बाईस साल के इस युवक की बात गौर से सुनिएः “मुझे नहीं लगता कि योगी ने साढ़े चार साल में कोई भी काम किया है। उन्होंने केवल शहरों, स्टेडियमों के नाम बदले हैं। जनता का पैसा बर्बाद किया है। हमने महामारी के दौरान सरकारी अस्पतालों का हाल देख ही लिया। आदित्यनाथ से कहीं बेहतर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव थे।”
लखनऊ के लोगों का कहना है कि मायावती और अखिलेश यादव के कार्यकाल के दौरान इस राजधानी शहर की शक्ल बदल गई। एक बुजुर्ग कहते हैं कि खिलाफ बोलने वालों को परेशान करना, गंगा में डुबकी लगाना, कुंभ मेले के आयोजन में जनता के पैसे को पानी की तरह बहाना विकास नहीं है।
लेकिन पिछले चार वर्षों के दौरान, साल-दर-साल, इंडिया टुडे (कार्वी इनसाइट की मूड ऑफ दि नेशन सर्वे) ने योगी को देश का सबसे अच्छा मुख्यमंत्री घोषित किया है। हालांकि यह सर्वे बहुत कम लोगों पर किया गया लेकिन इसमें भी योगी की लोकप्रियता 40 फीसदी (2019) से घटकर 18 फीसदी (2021) रह गई है, यानी जिन लोगों की राय मांगी गई, उनमें 80 फीसदी अब योगी को सबसे अच्छा मुख्यमंत्री नहीं मानते।
बीजेपी ने 2017 में यूपी का चुनाव नरेंद्र मोदी, नोटबंदी, आरएसएस और सत्ता-विरोधी भावनाओं की वजह से जीता था। लेकिन 2022 में पार्टी के भीतर ऊहापोह के बावजूद बीजेपी योगी आदित्यनाथ को सामने रखकर चुनाव का सामना करने जा रही है। जाहिर है, पिछली बार बीजेपी को जो बहुमत मिला, उसमें योगी का कोई हाथ नहीं था और उन्हें जो चीज थाली में रखकर मिली, उसका उन्होंने मोल नहीं समझा और एक बड़ा मौका गंवा दिया। शासन का उनका रिकॉर्ड निराशाजनक रहा है। पुलिस ऐसी हो गई है जैसे वह किसी बात के लिए जवाबदेह ही नहीं। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं में कोई सुधार नहीं हुआ। महिलाओं की तो बात ही छोड़िए, कारोबारी, छात्र और एक्टिविस्ट तक महफूज नहीं। पारंपरिक शिल्प नष्ट हो गए हैं। बेरोजगारी बढ़ी है। कोविड का प्रबंधन निहायत लापरवाह तरीके से किया गया। कोई नया संस्थान नहीं बना है और सरकार ने जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा खुद पर, प्रचार पर और बड़े आयोजनों पर बर्बाद किया।
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देश के बाकी हिस्सों की तरह यूपी के लोगों में भी दहशत का माहौल है। लोगों को पता है कि सनकी ‘सरकार’ कुछ भी कर सकती है, किसी भी हद तक जा सकती है, किसी के भी पीछे पुलिस लगा सकती है। लोगों में गहरा असंतोष है। सुर्खियों से परे, शिखर सम्मेलनों और तीखे प्रचार से दूर और सरकार से लाभान्वित होने वाले चंद लाख लोगों के अलावा एक अलग ही उत्तर प्रदेश है।
क्या पिछले पांच वर्षों में कोई बड़ा, नया उद्योग सामने आया है? क्या इस दौरान वाराणसी रेशम जैसे पारंपरिक शिल्प और उद्योगों को नुकसान नहीं हुआ? बाहरी विज्ञापन दाताओं, इवेंट मैनेजरों, आपूर्तिकर्ताओं और ठेकेदारों, आरएसएस से जुड़े गैर सरकारी संगठनों और मुख्यधारा के मीडिया जरूर खुश हैं क्योंकि उन्हें अच्छा-खासा फायदा हुआ है। फिर भी, यूपी का सामाजिक सूचकांकों पर रिकॉर्ड पश्चिम बंगाल से खराब ही है जहां योगी ने ममता बनर्जी के खिलाफ प्रचार किया था।
लखीमपुर खीरी पर पूरी तरह से चुप्पी साधे रहने से बीजेपी और आरएसएस की घबराहट का पता चलता है। उन्होंने किसानों को बांटने और बदनाम करने की कोशिश की थी और उन्हें भरोसा था कि पश्चिमी यूपी के कुछ किसानों को अपने पाले में कर लेंगे। लेकिन लखीमपुर खीरी की हिंसा ने उन्हें बैकफुट पर ला दिया है। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा की जीप से कुचले गए प्रत्येक किसान को यूपी सरकार ने जिस जल्दबाजी के साथ 45-45 लाख रुपये के मुआवजे की घोषणा की, उससे पता चलता है कि वे आनन-फानन मामले को ठंडा करना चाहते थे। उन्हें पता है कि मामला जितना खिंचेगा, उनके लिए समस्या उतनी ही बढ़ेगी और वे इसका जोखिम नहीं उठा सकते।
