरू में 1996 में मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता आयोजित की जिसमें उन्हें भारी नुकसान हुआ। कुछ फिल्में भी बनायीं लेकिन असफलता ही हाथ लगी।
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अमिताभ ने हालात को लेकर गहराई से सोचा और पिता के पास बैठ कर उनसे घंटों सलाह मश्वरा किया। एक वही थे जिन पर अमिताभ खुद से अधिक भरोसा कर सकते थे। अमिताभ को किस्मत ने फिर मौका दिया। मोहब्बतें, कभी खुशी कभी ग़म और बाग़बान जैसी फिल्मों के दम पर वे फिर से उठ खड़े हुए। उनके अंदर अभिनय के कितने रंग हैं इसकी जानकारी उनके फैंस को साल 2000 के बाद मिलना शुरू हुई।
ये अमिताभ बच्चन ही थे जिन्होंने बदलते दौर में बढ़ती उम्र के बवजूद खान तिकड़ी की छाया से बाहर जाकर फिल्में कीं और सफल रहे। देवा, खाकी, लक्ष्य, अक्स से लेकर ब्लैक, पा, सरकार, भूतनाथ, पीकू, वजीर, 102 नॉट आउट, पिंक और बदला तक सफलता के साथ जितना लंबा सफर अमिताभ ने तय किया वे बेमिसाल है। राजकपूर, देवानन्द, धर्मेंद्र और दिलीप कुमार के समय में काम करने के बाद दूसरी पीढ़ी के एक्टरों सनी देओल, ऋषि कपूर, शाहरूख, आमिर, सलमान, सैफ सहित तीसरी पीढ़ी के रणबीर कपूर तक अमिताभ टिके हुए हैं।
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पचास साल तक सिंहासन संभाले रहना आसान नही होता। इस बीच जिंदगी कई रंग दिखा देती है। अमिताभ के रूपहले पर्दे के सफर में काले रंग की भी कमी नहीं रही। लेकिन वो अंधेरे से निकल कर रोशनी का रास्ता पकड़ने का हुनर सीख चुके थे। तभी तो 75 पार हो कर भी वे रोशनी के ही रास्ते पर हैं। अबी पता नहीं वे पर्दे पर क्या क्या और दिखाएंगे। फिलहाल उन्हें दादा साहब फालके पुरस्कार मुबारक हो।
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