उन्हें बर्दाश्त नहीं था कि उनकी नाट्य प्रस्तुति में कहीं से कोई कमी रह जाए। वह हद दर्जे के परफेक्शनिस्ट थे। शायद यही कारण था कि लम्बे-लम्बे अंतराल तक वह प्रस्तुतियों से दूर रह जाते थे। उनके कई काम इसीलिए बाकी रह गए। यह सब उनकी नाट्य सक्रियता के समय की बात है, जो बहुत ज्यादा पुरानी बात नहीं हुई है। उन्हें अच्छा नहीं लगता था कि कोई उनसे मिलने (उन्हें देखने) आए और वे असहाय से बिस्तर पर पड़े रहें। उन्हें अच्छा नहीं लगता था कि कोई उन्हें इस तरह असहाय देखे। उन्हें अच्छा नहीं लगता था कि वह बिना सूट-बूट किसी के सामने आएं… यह 2023 के उत्तरार्ध और 24 के शुरुआत की बात है।
शायद इसीलिए वे अस्वस्थ होने के बाद जल्दी चले गए। आख़िर वह राज बिसारिया थे… रंगकर्मियों के, हम सब के राज साहब। 16 फरवरी की देर शाम उन्होंने लखनऊ में अपने घर पर आख़िरी सांस ली। उनका जन्म लखीमपुर खीरी में 10 नवंबर 1935 को हुआ था।
वह सातवें दशक की शुरुआत का दौर रहा होगा। तब लखनऊ नाट्य संसार में अपनी गतिविधियों के कारण अलग से पहचाना जाता था। नियमित नाट्य प्रस्तुतियां होती थीं और दर्शक के लिए एक निश्चित जगह भी तय थी। उसे पता था कि नाटक देखने के लिए कहां जाना है। रवीन्द्रालय तब नाट्य चर्चा का एकमात्र केन्द्र हुआ करता था। यही वह दौर था जब ओम शिवपुरी, सुधा शिवपुरी, मनोहर सिंह, सुरेखा सीकरी, अनुराधा कपूर, बनवारी तनेजा और राजेन्द्र गुप्ता सरीखे बाद के सर्वाधिक चर्चित लोग लखनऊ आए और यहां के रंगपरिदृश्य का हिस्सा बने। थियेटर आर्ट्स वर्कशॉप के अतिरिक्त अन्य संस्थाओं के बुलावे पर पंकज कपूर, रघुवीर यादव, भानु भारती, बंसी कौल, रवि वासवानी आदि ने भी लखनऊ आकर काम किया। रंजीत कपूर और देवेन्द्र राज अंकुर ने भी। इन्हीं दिनों यहां बादल सरकार का मनोशारीरिक रंगमंच आकार ले रहा था और श्यामानन्द जालान के रंगमंच से भी इसका परिचय हो रहा था। लखनऊ की रंगमंचीय सक्रियता के इस दौर के पीछे एक और शख्सियत काम कर रही थी जिसका नाम था राज बिसारिया।
वह हमारा यूनिवर्सिटी का दौर था। अंग्रेज़ी अखबारों के तीसरे पन्ने पर एक पॉकेट विज्ञापन छपता था, अंग्रेज़ी नाटकों के लिए। उस छोटे से विज्ञापन में छपने वाला रेखांकन उसकी खासियत थी। ‘राज बिसारिया’ नाम से हमारी वही पहली पहचान थी। राज बिसारिया लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर थे और 1962 में ही वहां थिएटर ग्रुप बना चुके थे (तब हम दो-तीन साल के रहे होंगे)। लखनऊ विश्वविद्यालय में थिएटर गतिविधि के नाम पर यह पहला औपचारिक प्रयोग था, संभवतः आख़िरी भी। उन्हीं राज बिसारिया ने 1966 में लखनऊ में थिएटर आर्ट्स वर्कशॉप की स्थापना की। बाद में भारतेंदु नाट्य अकादमी बनाई और इसके निदेशक बने। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली के बाद देश का यह दूसरा नाट्य प्रशिक्षण विद्यालय था और राज इसके संस्थापक निर्देशक। उन्होंने इसके स्थापनाकाल 23 सितंबर 1975 से 10 सितंबर 1989 तक अपनी सेवाएं दीं।
