संघ से जुड़े राम माधव ने हाल में एक लेख लिखा है। इसमें उन्होंने कहा है कि, "ज्यादातर नेताओं ने आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के इंटरव्यू को पढ़े बिना ही उस पर प्रतिक्रिया दी है।" मैंने माधव का लेख तो नहीं पढ़ा है, लेकिन मुद्दा उनका लेख नहीं है। मुद्दा यह है कि क्या आरएसएस को गलत समझा गया है और खासकर, क्या आरएसएस की विचारधारा को गलत समझा गया है।
इसे समझने के लिए हमें माफीवीरों को पढ़ने की जरूरत नहीं है, बल्कि उनके नाम से जो भी ग्रंथ लिखे गए हैं, उन्हें देखना चाहिए। मैंने अपनी एक किताब में इस पर काम किया है। मैं ऐसे लोगों के लिए बता दूं जिनके उनके भाषण पढ़ने का न समय है और न ही इच्छा। मैं भाषण इसलिए कहता हूं क्योंकि इन लोगों ने कोई किताब नहीं लिखी है। न तो गोलवलकर और न ही दीन दयाल उपाध्याय ने कोई पुस्तक लिखी।
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यह हैरानी की बात हो सकती है, क्योंकि उपाध्याय को एक 'विचारक' के रूप में जाना जाता है और उनके 'एकात्म मानववाद' को बीजेपी अपने 'मूल दर्शन' के रूप में संदर्भित करती है। एकात्म मानववाद भाषणों का संग्रह है। ‘बंच ऑफ थॉट्स’ भी ऐसा ही है (इसीलिए इसे यह नाम दिया गया था क्योंकि यह एक घुमंतू, असंगत संग्रह है)। तो जानते हैं कि इन्होंने क्या कहा है? कुछ खास अंश दे रहा हूं।
‘बंच ऑफ थॉट्स’ में गोलवलकर कहते हैं कि हिंदू लोग उनके भगवान हैं और और यह भगवान खुद को जाति के माध्यम से प्रकट करते हैं। अर्थात मनु ने जिस प्रकार वर्णन किया है, उसी प्रकार हिन्दू समाज का संगठन (ब्राह्मण मस्तक, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जाँघें और शूद्र पैर) वह इकाई है जो पूजा के योग्य है। 1960 में, गोलवलकर ने कहा कि श्रेष्ठ मनुष्यों के संकरण के लिए जाति का उपयोग यानी क्रॉस ब्रीड का प्रयोग किया जा सकता है, जैसे कि जानवरों में किया जाता है।
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ऐसा पहले हिंदुओं द्वारा जाति के बाहर शादी करने वाले नंबूदरी ब्राह्मण पुरुषों के माध्यम से किया जाता था। उन्होंने कहा कि, नंबूदरी पुरुषों के माध्यम से ऐसा भी किया जाता था कि वे किसी और से शादी करने वाली महिला के पहले बच्चे का पिता बनते थे। पाठकों को यह रोचक लगेगा कि सामंती काल में यूरोप में कुछ ऐसा ही हुआ होगा जिसे द्रोइट डू सिग्नॉरिटी ('भगवान का अधिकार') कहा जाता है, जिसके तहत सामंती जमींदारों या रसूख वाले लोगों को अपने अधीनस्थ काम करने वाली महिलाओं से उनकी शादी की रात ही यौन संबंध बनाने की अनुमति मिलती थी। यह कमजोरों और वंचितों का सीधा शोषण है और कोई नेक या पुण्य का काम नहीं है। लेकिन ऐसा लगता है कि गोलवलकर के दिमाग में यह बात नहीं आई।
अगर इस तरह की बातों को आरएसएस कैडर या बीजेपी सामने नहीं लाती है या उस पर जोर नहीं देती है, तो ऐसा इसलिए नहीं है कि इन बातों को हटा दिया गया है या वापस ले लिया गया है, बल्कि इसलिए कि उन्हें इस बात का पूरा भरोसा है कि कुछ लोग वही करेंगे जो लेखक ने किया है और वास्तव में प्राथमिक ग्रंथों को पढ़ेंगे। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या टीवी पर बहस होगी कि जाति व्यवस्था की पूजा की जानी चाहिए या नहीं, क्योंकि आरएसएस तो ऐसा ही चाहता है।
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दीनदयाल उपाध्याय को अगर गंभीरता से पढ़ा जाए तो उनकी बातें हास्यपूर्ण ही नहींं (विवरण के लिए मेरी पुस्तक ‘Our Hindu Rashtra’ 'हमारा हिंदू राष्ट्र' देखें) बल्कि कुछ हद तक घटिया भी हैं। नीचे दिए इस पैराग्राफ पर गौर करें:
