ए आर रहमान का गाया वंदे मातरम् का संस्करण, जो उपरोक्त लाइनों से शुरू होता है, 2020 में शाहीन बाग की महिलाओं ने देश की नजरों के सामने साकार कर दिया है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस देश को हर उम्र और जाति-धर्म, खासकर उम्रदराज पर्दानशीन महिलाओं का अभिनंदन करना चाहिए जो कड़कड़ाती ठंड के बीच सरकारी साम दाम दंड भेद सब को झुठलाती हुई नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में अपने शांतिपूर्ण मोर्चे पर डटी रहीं हैं।
साबरमती आश्रम जाकर चरखा चलाते हुए फोटू खिंचवाने वाले राजनेताओं की कतई अनदेखी करते हुए इन मामूली गिरस्तिनों, माताओं, बहिनों और नानी-दादियों ने देश को फिर एकबार गांधी के सविनय अवज्ञा, सत्याग्रह, और अहिंसात्मक धरने तथा बाबा साहेब जैसे मनीषी के तत्वावधान में बनवाए गए हमारे धर्मनिरपेक्ष समतामूलक संविधान का सही मतलब और मोल समझाया है। तिरंगों से सजे उनके धरनास्थल पर बापू, आंबेडकर की छवियां, अखंड भारत और संविधान की प्रतियों के पोस्टर विराजमान हैं। देश को इस शांत निडर शक्ति का आभारी होना चाहिए, जिसे शेक्सपीयर ने कभी एक दुष्टतामय अंधकार के माहौल में प्रकाश देती नन्हीं मोमबत्ती की संज्ञा दी थी।
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इतिहास गवाह है, कि जब-जब सपरिवार विस्थापन का खतरा मंडराने लगा हो, तो सारी दुनिया में महिलाएं डर से जूझने में पुरुषों से अधिक सक्षम साबित हुई हैं। वजह यह, कि हर ब्याही गई या ब्याही जाने वाली महिला अपने मूल परिवार से एक दिन विस्थापित होती है। किसी जीते-जागते प्राणी का नाम, परिवार, ग्राम, कई बार देश तक बदल जाने का क्या मतलब होता है, किस तरह बदली परिस्थितियों से जूझ कर ही वे अनुभव समृद्ध होती हैं, इसकी अनकही निजी कहानियां सारी दुनिया में लोककथाओं की मार्फत बिखरी पड़ी हैं।
विस्थापित प्रताड़ितों की व्यथा-कथा पर सबसे संवेदनशील कहानियां जिन्होंने कही हैं, वे भी कहीं न कहीं खुद भी परित्यक्त बच्चे या विस्थापन के शिकार रहे हैंः दर-दर भटकती मीरा, दक्षिण की भक्त कवि महादेवी- अक्का, कश्मीर की ललद्यद, अकेले निर्जन द्वीप में बैठे महाभारत पर सर धुनते कृष्ण द्वैपायन व्यास, वनवासिनी सीता को आश्रय देने वाले वाल्मीकि, ‘तज्योमातु पिता कृमिकीट की नाईं’ का दुख मन में ढोते तुलसी, अंधे गृहहीन सूरदास, बड़ी लंबी फेहरिस्त है।
शाहीनबाग के धरने को तुड़वाने की कई कोशिशें की गईं। कभी कहा गया यह इस्लामी धड़ों की साजिश है, या फिर यह कि यह विपक्षी दलों की रणनीति का हिस्सा है जो इस धरने का खर्चा-पानी दे रहे हैं। वहां सभी आने जाने वालों को उदारता से बांटे जा रहे खाने, खासकर बिरियानी को, लक्षित करते हुए बिरियानी खाना एक समुदाय विशेष का हास्यास्पद और फूहड़ तरीके से प्रतीक बनाया गया।
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इस बीच, एक महिला नेत्रीजी का तर्क आया कि जाड़े की कड़कती ठंड के बीच धरनास्थल पर माएं छोटे बच्चों को भी साथ क्यों ला रही हैं? कुछ को मंच पर देशभक्ति के गाने और कविताएं सुनाने को किसलिए कहा जा रहा है? क्या यह बच्चों के मानवाधिकारों का हनन नहीं? अचंभा देखें कि हालिया दंगों में 10-12 बरस तक के बच्चे गलियों में घूम-घूमकर पथराव करते दिखे, लेकिन बच्चों को पत्थर फेंकने को प्रेरित करने वाले या उनसे गोली मारो…को कहलवाने वाले के संदर्भ में यह सवाल नहीं उठा।
इस धरने की छवियां दो महीनों से देखते हुए यह समझ में आने लगा है कि हमारी दादी-नानियां हमें बचपन में जो कहानियां और कविताएं सुनाती रहीं, वे भले किसी साहित्यिक पुरस्कार की मोहताज न हों, लेकिन वैताल-पचीसी, पंचतंत्र, कथा सरित्सागर, महाभारत की उपकथाओं और अलादीन या आलिफ लैला जैसे पात्रों द्वारा हमारे समाज में कमजोर वर्गों, बच्चों और महिलाओं पर होते आए अत्याचारों और जैसे उनको तानाशाही से मुक्ति मिली उस सबकी बाबत जो बहुत कुछ अनकहा छोड़ दिया गया या जबरन भुलवा दिया गया, वह सब सिरे से फिर याद दिला रही हैं।
