“एक चुटकी सिन्दूर की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबु... ईश्वर का आशीर्वाद होता है एक चुटकी सिन्दूर... सुहागन के सिर का ताज होता है एक चुटकी सिन्दूर... हर औरत का ख्वाब होता है एक चुटकी सिन्दूर!”
फिल्म ‘ओम शांति ओम’ फिल्म का ये संवाद जितना मशहूर हुआ था, उतना ही हर हिंदी कॉमेडी शो और परिस्थिती में इसका मजाक भी उड़ा था। फिल्मी मेलोड्रामा को दरकिनार करें तो भी ये सवाल दिमाग में आता है कि क्या आज की शहरी जिंदगी में सिन्दूर और सुहाग के तमाम चिन्हों की कोई अहमियत बची है? क्या रोजमर्रा की जिंदगी में मर्द और औरत सिन्दूर, पायल, मंगलसूत्र और बिछिये वगैरह पर इतना ध्यान देते हैं, जिन्हें इतना अहम दर्जा दिया जाता है कि इनके लिए औरतें अपनी जिंदगी कुर्बान भी कर सकती हैं तो किसी की जिंदगी छीन भी सकती हैं?
दूसरे धर्मों से अलग (विवादों से बचने के लिए संस्कृति शब्द का इस्तेमाल बेहतर होगा) हिंदू धर्म में विवाह एक अनुबंध नहीं बल्कि ‘सात जन्मों का पवित्र बंधन’ होता है। बहरहाल, इस रिश्ते को क्या होना चाहिए, इस पर बात ना करते हुए हमें इस पर ध्यान देना चाहिये कि विवाह दरअसल है क्या? भारतीय (खासकर हिंदू) जीवन शैली में शादी बहुत ही महत्वपूर्ण और भड़कीला मामला होता है। चाहे कितना भी हास्यास्पद लगे, लेकिन दूल्हा एक छोटे-मोटे राजकुमार की तरह सज-धज कर (कुछ समुदायों में) तलवार लटका कर घोड़े पर विराजमान होता है। दुल्हन भी ऐसे तैयार होती है, मानो खुद को तमाम जेवरात और साजो-सामान से सजाने और सुन्दर लगने का यह आखिरी मौका हो। और जैसा कि हम सभी जानते हैं, विवाह के बाद जीवन उतना शानदार, सरल और सुविधापूर्ण नहीं होता, जितना की आमतौर पर रोमांटिक फिल्मी गानों और कहानियों में बताया जाता है। लेकिन, महिलाओं के लिए ऐसा लगता है कि मानो शादी ढेर सारे जेवर, मेकअप और भड़कीली साड़ियां या वेशभूषाएं पहनने का लाइसेंस होता है।
इन आभूषणों में कुछ ऐसे होते हैं जिनका कुछ खास महत्व होता है - मंगलसूत्र, बिंदी, सिन्दूर, बिछिया, पायल आदि। पंजाबियों में चूड़े का बहुत महत्त्व होता है। हर इलाके में ये सुहाग के प्रतीक अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन शादीशुदा औरतें इन्हें लगन से पहनती हैं, तो क्या 21वीं सदी की भारतीय महिला वाकई इन सुहाग के प्रतीकों को इसलिए पहनती हैं कि वे इनके जरिये अपने सुहाग यानी पति की रक्षा कर सकें?