“मैं आपको एक उदाहरण देता हूं। एक बार श्री विनोबाजी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक श्री गुरुजी के बीच बातचीत के दौरान एक प्रश्न उठा कि हिन्दुओं और मुसलमानों के सोचने के तरीके में अंतर कहां है। गुरुजी ने विनोबाजी से कहा कि हर समाज में अच्छे और बुरे लोग होते हैं। ईमानदार और अच्छे लोग हिन्दुओं में भी मिल सकते हैं और मुसलमानों में भी। इसी तरह, बदमाशों को दोनों समाजों में देखा जा सकता है। किसी समाज विशेष का अच्छाई पर एकाधिकार नहीं होता। हालाँकि, यह देखा गया है कि हिंदू भले ही व्यक्तिगत जीवन में दुष्ट हों, जब वे एक समूह में एक साथ आते हैं, तो वे हमेशा अच्छी चीजों के बारे में सोचते हैं। दूसरी ओर, जब दो मुसलमान एक साथ आते हैं, तो वे उन चीजों का प्रस्ताव करते हैं या उस पर सहमत होते हैं, जिनके बारे में वे स्वयं अपनी व्यक्तिगत क्षमता में सोच भी नहीं सकते। वे एकदम अलग तरीके से सोचने लगते हैं। यह रोज का अनुभव है। विनोबाजी जी ने स्वीकार किया कि इस बात में सच्चाई थी, लेकिन इसकी व्याख्या करने के लिए उनके पास कोई कारण नहीं था।”
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लेखक देवानुरा महादेव ने आरएसएस पर हाल में आई अपनी किताब में कहा है कि संघ सोच और विश्लेषण के मुकाबले अनुशासन और एकमतता पर जो देता है। बंच ऑफ थॉट्स शीर्षक के बारे में ही वे कहते हैं कि इस में ज्यादा सोच-विचार नहीं है, केवल "अनायास ही आए और खतरनाक विश्वासों की एक श्रृंखला है और वह भी गुजरे जमाने।"
संघ में विविधता के बजाए व्यवस्था को आग्रह के माध्यम से सोच को हतोत्साहित करने का तरीका अपनाया जाता है। महादेव लिखते हैं कि आरएसएस अपने स्वयंसेवकों को एक तरह से गुलाम बनाकर रखता है। वे गोलवलकर के हवाले से कहते हैं कि उन्हें (स्वंसयसेवकों को) "वह करना चाहिए जो करने को कहा गया है... अगर कबड्डी खेलने के लिए कहा जाए, तो कबड्डी खेलें, बैठक करने के लिए कहा जाए तो बैठक करें... उनके विवेक की आवश्यकता नहीं है।"
संघ के कैडर को जो बातें सिखाई जाती हैं उनमें से एक यह भी है कि संविधान में बहुत खामियां हैं यानी वह त्रुटिपूर्ण है। उदाहरण के लिए, आरएसएस ने हमेशा संघवाद (राज्यों के अधिकार) पर हमला किया है। उपाध्याय तो राज्यों के विचार को ही अपमानजनक मानते हैं, क्योंकि उनके अनार केवल एक भारत माता हो सकती है और तमिलनाडु या गुजरात या बंगाल का अस्तित्व गलत है। इसकी प्रतिध्वनि हम दक्षिण में बीजेपी के राज्यपाल के साथ हाल की समस्या में देख सकते हैं। महादेव ने संघवाद की इस नफरत को गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) से जोड़ते हैं, जिसने राज्यों के अपने स्वयं के राजस्व बढ़ाने के अधिकारों को छीन लिया है या गंभीर रूप से सीमित कर दिया है।
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महादेव हिंदुत्व को 'गाय के मुंह वाला बाघ' कहते हैं, यानी एक ऐसी इकाई जो भारतीय समाज को भीतर से खा रही है।
महादेव ने कुछ मूल टिप्पणियां की हैं। मसलन "आरएसएस जैन, बौद्ध, सिख, लिंगायत और अन्य धर्मों को बेदम करने या अप्रासंगिक करने की कोशिश करता है, जबकि ये सारे धर्म भी भारत में पैदा हुए हैं। संघ ने साथ ही चतुर्वर्ण व्यवस्था को यह कहकर खारिज कर दिया है ये सब हिंदू धर्म हैं, और उनके संदेश को समाहित करने की कोशिश की गई है।
ये वे बातें हैं जिन्हें जिनका प्रचार संघ अपने ही लोगों के मुताबिक अपनी विचारधारा के लिए करता है। इसलिए हमें हैरानी नही होनी चाहिए कि राम माधव इस किस्म की नकारात्मक प्रतिक्रिया की बात कर रहे हैं। लेकिन जो भी प्रतिक्रियाएं आई हैं वे सच का ही आइना हैं।
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