छोटे आकार वाली खूबसूरत गौरैया का जिक्र आते ही बचपन याद आ जाता है। हमारे जीवन का अकेला पक्षी जिसे जरा सी भी जुगत लगाकर बच्चा भी पकड़ लेता, उसके साथ खेलता और फिर उड़ा देता। हमने कितनी ही दोपहरी बांस की डलिया में रस्सी बांध, उसके नीचे दाने छिड़क दूर बैठ गौरैया को निहारते-पकड़ते बिताई हैं। फिर उन्हें हवा में उड़ाकर अद्भुत सुख का अहसास भी लिया है। कई बार उसके पंखों पर रंग डाल देते और फिर दूर से देख हुलसकर कहते देखो, वह मेरी वाली गौरैया है!
वही गौरैया अब हमारे आसपास उस तरह नहीं दिखती। और अगर कहीं दिख जाती है तो हम बस रोमांचित होकर उसे देखने, उसकी तस्वीर उतारने लगते हैं। लेकिन क्या हमारे मन में कहीं यह सवाल भी कभी उठता है कि हमारी नई पीढ़ी इस रोमांच से वंचित क्यों है? वह किस्सों में सिमटती जा रही है। ऐसा क्यों हुआ? अब यह बात भी पुरानी हो चुकी है कि कभी इसका ठिकाना, हमारे घर-आंगन हुआ करते थे। लेकिन पर्यावरण को ठेंगा दिखा, कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होते शहर और फिर गांव तक पहुंची इस बीमारी ने इन्हें हमसे दूर कर दिया।
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अमूमन गौरैया हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, सिंड स्पैरो, रसेट स्पैरो, डेड सी स्पैरो और ट्री स्पैरो नाम से जानी-पहचानी जाती है। इनमें हाउस स्पैरो को घरेलू गौरैया कहा जाता है। यह गांव और शहरों में पाई जाती हैं। इंसान ने जहां भी घर बनाया, देर सबेर-गौरैया का जोड़ा वहां रहने पहुंच ही जाता। यह छोटे पास्ता परिवार का पक्षी है। लेकिन चिंतनीय यह है कि विश्व भर में घर-आंगन में चहकने-फुदकने वाली इस छोटी सी चिड़िया की आबादी में गंभीर गिरावट आई है।
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर एवं अदर्स’ के अनुसार, गौरैया की कई प्रजातियों को जनसंख्या में गिरावट के कारण ‘निकट संकटग्रस्त’ या ‘कमजोर’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
गौरैया की आबादी में कमी के पीछे कई कारण हैं जिन पर लगातार शोध हो रहे हैं। बढ़ता आवासीय संकट, आहार की कमी, खेतों में कीटनाशक का व्यापक प्रयोग, इंसानी जीवनशैली में बदलाव, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, शिकार, बीमारी और मोबाइल फोन टावर से निकलने वाले रेडिएशन को इसके लिए प्रमुखत: जिम्मेदार बताया जाता रहा है। बढ़ता आवासीय संकट तो सबसे बड़ा कारण बनकर उभरा है।
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गौरैया प्रजनन के अनुकूल रिहाइश का न रह जाना इसकी घटती संख्या का प्रमुख कारण माना जा रहा है। भवन निर्माण में इस्तेमाल होने वाली नई तकनीक, मेटेरियल और घरों के डिजाइन ने भी इसमें भूमिका निभाई। बात सिर्फ इतनी सी नहीं है कि अब घरों में खपरैल और फूस का इस्तेमाल नहीं होता। असल बात यह है कि अब घरों में वैसी कोई जगह ही नहीं बची जहां यह अपना ठिकाना बना सके। हमने बरामदे बनाए भी तो वहां कबूतरों को दूर रखने के लिए जाली (पिजन नेट) लगवा दी या शीशे मढ़वा दिए। नतीजतन गौरैया का रास्ता भी रुक गया और उसकी उपस्थिति प्रभावित हुई। कई बार तो अंदर आने के लिए यह उस शीशे में चोंच मार-मारकर जख्मी होती भी दिखी है।