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इंकलाब जिंदाबाद के नारे का मूल, वंदे मातरम् का असली अर्थ और देश की सरजमीं से असली लगाव का मतलब साकार करती हुई यह महिलाएं सिर्फ अपने या अपने समयदाय के लिए नफरत के दिए घावों पर मरहम लगाने की ही मांग नहीं कर रहीं, वे राजनेताओं को याद दिला रही हैं कि वे करोड़ों उनके ही जैसे हाशिये पर ला दिए गए लोगों के वोटों से चुने गए हैं। और संविधान की शपथ लेकर ही सत्ताधारी बने हुए हैं। लिहाजा उनसे जनता और संविधान की गरिमा और मर्यादा के पालन की उम्मीद की जाती है।
सीएए, नागरिकता गणना और नागरिकता रजिस्टर की तिकड़ी का विरोध वे अज्ञानवश नहीं, भली तरह समझ कर ही कर रही हैं, ताकि हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई-पारसी-जैन-बौद्ध, किसी के खिलाफ संख्या बल के आधार पर संशोधित कराए गए संविधान के आधार पर आज या आने वाले बरसों में देश निकाले का या शरणार्थी कैंपों में बंद होने का खतरा न आन पड़े। उनकी इस धारणा को कई राज्यों की सरकारों द्वारा भी इन संशोधनों को न मानने का ऐलान बल देता है।
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यह भी गौरतलब है कि 2019 के बाद पहली बार असूर्यंपश्या रहीं हजारों महिलाएं घर से सीधे सड़क पर आ गई हैं। यह उनके लिए बापू के स्वाधीनता संग्राम की दूसरी किस्त है। जिस देश में आज भी अधिकतर महिलाओं को घर के बाहर आने-जाने की पूर्व स्वीकृति पुरुषों से लेनी जरूरी हो, जहां अनब्याही युवा लड़कियों की अकेले खुलकर घूमने की आजादी समाज को तनिक भी ग्राह्य न हो, और दफ्तर के लिए अकेले बाहर निकलने पर उनके साथ सड़क, सार्वजनिक यातायात या दफ्तरों में कहीं भी कभी भी बदसलूकी किया जाना संभव हो, वहां इतनी बड़ी तादाद में महिलाओं का स्वेच्छा से घरों से निकल कर सड़क किनारे रात-रात जागकर धरना देना अपने आप में शायद इस सदी का सबसे बड़ा अचंभा है।
यह इस बात का भी प्रमाण है कि पुरुष मौजूदा व्यवस्था और एक अन्याय परक कानून का विरोध करने में खुद को अक्षम पा रहे हैं। राजनीति पर पुरुषों की जकड़बंदी जारी है, पर उनकी लायकी और साख दिन-ब-दिन घट रही है। विपक्ष बिखरा हुआ है, कई दलों में भितरघात हो रही है, सैकड़ों चुने हुए नेता पैसे लेकर दल बदलने में कोई संकोच नहीं कर रहे और संसद में बहुमत के बल पर बिना चर्चा के निहायत आपत्तिजनक विधेयक जिनमें से सभी महिलाओं के जीवन पर गहरा असर डालेंगे पुरुष प्रधान संसद में आनन-फानन में पास करा दिए जा रहे हैं।
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जनमंचों पर बड़े राजनेता और गलियों में उनके उन्मादी समर्थक खुलकर धार्मिक हिंसा के अह्वान से भरे नारे लगा और लगवा रहे हैं। ऐसे माहौल में अचंभा क्या कि हर उम्र की महिलाएं लाज-शरम-पर्दा सब भुलाकर अपने और अपने कुटुंब की रक्षा के लिए एक बार फिर दुर्गा की तरह अपनी महिला सेना बनाकर शाहीन बाग में उतर आईं।
दिल्ली चुनावों में बीजेपी को उम्मीद थी कि अपने गोदी मीडिया और चैनल चर्चा पंडितों की मदद से खुले में इतनी सारी महिलाओं की मौजूदगी को नागरिक यातायात समस्या से जोड़कर, शाहीन बाग को मुसलमानी मुहल्ला बता कर वे अपनी खोदी हिंदू- मुसलमान की खाई को सहज ही और भी गहरा बना देंगे। वह तो हुआ नहीं, अलबत्ता तमाम जाति, धर्म और आयु तथा आयवर्ग के संवेदनशील लोगों की चेतना जागी और कारवां बनता गया।
बीजेपी चुनावों में बहुत बुरी तरह हार गई। गांधीजी ने बिलकुल ठीक कहा था, पहले वे आप पर हंसेंगे, फिर आपको डराएंगे, फिर आप जीत जाएंगे। अब गुणीजन बैठकर दिल्ली में चुनावों के तुरंत बाद फूटी हिंसा के लिए दोष का हिसाब-किताब लगा रहे हैं। यह कहने वालों की कमी नहीं कि शाहीन बाग का इस भावना को भड़काने में हाथ रहा। यह भी संभव है, कि लाज-शरम और राजधरम से विमुख सत्ता किसी दिन ताकत का प्रयोग कर इन निरीह महिला-बच्चों को हटवा दे। लेकिन उनका धरना एकअमिट संदेश फिर भी छोड़ जाएगा।
हम देखेंगे। सब याद रखा जाएगा। हम कागज नहीं दिखाएंगे। यह सिर्फ लोकप्रिय कविता ही नहीं, ये वे शब्द हैं जो तमाम विस्थापन, आगजनी और अन्यायपूर्ण फैसलों के बीच भी देश की अंतरात्मा को जागृत रखेंगे। इसलिए इस अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर यह कृतज्ञ देश, खासकर महिलाएं और आने वाली पीढियां इन अम्माओं, नानी-दादियों, बहनों को सलाम करेंगी। बार-बार।
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