एक दिन पहले ही हिंदी के वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह का देहांत हुआ और आज विश्व कविता दिवस है। कविता दिवस के अवसर पर केदारनाथ सिंह के लिखे हुए कविता से शुरूआत करते हैं:
मैं पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूं आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूं वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है
यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूं।
क्या कविता लिखने से वाकई कुछ होता है? इस ख्याल से करीब-करीब सभी कवि-शायर गाहे-बगाहे रूबरू होते ही होंगे। तभी तो लगभग सभी लेखक इस रचनात्मक सवाल से जूझते हैं और फिर इसी बेचैनी और परेशानी को शब्दों में उतार कर सांझा भी करते हैं।
आज के मसरूफ जमाने में जब इंसानी रिश्ते दिखावे का शिकार हो रहे है और रचनात्मकता को सोशल मीडिया का झटपट मंच मिल गया है, कविता कोई पढ़ता है क्या? कोई सही मायने में कविता लिखता है क्या?
जमाने से कवियों और शायरों को अपने काम को लेकर सवालात का सामना करना पड़ता है कि भाई क्या करते हैं आप?
‘जी लेखक हूं।’
नहीं वो तो ठीक है, मगर करते क्या हैं आप?
यानी लेखन तो कोई काम ही नहीं, कविता लिखना कभी कोई पेशा नहीं रहा, कविताएं पेट भी नहीं भर्ती, नौकरी भी नहीं देतीं, प्रोफेशनल तरक्की तो कतई नहीं। फिर आखिर क्यों लिखे कोई कविता? क्यों पढ़े कविता?
मगर जरा ठहरिये। क्या इंसानी जिन्दगी सिर्फ इन सवालों के घेरे में ही बंद है? क्या हमारे एहसासात महज एक रूटीन जिन्दगी में कैद हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं?
तो फिर क्यों इंतजार रहता है कवियों को एक बेहतरीन कविता का?
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन
जिस्म जब खत्म हो और रूह को जब सांस आए
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको। (गुलज़ार)
किसी प्रेम करने वाले से पूछिए, वह जरूर बताएगा किस कदर बेचैन होकर वह ढूंढता है उन कविताओं को जो उसके जज्बात को ठीक ठीक जाहिर कर सके, या फिर खुद किस शिद्दत से कोशिश करता है एक कविता में अपनी भावनाओं को उकेरने की।
अपनी जिन्दगी की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए जूझते, अपने हकों के लिए लड़ने वाले लामबंद किसी शख्स से पूछिए, उम्मीद का दामन थामे वह भी कुछ यही कहेगा,
हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल अब भी चलता हैं चीख़ती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, प्रश्न नाचता है
प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी..(पाश)
या फिर रिश्तों में चोट खाए हुए किसी उदास व्यक्ति से पूछिए, वो गम का मारा भी कुछ यूं ही कहेगा:
इंशा जी उठो अब कूच करो इस शहर में दिल को लगाना क्या।
वहशी को सुकूं से क्या मतलब जोगी का शहर में ठिकाना क्या। (इब्ने इंशा)
यानी हमारी सारी इंसानी संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए हम कविताओं की तरफ रुख करते हैं। तमाम सामाजिक, राजनीतिक और निजी परेशानियों, दुष्टताओं और उधेड़बुन के बीच हमें हमारे अच्छेपन और इंसानियत का एहसास कराती हैं कविताएं। इन्हें अमूमन न कोई खरीदता है, न इनकी या इन्हें लिखने वालों की कद्र करता है, बल्कि एक बड़ा तबका तो कवियों को ‘लूजर’ करार देता है। लेकिन फिर भी ‘जिंदा’ होने को शिद्दत से महसूस करने के लिए हर हाल में कविताओं को ही पढ़ा जाता है, ढूंढ़ा जाता है और लिखा भी जाता है।
जरा उन लोगों से पूछिए जिन्हें अपने ही देश में बोलने-लिखने की आजादी नहीं, वो बताएंगे कि कविताएं उनके लिए कितनी अहम हैं। ‘मता ए लौहो कलम छिन गयी तो क्या ग़म है/ कि खूने दिल में डुबो ली हैं उंगलियाँ मैंने!’
चाहें ईश्वर की तलाश का जुनून हो, या अपने प्रेमी से मिलने की ललक, गम-ए-रोजगार हो या गम-ए-दुनिया- कविता आपको जीने का उत्साह, उम्मीद और ऊर्जा देती है, आपके बेहद निजी एहसासात को शब्दों में ढाल कर एक किस्म का ‘रिलीफ’ देती है। आप इनकी कितनी भी उपेक्षा कर लें, लेकिन वे हमेशा हैं वहां, जहां भी आपको इनकी जरुरत हो।
इसलिए, एक ही दिन ‘कविता दिवस’ नहीं होता जैसे एक ही दिन ‘प्रेम’ या ‘मृत्यु’ का नहीं होता, हमारी सांसों की तरह बिना एहसास दिलाये हर पल हर रोज हमारे साथ, हमारे भीतर और हमारे बीच जीती हैं कविताएं, खोयी हुयी चीजों/ बीती हुयी घटनाओं की तरह।
चीज़ें खो जाती हैं लेकिन जगहें बनी रहती हैं
जीवन भर साथ चलती रहती हैं...
घटनाएं विलीन हो जाती हैं
लेकिन वे जगहें बनी रहती हैं जहां वे घटित हुई थीं
वे जमा होती जाती हैं साथ-साथ चलतीं हैं
याद दिलाती हुईं कि हमें क्या भूल गया हैं और हमने क्या खो दिया है।(मंगलेश डबराल)
Published: 21 Mar 2018, 7:43 PM IST
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Published: 21 Mar 2018, 7:43 PM IST