अब तो गांवों में भी खपरैल/फूस के आवासों के तेजी से कंक्रीट के ढांचे में तब्दील होने से तस्वीर और बदल गई है। शहरों में तो इनके प्रजनन के अनुकूल आवास नहीं के बराबर हैं। यही वजह है कि एक ही शहर के कुछ इलाकों में ये दिखती हैं, कुछ में बिलकुल नहीं। हालांकि गौरैया संरक्षण से जुड़े लोग और समूह ‘कृत्रिम घर’ (लकड़ी या दफ्ती के घरौंदे) बना कर गौरैया की वापसी की मुहिम में लगे हुए हैं और इसके बेहतर नतीजे भी सामने आए हैं। ऐसे कृत्रिम घोंसलानुमा घर लोग अपनी बालकनी में लगा भी रहे हैं और गौरैया इसमें अंडे देने के लिए आ भी रही है।
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शहरीकरण, कृषि और औद्योगिक विकास ने इसके आवास खत्म किए, इसमें संदेह नहीं। खुले में आहार की कमी, खेतों में कीटनाशक का बेतरह बढ़ता प्रयोग भी इनका दुश्मन साबित हुआ है। कीटनाशकों के इस्तेमाल का सीधा असर यह हुआ कि इसने अप्रत्यक्ष रूप से उनके खाद्य स्रोतों की उपलब्धता घटाई और उनका भोजन उनसे दूर किया। कई बार तो ऐसे खेतों में गौरैया मृत पाई गईं कि उसने उस खेत से कुछ खाया था जिसपर कीटनाशक का असर गहरा था। शहरों में झुरमुट वाले पेड़ों, नीबू, अनार, शमी आदि के पेड़ों की घटती संख्या और ध्वनि प्रदूषण का भी असर पड़ा। गौरैया इंसानों की कई तरह की नई बीमारियों से भी प्रभावित हुई जिनमें एवियन इन्फ्लूएंजा, वेस्ट नाइल वायरस और साल्मोनेलोसिस खास हैं।
गौरैया के लिए जलवायु परिवर्तन एक और बड़ा खतरा है। यह तापमान और वर्षा में परिवर्तन के प्रति संवेदनशील होती हैं और उनके प्रजनन और प्रवास के पैटर्न को चरम मौसम की घटनाओं से बाधित किया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन उनके खाद्य स्रोतों के वितरण और प्रचुरता में भी बदलाव ला रहा है जिसने उनकी आबादी पर असर डाला है।
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गौरैया संरक्षण से जुड़े लोगों की नजर में तो मोबाइल फोन टावर से निकलने वाला रेडिएशन गौरैया के लिए जानलेवा साबित हुआ है, यह अलग बात है कि स्टेट ऑफ इंडियंस बर्ड्स 2020- रेंज, ट्रेंड्स और कंजर्वेशन स्टेट्स इससे इंकार करता है। उसने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ‘गौरैया की संख्या में कमी के तथ्य में मोबाइल फोन टावर का जो तर्क दिया जाता रहा है, उसे लेकर कोई पुख्ता सबूत अभी तक नहीं हैं जिससे यह पता चले कि रेडिएशन से गौरैया के प्रजनन पर प्रभाव पड़ता हो?’ लेकिन इसी रिपोर्ट में गौरैया की संख्या में कमी के कारणों में आहार, खासकर कीड़ों की हो रही भारी कमी और कीटनाशकों के इस्तेमाल को अहम बताया गया है।
पिछले कुछ वर्षों के आंकड़े बताते हैं कि देश के छह मेट्रो शहरों- बेंगलुरु, चेन्नई, दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता और मुंबई में इनकी संख्या में कमी देखी गई है लेकिन बाकी के शहरों में इसकी संख्या स्थिर देखी जा रही है, यानी जहां जितना विकास, गौरैया का उतना ही विनाश। ऐसे में हम यह तो जरूर कह सकते हैं कि भारत में यह विलुप्त नहीं है। लेकिन यह कोई मुगालता पालने जैसी बात भी नहीं। स्थिति इतनी भी ठीक नहीं है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि पिछले 25 साल से गौरैया की संख्या भारत में स्थिर बनी हुई है। अच्छी बात है कि इसके संरक्षण के प्रति जागरूकता अभियान को गति देते हुए दिल्ली सरकार ने 2012 और बिहार सरकार ने 2013 गौरैया को राजकीय पक्षी घोषित कर रखा है जिसके व्यापक अनुकरण की जरूरत है।
