हमारे स्वतंत्राता आंदोलन के अनेक प्रेरणादायक दिनों में 13 सितंबर 1929 का विशेष महत्त्व है। इस शहादत के समय यतीन्द्र नाथ दास की आयु मात्रा 25 वर्ष थी। उस समय देश के लाखों लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए उमड़ पड़े थे। इन श्रद्धांलि देने वालों में सुभाष चंद्र बोस, रवीन्द्रनाथ टैगोर, गणेश शंकर विद्यसर्थी, जवाहरलाल व कमला नेहरू भी थे।
यतीन्द्र नाथ दास ने जिस निष्ठा और साहस से स्वतंत्राता आंदोलन में योगदान दिया वह अद्वितीय थी। मात्रा 17 वर्ष की आयु में वह बंगाल के क्रान्तिकारी आंदोलन में भी भागीदारी कर चुके थे और गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भी अपना योगदन दे चुके थे। इसके साथ ही वे स्कूल और कालेज में प्रतिभाशाली छात्रा भी माने जाते थे।
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जब वे बीए के छात्रा थे तब पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर मैमनसिंह जेल में भेज दिया। यहां आते ही उन्होंने राजनैतिक कैदियों की चिन्ताजनक हालत देखते हुए इसमें सुधार के लिए अनशन आरंभ कर दिया। इसका इतना असर हुआ कि जेल सुपरिटेंडेंट ने खेद प्रकट करते हुए कुछ सुधार स्वीकार कर लिए।
जेल से रिहा होकर यतीन्द्र दास भगत सिंह से मिले और उनकी हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में प्रवेश प्राप्त किया। 1929 में गिरफ्तारी के बाद वे दोनों अन्य साथियों के साथ लाहौर जेल में पहुंचे। यहां उन पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाते थे और उन्हें जरूरी सुविधाओं से वंचित रखा जाता था। इन स्वतंत्राता सेनानियों की यह व्यापक सोच थी कि जब तक स्वतंत्राता समर चलेगा तब तब तक हमारे जैसे स्वतंत्राता सेनानी जेल में आते ही रहेंगे। अतः ऐसे राजनैतिक और सामाजिक संघर्ष के कारण जेल में आए कैदियों के उचित अधिकारों और सुविधाओं के लिए संघर्ष करना जरूरी है ताकि जो निष्ठावान, साहसी और देश के लिए मर-मिटने वाले लोग जेल में आते हैं उनके स्वास्थ्य को तबाह न किया जा सके और साथ में उन्हें पढ़ने-लिखने, अपने मुकदमे की ठीक से तैयारी करने, देशवासियों के नाम संदेश भेजने के अवसर भी प्राप्त हो सकें।
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इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए वर्ष 1929 में भगत सिंह, यतीन्द्र नाथ और अनेक अन्य साथियों ने लाहौर जेल में राजनीतिक कैदियों के अधिकारों के लिए उपवास किया। इस उपवास को तोड़ने के लिए अधिकारियों ने अनके तरह के जोर-जुल्म किए। जबरदस्ती नली से दूध पिलाने के प्रयास बहुत क्रूरता से किए, पानी के मटकों में थोड़ा सा दूध मिला दिया गया ताकि प्यास बुझाने के लिए जैसे ही अनशन पर रहे स्वतंत्राता सेनानी पानी मुंह से लगाएं वैसे ही इसे दूध पीना मान लिया जाए और उपवास को टूटा हुआ घोषित किया जा सके। पर हर कष्ट सहने को तैयार अनशनकारियों ने दूध मिले पानी के मटके ही फोड़ दिए।
यतीन्द्र नाथ का स्वास्थ्य बहुत तेजी से गिर रहा था उधर लाहौर में व अनेक अन्य स्थानों पर लोग अनशन के समर्थन में प्रदर्शनों व सभाओं का आयोजन करने लगे थे। कांग्रेस, अकाली दल, अहरार दल व नौजवान सभा के नेताओं ने अनशन के समर्थन में गिरफ्रतारियां दीं। हजारों लोग सड़क पर आए। 21 जुलाई 1929 को देश भर में भगतसिंह-दत्त दिवस के रूप में मनाया गया।
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63 दिनों के निरंतर उपवास के बाद 13 सितंबर 1929 को यतीन्द्र दास का देहांत हो गया। उनकी अंतिम यात्रा में लाहौर में 50,000 से अधिक लोग शामिल हुए। उनके शव को कलकत्ता ट्रेन से ले जाया गया तो कानपुर, इलाहाबाद और विभिन्न स्टेशनों पर हजारों लोग श्रद्वांजलि के लिए पंहुचे थे। कलकत्ता में अंतिम यात्रा का नेतृत्व सुभाष चंद्र बोस ने किया और लगभग 7 लाख लोग श्रद्धांजलि और अंतिम यात्रा में शामिल हुए।
अन्य साथियों के उपवास इसके बाद भी चलते रहे जब तक कि अपनी क्रूर जिद पर जुड़ी साम्राज्यवादी सरकार ने भी कुछ महत्त्वपूर्ण मांगें स्वीकार नहीं कर लीं। फिर भी इस अनशन और इसके मुद्दों पर देश का ध्यान सबसे अधिक यतीन्द्र नाथ दास की शहादत के समय ही केन्द्रित हुआ। अतः आज भी कुछ संगठन 13 सितंबर को राजनीतिक बंदी अधिकार दिवस के रूप में मनाते हैं।
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इस तरह विश्व में राजनैतिक बंदियों के अधिकारों का जो संघर्ष है उसमें यतीन्द्र नाथ दास के प्रयासों को प्रथम पंक्ति में रखा जाता है। 25 वर्ष की अल्पायु जीने वाले इस युवक ने दो बार मैमनसिंह और लाहौर जेलों में स्वयं राजनैतिक बंदी के रूप में रहते हुए राजनीतिक कैदियों के अधिकारों के लिए अनशन किया और दोनों बार इसका व्यापक असर हुआ। इसी प्रयास में उन्होंने शहादत प्राप्त की। दूसरे अनशन के दौरान बहुत दिनों तक उनका शरीर इतनी क्षतिग्रस्त स्थिति में था कि देखने-सुनने वाले हैरान थे कि क्या ऐसी हालत में भी कोई अनशन कर सकता है। उनके साहस और बलिदान को देश कभी भूल नहीं सकता है। विश्व में जब भी राजनीतिक बंदियों के अधिकारों की चर्चा होगी तो यतीन्द्र नाथ दास को भी याद किया जाएगा। यही वजह है कि उनके शहादत दिवस को राजनीतिक बंदी दिवस के रूप में मनाने को व्यापक समर्थन मिल रहा है।
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