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हिन्दी में तो वह उत्कर्ष का दौर था ही, राज बिसारिया के अंग्रेजी नाटकों ने लखनऊ के रंगमंच को एक अलग पहचान दी। उन्होंने हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही माध्यमों से रंगमंच को समृद्ध किया। राज बिसारिया की चर्चा उनके विषय चयन और प्रदर्शनों के साथ ही ‘रंगमंच में अनुशासन’ के लिए भी होती है, बल्कि इसके लिए वह ज्यादा जाने जाते। रंगमंच का उनका यह अनुशासन किसी ‘आतंक’ से कम नहीं था, जिसके असर में एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री भी आए और उनका नाटक देखने जाते हुए देर हो जाने के कारण बीच रास्ते से ही अपनी गाड़ी यह कहकर वापस मोड़ ली कि ‘राज का नाटक है, गेट बंद हो चुके होंगे’। साठ-सत्तर के दशक के राज का यह अनुशासन हमने सन 2000 में भी देखा, जब लम्बे अंतराल के बाद उन्होंने लखनऊ में ‘राज’ और ‘पिता’ शीर्षक से दो नाटक किए। एन्थनी शेफर का नाटक ‘राज’ दस साल बाद उनकी पुनर्प्रस्तुति थी, जबकि स्ट्रिंन्डबर्ग के नाटक ‘फादर’ पर आधारित ‘पिता’ की पहली प्रस्तुति। कथ्य के आधार पर दो सर्वथा अलग ज़मीन पर खड़े इन नाटकों ने सहमति-असहमति के कई नए आधार दिए लेकिन प्रस्तुति के स्तर पर राज के क्राफ़्ट की तारीफ होनी ही थी। संयोग रहा कि उसके बाद लगातार बाहर रहने के कारण उनकी कोई और प्रस्तुति नहीं देख सका।
यह 1976 से 80 के बीच की बात होगी जब हमने कुछ नाटक राज बिसारिया के देखे थे (यही हमारे रंगमंच से परिचय की भी शुरुआत थी)। शायद ‘अंधायुग’, ‘गार्बो’ और ‘गुफावासी’। सारी प्रस्तुतियां अलग रंग और अलग आस्वाद की। बिल्कुल अलग मूड की। लेकिन उस दौर की कुछ अन्य प्रस्तुतियों के साथ राज बिसारिया की ये प्रस्तुतियां आज भी स्मृति में हैं। इसलिए नहीं कि इनमे से किसी प्रस्तुति में आज के स्टार फिल्म अभिनेता अनुपम खेर भी शामिल थे। इसलिए भी नहीं कि ये राज बिसारिया की प्रस्तुतियां थीं। ये प्रस्तुतियां यदि स्मृति में हैं तो महज इसलिए कि वहां भरपूर रंगमंच तो था ही, एक ऐसा अनुशासन भी था जिसकी तलाश आज एक बार फिर हिन्दी रंगमंच को हो रही है। थिएटर का अपना अनुशासन।
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अब निर्देशन या राज बिसारिया या रंगकर्मियों के बीच चर्चित ‘राज साहब’ की भूमिका की बात। राज एक ऐसे निर्देशक रहे, प्रस्तुति के हर कोण पर जिनकी उपस्थिति और अनुशासन दिखाई देता था। सेट का एक-एक कोना, प्रस्तुति की लयबद्धता, संगीत के पुराने अंशों का खूबसूरत इस्तेमाल, लाइट्स और शेड्स...। सब पर उनकी मजबूत पकड़। ब्रोशर और कार्ड और टिकट पर भी। एक पूर्ण निर्देशक जो सब कुछ अपनी निगाहों के सामने होते देखना चाहता था। सिर्फ एक माध्यम या संयोजक मात्र होना उन्हें गंवारा नहीं था। शायद यही कारण रहा कि ‘पिता’ और ‘राज’ के मंचन के साथ जब उन्होंने अपनी परिकल्पना का एक अद्भुत फोल्डर मन ही मन प्लान किया तो उसके बारे में कई दिनों तक मंत्रणा होती रही। यह फ़ोल्डर राज की यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित होता। इसके लिए कई लेख हिन्दी के साथ ही अंग्रेजी में भी तैयार हो गए थे लेकिन योजना महज इसलिए परवान न चढ़ सकी कि उसके आवरण को लेकर राज साहब संतुष्ट नहीं हो पा रहे थे और जिस आकार में वह पहुंच रहा था, आर्थिक पहलू भी आड़े आ रही थे। उसमें एक लम्बा लेख मेरा भी था।
