अयोध्या में मंदिर के उद्घाटन के साथ ही हमारे इतिहास के एक ऐसे अध्याय का अंत हो जाएगा जिसे बहुत से युवा परिचित नहीं है, लेकिन हम जैसे लोगों ने इसे जीया है। इससे बीजेपी का संबंध है, जो चार दशक के ठहराव के बाद इसके उदय का आधार है और उस व्यक्ति से जुड़ा है जिसने इसे सक्रियता से ऊर्जा दी।
पिछले आम चुनाव में विपक्षी दलों के साझा मंच जनता पार्टी में विलय से पहले, वाजपेयी के नेतृत्व में जनसंघ ने अन्य दलों के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ते हुए 22 सीटें जीती थीं। इससे पहले के चार आम चुनावों में इसने सिर्फ 3, 4, 14 और 35 सीटों पर जीत हासिल की थी और उसका राष्ट्रीय वोट प्रतिशत कभी भी 9 फीसदी से ऊपर नहीं गया।
इसके अधिकारिक इतिहास में भी बताया गया है कि पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनाव को अपने दम पर लड़ने की बात लिख है। इसमें लिखा है, ‘1972 में देश के विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनाव में जनसंघ ने मोटे तौर पर अपने दम पर अकेले चुनाव लड़ा था। इसने 1233 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे और उनमें से 104 ने कुल 8 फीसदी वोटों के साथ जीत हासिल की थी...। लगभग सभी राज्यों में उसे हार का सामना करना पड़ा था। और स्थापना के बाद यह पहला मौका था जब जनसंघ अपने पिछले प्रदर्शन को दोहरा नहीं सका था।´
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पार्टी लगभग एक जगह आकर स्थिर हो गई थी और इसका प्रमाण है कि इसने 1984 का आम चुनाव फिर से अकेले अपने दम पर लड़ा और सिर्फ 7 प्रतिशत वोट और मात्र दो लोकसभा सीटें जीत सकी। लाल कृष्ण आडवाणी ने 1986 में जब पार्टी की कमान संभाली, तो उससे पहले उन्होंने कभी भी चुनावी राजनीति नहीं की थी और न ही उसमें हिस्सा लिया था। राजनीति में उनका प्रवेश आरएसएस की पत्रिका में पत्रकार के रूप में काम करने के दौरान हुआ, जहां वे फिल्मी समीक्षाएं लिखा करते थे।
राजनीतिज्ञ के तौर पर आडवाणी सदा एक नामित सदस्य ही रहे, भले ही वह दिल्ली काउंसिल हो या राज्यसभा। उन्हें राजनीतिक तौर पर लोगों को लामबंद करने का कोई अनुभव नहीं था, अपनी आत्मकथा (2008 में प्रकाशित मेरा देश, मेरा जीवन) में लिखा है कि उन्हें खुद नहीं अनुमान है कि आखिर ये सब कैसे हुआ।
अयोध्या मुद्दे को दरअसल आरएसएस के भीतर ही एक गैर-राजनीतिक समूह विश्व हिंदू परिषद ने उठाया था। 1983 में उत्तर प्रदेश में हुई एक बैठक में राजेंद्र सिंह, जो बाद में आरएसएस के प्रमुख बने, ने उठाया था कि बाबरी मस्जिद को हिंदुओं के लिए खोला जाए। सितंबर 1984 में विश्व हिंदू परिषद ने मस्जिद के खिलाफ अभियान शुरु किया। इस अभियान को पर्याप्त जन समर्थन मिला। और, विहिप ने 1986 में ऐलान किया कि वे जबरन मस्जिद के ताले तोड़ देंगे।
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तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी दबाव में आ गए थे और उनकी सरकार ने अदालत को भरोसा दिलाया कि अगर ऐसा होता है तो कानून-व्यवस्था की स्थिति नहीं बिगड़ेगी। ताले खोल दिए गए और हिंदुओं को मस्जिद में जाने की इजाजत दे दी गई।
लेकिन एक बार मस्जिद में अंदर जाकर पूजा करने की इजाजत मिलने के बाद विहिप यहीं पर नहीं रुका, उसने मस्जिद को गिराने का लक्ष्या निर्धारित कर दिया। फरवरी 1989 में इलाहाबाद में हुए कुंभ मेले में विहिप ने कहा कि वह नंवबर में मंदिर का शिलान्यास करेगा। इसके तहत पूरे देश से शिलाएं (ईंटे) लाने का अभियान शुरु किया गया और उन्हें देश भर के शहरों-कस्बों से लाकर अयोध्या में जमा किया जाने लगा।
इस समय तक, जैसाकि आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, बीजेपी के राजमाता विजयाराजे सिंधिया और विनय कटियार जैसे कुछ ही सदस्यों ने निजी तौर पर मंदिर के लिए अयोध्या आंदोलन में हिस्सा लिया था। यह देश की मुख्यधारा की राजनीति का मुद्दा भी नहीं था।