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हर वर्ष 20 मार्च को ‘विश्व गौरैया दिवस’ के बहाने इसके संरक्षण का सवाल उठता है लेकिन फिर ऐसा कुछ व्यवस्थित रूप से नहीं होता जो असरकारी हो। हम यह भी भूल जाते हैं कि इसका संरक्षण इतना जरूरी क्यों है? दरअसल, गौरैया अगर इंसान की दोस्त है तो किसानों की मददगार भी है। गौरैया इंसान के साथ रहते हुए उन्हें अलग तरह का सुख-शांति देती हैं। खेत-खलिहान-फल-फूल-सब्जी में लगने वाले कीड़े-मकोड़ों से फसलों की रक्षा करती है। लेकिन उसी इंसान ने इसकी अहमियत नहीं समझी। बस, इंटरनेट और सोशल मीडिया पर इनकी फोटो देख रोमांचित होता रहा या आहें भरता रहा।
गौरैया संरक्षण की शुरुआत सबसे पहले भारत के महाराष्ट्र से हुई। गौरैया, गिद्ध के बाद सबसे संकट ग्रस्त पक्षी में से है। बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी से जुड़े प्रसिद्ध पर्यावरणविद मोहम्मद ई दिलावर ने 2008 में गौरैया संरक्षण मुहिम की शुरुआत की थी। आज यह मुहिम दुनिया के 50 से अधिक देशों तक पहुंच गयी है। वैसे, गौरैया से विश्व को प्रथम परिचय 1851 में अमेरिका के ब्रूकलिन इंस्टीट्यूट ने कराया था।
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गौरैया कई पारिस्थितिक तंत्रों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और बीजों के फैलाव और कीट नियंत्रण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। गौरैया संरक्षण का अलख राजकीय पक्षी घोषित राज्य दिल्ली और बिहार सहित पूरे भारत में जोर-शोर से चल रहा है। यही वजह है कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक गौरैया अब देखी जाने लगी है। पिछले कई सालों से गौरैया संरक्षण में लगे लोग, सरकारी-गैर सरकारी संस्थान, एनजीओ सहित आम और खास लोग, गौरैया फोटो प्रदर्शनी, पेंटिंग प्रतियोगिता, दाना घर, घोंसला, पानी का बर्तन वितरण के साथ साथ जागरूकता अभियान से गौरैया की वापसी मुहिम में सक्रिय हैं। देशव्यापी जागरूकता से शहर-शहर, गांव-गांव से गायब हो चुकी गौरैया की वापसी होती दिख भी रही है। लोगों ने यह पहल दाना-पानी रखने, घोंसला (बॉक्स) लगाने और नन्ही सी जान गौरैया को थोड़ा सा प्यार देकर पूरा किया है। गौरैया ने भी वायदा निभाया है और लोगों के घर-आंगन, बालकनी, छत पर आकर अपनी चहचाहट से अपनी वापसी का अहसास करा दिया है।
इस मुहिम का एक फायदा यह भी हुआ कि दूसरी चिड़ियों का भी संरक्षण होने लगा। दाना पानी रखने और बॉक्स लगाने से दूसरी चिड़िया भी आने-दिखने लगीं हैं। इस और ऐसी मुहिम से बड़े पैमाने पर जुड़ने की जरूरत है। यकीन मानिए जिस दिन आप अपने रखे बर्तन से उनको पानी पीते, अपने लगाए पेड़-बॉक्स पर गौरैया और उसके बच्चों को चहकते देखेंगे तो आत्मिक शांति का अनुभव करेंगे। तो आइए, गौरैया को बचाएं, उसके लिए दाना-पानी के साथ अपनी बालकनी और लॉन में जगह बनाएं। लेकिन उससे पहले जरूरी है कि उसे अपने दिल में बसाएं।
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