बात 2015 की है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने जब ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ अभियान शुरू किया, तो हरियाणा में एक सरपंच द्वारा शुरू किए गए सोशल मीडिया अभियान का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जोरदार समर्थन किया। हैशटैग #SelfieWithDaughter ने पुरुषों को बेटियों के साथ सेल्फी क्लिक करने और ट्वीट करने के लिए प्रोत्साहित किया। जैसे ही यह वायरल हुआ, मोदी ने इसे लड़कियों को बचाने की अपनी निजी प्रतिबद्धता के तौर पर दुनिया भर में प्रचारित कर दिया। अफसोस की बात है कि उनकी ‘कथनी’ और ‘करनी’ में बड़ा अंतर है।
शिक्षा के लिए एकीकृत जिला सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई) शिक्षा के हाल पर एक व्यापक जमीनी रिपोर्ट उपलब्ध कराती है। इससे पता चलता है कि महज एक साल (2020-21 से 2021-22) के दौरान 20,021 से ज्यादा स्कूल बंद हो गए। सरकार बेशक निजी शिक्षा को बढ़ावा देती हो, इसके बाद भी बंद होने वाले इन स्कूलों में लगभग 5,000 निजी थे। कक्षा 1 से 8 तक के बच्चों की स्कूल छोड़ने की दर दोगुनी हो गई है। इनमें से कुछ के बंद होने के लिए महामारी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है लेकिन नई शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 ने शिक्षा के निजीकरण पर जोर देते हुए दिखा दिया है कि लड़कों की तुलना में कम लड़कियों को स्कूली शिक्षा तक पहुंच दी जा रही है और इसकी वजह इस पर होने वाला खर्च है।
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दिक्कत यह है कि सामाजिक क्षेत्र के लिए बजटीय आवंटन में काफी कमी आई है। 2014-15 में बजटीय आवंटन कुल बजट का 4.6 फीसदी था; 2023-24 में इसे घटाकर 2.5 फीसदी कर दिया गया है।
अगर ‘बेटी पढ़ाओ’ बजटीय आवंटन में प्रतिबिंबित नहीं होता है, तो यही हाल ‘बेटी बचाओ’ का भी है जिसमें मिड-डे मील योजना में कुल बजट के 0.73 फीसदी से 0.25 फीसदी तक की भारी कटौती देखी गई है। आईसीडीएस (एकीकृत बाल विकास सेवा) का सक्षम आंगनवाड़ी में विलय कर दिया गया है और इसका नाम बदलकर प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण या ‘पीएम पोषण’ कर दिया गया है। इस नए अवतार के परिणामस्वरूप अधिक आवंटन हुआ है। जहां आईसीडीएस का वित्तीय परिव्यय 18,691 करोड़ रुपये था, वहीं पीएम पोषण को मौजूदा बजट में 20,544 करोड़ रुपये दिए गए।
यही हाल महिलाओं और बच्चों से जुड़ी अन्य योजनाओं, जैसे राष्ट्रीय क्रेच योजना और किशोर लड़कियों के लिए योजना का भी है। यह जानते हुए भी कि दुनिया में सबसे अधिक कुपोषित महिलाएं हमारे देश में हैं, बेहद जरूरी मातृत्व लाभ योजना में भी कटौती कर दी गई है।
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इनमें से किसी भी योजना की हकीकत बयानबाजी से मेल नहीं खाती। गरीबी रेखा से नीचे की महिलाओं को एलपीजी कनेक्शन देने के लिए बहुप्रचारित प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना को ही लीजिए। अप्रैल, 2022 तक यह योजना 9.34 करोड़ लाभार्थियों तक पहुंचाई गई, एलपीजी सिलेंडर की ऊंची कीमत के कारण परिवार इसे रिफिल नहीं करा पाए। रिफिल के लिए 2014 में 410 रुपये खर्च होते थे जो 2022 में बढ़कर 1,060 रुपये हो गया। पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री रामेश्वर तेली ने 1 अगस्त, 2022 को राज्यसभा में बताया कि 92 लाख ग्राहकों ने 2021 में कोई रिफिल नहीं लिया जबकि 2 करोड़ ग्राहकों ने केवल एक बार रिफिल कराया।
कम क्रय शक्ति का अंदाजा इस बात से भी होता है कि जहां सरकार का दावा है कि उसने 18 लाख गांवों में बिजली पहुंचा दी है, वहीं बिजली मंत्रालय दिखाता है कि कनेक्शन में वृद्धि के बावजूद बिजली की खपत केवल पांच फीसदी सालाना की दर से बढ़ रही है। ‘प्रधानमंत्री सहज बिजली हर घर योजना’ उज्ज्वला योजना जैसा ही पैटर्न दिखाती है- गरीब परिवार, मुफ्त कनेक्शन मिलने पर भी, मीटर वाली बिजली खरीदने की स्थिति में नहीं हैं।