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बीजेपी ने पिछला चुनाव इस आधार पर जीता था कि वह कथित ‘जंगलराज’ को खत्म करेगी, मुस्लिम तुष्टीकरण बंद करेगी और अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाएगी। इस बार अगर बीजेपी के ये मुद्दे कारगर हों भी तो इनकी धार वैसी तो नहीं रही। इसलिए हैरानी नहीं है कि इन दिनों हर जनसभा में योगी झूठ की गोद में जा छिपते हैं। योगी का दावा है कि उनके मुख्यमंत्री बनने से पहले, राज्य सरकार जन्माष्टमी या दुर्गा पूजा आयोजित करने से बचती थी। यही उन्होंने पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार के दौरान ममता बनर्जी पर भी आरोप लगाया था। अब वह पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर मुसलमानों का तुष्टीकरण का आरोप लगाते हैं। चुनाव जैसे-जैसे करीब आता जाएगा, इस तरह के आरोपों में और तेजी आने की ही उम्मीद है।
इस बार बीजेपी का मुख्य मुद्दा उत्तर प्रदेश में ‘सनातन धर्म’ की बहाली है। छोटे-बड़े हिंदू मंदिरों-मठों को खुले हाथ से अनुदान और पैसे दिए जा रहे हैं। राज्य पर्यटन विभाग के बजट का बड़ा हिस्सा (2015-16 में 272 करोड़ रुपये और इस साल 1,000 करोड़ रुपये) सनातन संस्कृति के विकास और रामायण सर्किट, ब्रज सर्किट, बौद्ध सर्किट, आध्यात्मिक सर्किट और विरासत सर्किट पर खर्च किया गया है। योगीराज में राज्य के हर मंदिर ट्रस्ट, मठ और आश्रम को फायदा हुआ है। इनके महंत करोड़ों की महंगी कारों में घूमते हैं। पिछले महीने कथित तौर पर आत्महत्या करने वाले अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष आचार्य नरेन्द्र गिरि के बारे में माना जाता है कि उनके पास 20 से अधिक लक्जरी कारों का बेड़ा था। ज्यादातर ट्रस्ट वाणिज्यिक संपत्ति और शैक्षणिक संस्थानों को नियंत्रित करते हैं। मुख्यमंत्री का गोरखपुर में अपना मठ भी मिनी साम्राज्य ही है।
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बहरहाल, बीजेपी को पता है कि जमीन पर उसकी हालत बुरी है। पार्टी को पंचायत चुनाव में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा, यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी समेत अयोध्या और मथुरा में भी जिन्हें बीजेपी का गढ़ माना जाता है। 3,050 जिला परिषद सीटों में से बीजेपी समर्थित 750 उम्मीदवार ही जीत सके। परिणाम से बीजेपी और आरएसएस सकते में आ गए और आरएसएस राष्ट्रीय महासचिव दत्तात्रेय होसबोले और बीजेपी महासचिव बी.एल. संतोष तब से लखनऊ का कई चक्कर लगा चुके हैं। मंत्रियों और बीजेपी पदाधिकारियों में अंदरूनी कलह की बात छिपी नहीं है। यहां तक कि बीजेपी विधायक भी ‘महाराज’ पर राजपूतों की तरफदारी का आरोप लगाते हैं, तो कुछ लोग उन्हें ब्राह्मण और पिछड़ा विरोधी तक बताते हैं। जातीय समीकरण को दुरुस्त करने के लिए ही अजय मिश्रा टेनी को फरवरी में केन्द्रीय कैबिनेट में शामिल किया गया और योगी ने भी अपने कैबिनेट में एक ब्राह्मण, तीन पिछड़ों और तीन दलितों को शामिल किया। लेकिन क्या इतना काफी है? लगता तो नहीं। अगर बीजेपी कम अंतर से बहुमत पाती है, तब भी महाराज चैन की नींद नहीं सो सकते।
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