अब इसे मेरा दुर्भाग्य कहें या कुछ और... राज बिसारिया की यही अंतिम प्रस्तुतियां थीं जो मैंने देखीं। इसके बाद चाहकर भी कभी उनके नाटक नहीं देख सका। 'अ लांग डेज जर्नी इन टू नाइट्स' भी नहीं, जिसे देखने की बहुत-बहुत इच्छा थी। एक बार फिर लखनऊ से निर्वासन इसका कारण बना। कभी रहा भी तो समय नहीं निकाल पाया। हां, राज हमेशा हमारी बातों में रहे, उनसे मुलाकातें कम भले हो गयी रही हों लेकिन बीच-बीच में होती जरूर रहीं। राज हमेशा लखनऊ रंगमंच को अपनी उपस्थिति से प्रभावित करते रहे। तब भी जब वे सक्रिय होते। तब भी जब वे मंच पर होते। तब भी जब वे नेपथ्य में होते। वह अस्सी वर्ष की उम्र में जिस गर्मजोशी, बातचीत के उसी ‘तंजिया’ अंदाज से मिलते, अट्ठासी साल की उम्र में भी वही गर्मजोशी क़ायम रही। बीती आठ जुलाई को कैफी आज़मी सभागार में हबीब तनवीर और हरिशंकर परसाई स्मृति आयोजनों में उनकी मौजूदगी रही हो या चार जून को देवेन्द्र राज अंकुर के 75 वर्ष पूरे होने पर उतनी ही बुलंद आवाज़ में दिया गया उनका शानदार आत्मीय वक्तव्य या 25 अक्टूबर को उनके घर पर हुई वह लम्बी मुलाकात… राज साहब का मन और मिजाज नहीं बदला था। वह कड़क मिजाज थे, बात में भी व्यवहार में भी। लेकिन दिल में उनके एक बच्चा हमेशा बसता था। यह कोना जब खुलता तो राज अत्यंत कोमल दिखने लगते।
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राज बिसारिया अगर मूड में हों तो उनसे किस्से सुनने का अलग ही मज़ा था। ऐसा ही एक क़िस्सा रंगमंच से उनके रिश्ते की शुरुआत का है, जो उन्होंने कई अवसरों पर रस लेकर सुनाया था। जिसकी नींव लखनऊ विश्वविद्यालय में उनके छात्र जीवन में पड़ी थी, जहां वह बाद में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर बने और फिर एक ऐसी क़द्दावर नाट्य हस्ती, जिनकी दोस्ती प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापकों में से एक सज्जाद ज़हीर से भी थी और इप्टा के संस्थापकों में से एक ख़्वाजा अहमद अब्बास से भी। जिससे मिलने राजकपूर उनके घर गए, सत्यजीत रे सरीखी अनेक शक्सियतें भी। शायद 1953 की बात थी, जब लखनऊ यूनिवर्सिटी में इंडियन साइंस कांग्रेस होनी थी और इसके लिए अंग्रेज़ी विभाग को एक नाटक तैयार करना था। इसका मंचन देश भर से आए वैज्ञानिकों के समक्ष सांस्कृतिक संध्या में होना था। विभाग के एक छात्र ने इस नाटक का हिस्सा बनना चाहा लेकिन इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि वह बहुत दुबला-पतला था, उसकी नाक चपटी थी और स्क्रिप्ट पर भी कमांड नहीं था। लेकिन उसकी जिद ऐसी थी कि उसे नाटक से जोड़ा गया, भले ही पर्दा खींचने के लिए। अलग बात है कि वह दुबला-पतला छात्र जीवन भर रहा तो ‘दुबला-पतला’ ही, लेकिन क़द इतना बड़ा हो गया कि देश ही नहीं विदेश में भी उसकी नाट्य प्रतिभा का लोहा माना गया। उसने देश में ही नहीं, विदेश में भी रंगमंच के छात्रों को समृद्ध किया। उसी शक्स का नाम राज बिसारिया था।
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