जून में बीजेपी ने हिमाचल प्रदेश में अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक की, जिसमें आडवाणी ने इस मुद्दे पर बीजेपी के जुड़ने का आह्वान किया। बीजेपी के प्रस्ताव में मांग की गई कि, ‘बाबरी मस्जिद हिंदुओं को सौंपी जाए’ और मस्जिद किसी और स्थान पर बना दी जाए।
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कुछ महीने बाद नवंबर 1989 में चुनाव आए। बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र में पहली बार अयोध्या मुद्दे का जिक्र किया। इसने लिखा, ‘अयोध्या में राम मंदिर के पुनर्निर्माण की अनुमति न देकर, भारत सरकार वैसा ही तनाव पैदा कर दिया है जैसा कि 1948 में सोमनाथ मंदिर के निर्माण के समय किया था। इसे सामाजिक सद्भाव गंभीर रूप से तनावग्रस्त हो गया है।’ यह घोषणा बीजेपी के अपने संविधान का उल्लंघन था, जिसके पहले पृष्ठ और शुरुआती पंक्तियों में यह वादा किया गया था कि वह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के प्रति सच्ची आस्था और निष्ठा रखेगी।
मतदान से कुछ दिन पहले, विश्व हिंदू परिषद ने देश भर से अपने सारे प्रदर्शनों को अयोध्या में जमा कर दिया और मस्जिद के बराबर में ही शिलान्यास कर दिया।
अपनी विभाजनकारी और मुस्लिम विरोधी नीति के चलते आडवाणी की बीजेपी 85 सीटें जीत गईं, जो जनसंघ द्वारा पिछली बार जीती गई सीटों से चार गुना और बीजेपी के नेतृत्व में बीजेपी द्वारा जीती गई सीटों से 40 गुना अधिक थीं। इस तरह आडवाणी आरएसएस से आने वाले सबसे सफल नेता के तौर पर स्थापित हो गए और उन्हें चुनाव जीतने का फार्मूला मिल गया।
इसके बाद उन्होंने इस मुद्दे पर अधिक से अधिक ध्यान देना शुरु किया और इसका फायदा भी हुआ।
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इस दौरान कांग्रेस चुनाव में बहुमत खो बैठी और विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में गठबंधन सरकार ने सत्ता संभाली, जिसे आडवाणी की बीजेपी का समर्थन हासिल था। हालांकि यह काफी दिनों तक नहीं चला। चुनाव के सिर्फ तीन महीने के अंदर ही फरवरी 1990 में विश्व हिंदू परिषद ने बाबरी मस्जिद के खिलाफ जनअभियान फिर से शुरु कर दिया, और ऐलान कर दिया कि वह इसे जारी रखेगी। इस अभियान को अक्टूबर में कारसेवा का नाम दिया गया।
आडवाणी के मुताबिक इस मुद्दे पर राजनीतिक पारा चढ़ना दुर्घटनावश ही हुआ। आडवाणी ने अपनी आत्मथा में लिखा है कि जून में वे लंदन जाने वाले थे, और जाने से ठीक पहले आरएसएस पत्रिका पॉचजन्य ने उनका इंटरव्यू किया था। इसमें उनसे पूछा गया था कि अगर सरकार अयोध्या का मुद्दा हल नहीं करती है तो क्या होगा। आडवाणी का जवाब था कि बीजेपी ने 30 अक्टूबर को होने वाली कारसेवा को समर्थन देने का निर्णय किया है, और अगर इसे रोका गया तो एक बड़ा जनांदोलन शुरु किया जाएगा जिसकी अगुवाई बीजेपी करेगी।
आडवाणी आगे लिखते हैं, ‘सच्चाई यह है कि मैं इस इंटरव्यू के बारे में भूल गया था’, जब उनकी पत्नी ने फोन कर उनसे पूछा कि आपने क्या कहा है? अखबारों ने मोटी सुर्खियों में छापा कि, ‘अयोध्या मुद्दे पर आडवाणी ने दी स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े जनांदोलन की चेतावनी...।’ वे आगे लिखते हैं, ‘इस तरह एक सांचा तैयार हो गया था।’
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उनकी रथयात्रा में क्या-क्या हुआ, इसके भी दस्तावेजी सबूत मौजूद हैं। बाद में हुई हिंसा में करीब 3.400 लोगों की मौत हुई और बीजेपी ध्रुवीकरण को सत्ता के दरवाजे तक ले आई।
और जब अयोध्या स्थित मंदिर में राम लला की प्राण प्रतिष्ठा हो रही है, तो आडवाणी को आखिरी वक्त में आमंत्रितों की सूची में शामिल किया गया है, हालांकि शुरु में कह दिया गया था कि वे इस अवसर पर अयोध्या नहीं जाएंगे। और इस ‘उपलब्धि’ मौके पर आडवाणी को उनके राजनीतिक वारिस या उनकी विरासत से सत्ता तक पहुंचे लोग किसी किस्म का कोई श्रेय भी नहीं देना चाहते।
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