सभी वर्गों और उम्र की ज्यादातर औरतों ने कहा कि वे ये सब किसी मजबूरी के तहत या भावनाओं के तहत नहीं पहनतीं कि इससे उनके पति की रक्षा हो सकेगी। मंजू भार्गव का कहना है, “मेरे पति जानते हैं कि मैं उनकी पत्नी हूं, फिर दिखावे की क्या जरुरत? लेकिन कुछ खास मौकों या पूजा के अवसर पर मैं जेवर पहनती हूं और सुहाग के सारे प्रतीक भी।”
30 साल की रिशिका सिंह का कहना है, “उनकी त्वचा संवेदनशील है। इसलिए वे सिन्दूर नहीं लगा सकतीं और चूड़ियां नहीं पहन सकतीं। और आजकल तो इन सुहाग की निशानियों पर कोई भरोसा भी नहीं करता। अपने पति के लिए अपना प्यार और वफादारी साबित करने के लिए मुझे इन सबकी कोई जरुरत नहीं।”
एक युवा कामकाजी महिला पिंकी का कहना है कि उनका बच्चा अभी बहुत छोटा है। इसलिए वे चूड़ियां, चूड़ा और मंगलसूत्र वगैरह पहनकर सब कामकाज नहीं कर सकतीं। मंगलसूत्र और चूड़ियों से उन्हें चोट भी लग गयी थी। नतीजतन, उन्होंने ये सब पहनना छोड़ दिया। उनका कहना है, “अगर आपका परिवार खुश है तो आपके पति का जीवन अपने आप खुशियों से भरा होगा।”
वरिष्ठ कामकाजी महिला मिनाक्षी का कहती हैं, “काम के सिलसिले में उन्हें काफी यात्राएं करनी पड़ती हैं। इसीलिए, वे पायल, मंगलसूत्र, बिछिया वगैरह पहनने से बचती हैं, क्योंकि इनके चोरी हो जाने का खतरा भी रहता है। लेकिन हां, किसी समारोह में उन्हें ये सब जेवर पहन कर तैयार होना अच्छा लगता है।”
महिला किसान रमा का कहना है कि पहले वो किसान थीं, लेकिन आज वे घरों में कामकाज करके गुजर बसर कर रही हैं। वे सुहाग का कोई चिन्ह नहीं पहनतीं। ना ही उन्होंने अपनी बहुओं पर यह बात थोपी। वह कहती हैं, “लेकिन जब भी कोई त्यौहार या पूजा होती है, तो मैं चाहती हूं कि वे ये सब पहनें। क्योंकि ये सब पहनना शुभ होता है।”
कुछ महिलाएं ये सारे जेवर और चिन्ह तभी पहनती हैं जब वे अपने गांव या ससुराल जाती हैं। क्योंकि बड़े-बुजुर्गों के कुछ ख्यालात होते हैं और उनसे बहस करना फिजूल है, इसलिए उनके सामने हम वैसे ही व्यवहार करते हैं जैसा वे चाहते हैं। कुछ ने तो इन सुहाग चिन्हों की वैज्ञानिक अहमियत पर भी प्रकाश डालना चाहा, लेकिन जब ये कहा गया की ये चीजें महज स्त्रियों पर पुरुष के स्वामित्व का प्रतीक हैं, तो वे इस बात से सहमत हो गए कि इन चिन्हों को जबरन औरतों पर नहीं थोपा जाना चाहिए। ज्यादातर शहरी मर्द और औरत यही सोचते हैं कि तीज-त्यौहार पर सुहाग की निशानियां पहनना उचित है, वरना रोजाना की जिंदगी में इनका कोई फायदा नहीं।
जो बातचीत हमने अगंभीर तौर पर ये जानने के लिए शुरू की थी कि लोग इन सुहाग के प्रतीकों के बारे में क्या सोचते हैं, वो आखिरकार एक गंभीर सवाल पर आकर ठिठक गयी - लगभग सभी मर्द और औरतें धार्मिक मौकों पर इन प्रतीकों को पहनने के पक्ष में क्यों हैं, जबकि रोजाना की जिंदगी में वे लगभग इन प्रतीक चिन्हों को छोड़ चुके हैं? और ये बातचीत भी सिर्फ शहरी लोगों तक ही सीमित थी, ग्रामीण तबके को तो हमने छुआ भी नहीं!
यह विरोधाभास साफ तौर पर यही जाहिर करता है कि जिन परंपराओं और चलन को हम गैरजरूरी समझते हैं, हम उन्हें त्यागने में भी डरते हैं। क्योंकि हमारे सामाजिक अवचेतन में महिलाओं के एक वस्तु होने से जुडी जो धार्मिकता है, वह बहुत गहरे पैठी हुई है। और जब तक हम इस धार्मिकता (अंधविश्वास कहना अधिक उपयुक्त होगा) से पिंड नहीं छुड़ाते, तब तक ‘महिला दिवस’ मनाना या यह दावा भी करना की हम नारी मुक्ति के आन्दोलन में कुछ पड़ाव तय कर पाए हैं, उतना ही हास्यास्पद होगा, जितना इन सुहाग की निशानियों से जुडी आस्था है।
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