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पिछले नौ सालों में भारत की श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर) में महिलाओं का ग्राफ गिरने से खराब क्रय शक्ति को सीधे जोड़ा जा सकता है। विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, 2012 में एलएफपीआर 27 फीसदी था जो 2021 में घटकर 22.9 फीसदी हो गया। सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज ने यह बात दर्ज की है कि कोविड के बाद महिलाओं को कम वेतन वाले असंगठित क्षेत्र में वेतनभोगी रोजगार से निकलकर आकस्मिक और स्व-रोजगार की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) बेहद शोषणकारी कार्य स्थिति का उदाहरण बनकर रह गया है। मनरेगा को लाखों गरीब लोगों को काम की सुरक्षा देने के लिए शुरू किया गया था, लेकिन तब से इसे भारी बजटीय कटौती का सामना करना पड़ रहा है। चालू वित्त वर्ष में इसमें 33 फीसदी की भारी कटौती हुई। विशेषज्ञों का कहना है कि अब यह घटकर 60,000 करोड़ रुपये रह गया है जिसमें से बड़ी धनराशि का उपयोग वेतन के लंबित बकाये को निपटाने में किया जा रहा है। अब भुगतान को आधार कार्ड से जोड़ने के बाद ऐसा अनुमान है कि बड़ी संख्या में महिला श्रमिकों के लिए इस योजना का लाभ उठाना और भी मुश्किल हो जाएगा।
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स्वास्थ्य देखभाल की स्थिति यह है कि ग्रामीण इलाकों में लोगों के ऋण के जाल में फंसने के बढ़े मामलों के प्रमुख कारकों में इस मद में सरकारी खर्चे में हुई कटौती है। राज्य एवं जिला स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में भारी असमानता है। अपर्याप्त सरकारी पहल के कारण ग्रामीण भारत में भी निजी क्षेत्र ने स्वास्थ्य देखभाल में पैर पसार लिए हैं और जाहिर है, उनकी सेवाएं खासी महंगी हैं।
देश में स्वास्थ्य की स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2014-15 और 2022-23 के बीच स्वास्थ्य पर खर्च कुल बजट का 1.2 से 2.2 फीसदr के बीच रहा। राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा अनुमान 2019-20 से पता चलता है कि इस अवधि में केन्द्र सरकार की हिस्सेदारी 72,059 करोड़ रुपये थी जबकि राज्य सरकार की 1,18,927 करोड़ रुपये।
आगामी लोकसभा चुनाव जीतने के लिए मोदी सरकार जिस एक योजना पर भरोसा कर रही है, वह है 80 करोड़ परिवारों को मुफ्त राशन का वितरण। यहां भी, बड़ी ही सफाई से मोदी सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि खाद्य सब्सिडी में 89,000 करोड़ रुपये से अधिक की कटौती की जाए जिससे राशन की पात्रता आधी हो जाए। इस कारण इसमें कोई हैरानी नहीं है कि 2022 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने भारत को 127 देशों में से 107वीं रैंकिंग दी है।
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मोदी सरकार महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर लगाम लगाने में भी बुरी तरह विफल रही है। 2014 में बीजेपी के चुनाव घोषणा पत्र में कहा गया था कि यूपीए सरकार के दौरान ‘महिलाओं के खिलाफ अपराध अस्वीकार्य स्तर पर पहुंच गए थे।’ राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के दस्तावेज के अनुसार, पिछले दस सालों में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 50 फीसदी का इजाफा हुआ है, जिसमें बलात्कार, अपहरण, सामूहिक बलात्कार और बलात्कार के बाद हत्या के मामले शामिल हैं।
एनसीआरबी डेटा से पता चलता है कि भारत में हर 18 मिनट में एक महिला के साथ बलात्कार हो रहा है। इससे भी बुरी बात यह है कि इनमें से चार दलित महिलाएं हैं। पिछले छह सालों का एनसीआरबी डेटा बताता है कि कैसे बच्चों, खास तौर पर लड़कियों के खिलाफ अपराध में 95 फीसदी का इजाफा हुआ है। अकेले यूपी में एक साल के दौरान लड़कियों के खिलाफ यौन अपराध के मामले 8,000 से बढ़कर 60,000 हो गए हैं।
बीजेपी ने संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का भी वादा किया था। सरकार ने इसके लिए संविधान संशोधन पेश करने का महज दिखावा किया है क्योंकि इसे जमीन पर उतारने में ही कई साल लग जाएंगे।
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