खुद को लोकतंत्र की जननी कहने वाले भारत ने जी 20 में सभी लोकतांत्रिक बच्चों क मेजबानी की है। लेकिन इनमें कुछ सौतेले बच्चे भी शामिल थे, मसलन हमारे बेनाम पूर्वी पड़ोसी और खाड़ी देश। ये लोकतांत्रिक देश नहीं हैं और रूस और तुर्की जैसे कुछ ऐसे देश जो सिर्फ नाम के लोकतंत्र हैं।
जब बड़े फलक पर हम देखते हैं तो हमें अपनी स्थिति को लेकर कुछ सवाल मन में आते हैं। सबसे पहला तो हमारी वह मांग कि वैश्विक व्यवस्था में बदलाव हो और हमें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में हमें हमारा स्थान मिले। इस मांग को फिर से दोहराया गया और निश्चित रूप से सत्तारूढ़ दल के घोषणापत्र में भी इसका जिक्र है। लेकिन फिर यह सवाल उठता है कि जो देश पहले से ही विश्वगुरु है उसे सुरक्षा परिषद में जगह क्यों चाहिए?
इसका जवाब तो नहीं मालूम, क्योंकि यह सवाल तो किसी ने पहले पूछा ही नहीं। फिर भी हमें इस पर गंभीरता से विचार करना होगा क्योंकि दावा भी तो बहुत गंभीर है। बिल्कुल उस दावे की तरह जैसाकि बताया गया कि हमें जी 20 की अध्यक्षता के लिए चुना गया है। साथ ही यह बात भी कि अगर हम विश्वगुरु हैं तो सीधे सुरक्षा परिषद में अपना स्थान ले सकते हं, इसके लिए मांग करने की क्या जरूरत है? आखिर विश्वगुरु को रोकने की हिम्मत कौन करेगा?
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इसी से जुड़ी एक और बात है और वह है कि दिल्ली में हुई जी 20 की बैठक में आखिर हुआ क्या। विदेश मंत्रियों की बैठक हुई थी और जैसा कि द हिंदू ने अपनी हेडलाइन में लिखा, ‘जी 20 विदेश मंत्रियों की बैठक: पश्चिमी देशों में दोफाड़, रूस-चीन ने संयुक्त बयान जारी करने में अड़ंगा डाला’। संदर्भ था यूक्रेन में युद्ध का, जिसकी वजह से बाली में भी (जब इंडोनेशिया जी 20 का अध्यक्ष था, और वह विश्वगुरु नहीं था), संयुक्त बयान जारी नहीं हो सका था।
सीधा सा सवाल है, क्या हमारी अध्यक्षता में भी जी 20 में इंडोनेशिया से अलग कोई बात नहीं हुई। और अगर ऐसा नहीं हो सका तो फिर इतना हो-हल्ला क्यों है भाई। यही एक लाख टके का सवाल है।
इसी सप्ताह एक और अहम बात हुई। वह यह कि भारत यानी विश्वगुरु और लोकतंत्र की जननी दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाल देश बन गया। विश्व गुरु को यह जानकारी बाहर से मिली। वर्ल्ड पापुलेशन रीव्यू के आंकड़ों के हवाले से शुक्रवार को जानकारी सामने आई कि अब हमारी आबादी 142 करोड़ 80 लाख लोगों की हो गई, जबकि चीन 142 करोड़ 50 लाख की आबादी के साथ दूसरे नंबर पर पहुंच गया।
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जब इस जानकारी को अधिकारिक तौर पर बताया जाएगा तो इसे लेकर भी खूब हो-हल्ला होगा, लेकिन याद रखिए, यह दूसरा मौका है जब आबादी के मामले में हम चीन से आगे निकले हैं। पहली बार हम 1947 से पहले चीन से आगे थे, हां मान सकते हैं कि उस वक्त संयुक्त भारत था और दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश था।
आखिर मैं क्यों कह रहा हूं कि यह खबर हमें बाहर से मिली? वह इसलिए क्योंकि हमने इस सदी में पहली बार अपने यहां जनगणना की ही नहीं और यह कब होगी इस बारे में भी कुछ पता नहीं। इस बारे में दूसरी बात वह यह है कि दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी का देश होने के साथ ही हमारी प्रजनन क्षमता में गिरावट भी दर्ज हुई है। अर्थात कुछ सालों में हमारी आबादी फिर से कम होना शुरु हो जाएगी।
वैसे यहां उन लोगों के खिलाफ भी कुछ कहा जा सकता है जो धर्म के आधार पर लोगों को आतंकित करने का काम करते हैं, लेकिन फिलहाल यह जगह इस बारे में नहीं है। हालांकि, आखिरी बात के तौर पर हमें यह देखना चाहिए कि कुच साल पहले तक जब हमारी आबादी का लाभ मिलने की बातें शुरु हुई थीं, जब हमारी काम करने योग्य आयु की आबादी तेजी से बढ़ रही थी।
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लेकिन, इसी सबके दौरान हमारी श्रमबल की भागीदारी दर और बेरोजगारी दर भी बढ़ रही थी, और ये सब तो सरकारी आंकड़ों में दर्ज है। अब हम रिकॉर्ड आबादी और रिकॉर्ड बेरोजगारी वाले देश हैं। अब इस अद्भुत मिलन से क्या निकलता है, देखने वाली बात होगी।
इस लेख के अंत में बात केंद्रीय बजट की। प्रधानमंत्री ने इसी सप्ताह बजट को अमृतकाल का बजट कहा। उनके मुताबिक अमृतकाल का पहला बिंदु यह है कि 2047 तक भारत एक विकसित देश बन जाएगा। लेकिन 2014 के बाद से देश की तरक्की यानी ग्रोथ रेट को देखें तो औसतन हम 5.7 फीसदी की दर से ही आगे बढ़े हैं। इस रफ्तार से हम 2047 में कहां होंगे, आप सोचिए।
अगर हम खुद को विकसित देश कहना शुरु करने वाले हैं तो क्या हम विकास या विकसित की परिभाषा बदलेंगे? या हम मानें कि दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था सुस्त हो जाएगी? या हम 2014 के बाद से जिस रफ्तार में हैं उससे तेज रफ्तार से विकास करेंगे? अगर हम तेजी से विकास करना चाहते हैं तो इसके लिए हम क्या कर रहे हैं और 2014 से अब तक जो कुछ किया है उससे अलग कैसे होंगे?
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यह फिर से एक अलंकारिक प्रश्न है, और इसका कोई जवाब भी नहीं है। हमारे समाधान नारों, नए शब्दों और वाक्यांशों को गढ़ने और कुछ ऐसा होने का दिखावा करने में निहित हैं जो न तो हम हैं और न ही होने वाले हैं। महान शक्तियों या कहें कि ताकतवर देशों को उनकी इच्छा के विरुद्ध किसी बात पर सहमत होने के लिए या तो कठोर शक्ति या कम से कम महान नैतिक अधिकार की आवश्यकता होती है, जिनमें से कोई भी, सच कहा जाए तो, हमारे पास नहीं है। जो सरकार अपने ही लोगों की गिनती नहीं कर सकती, अपने ही विकास के रिकॉर्ड का हिसाब नहीं रख सकती और उसका अनुमान नहीं लगा सकती, जो रोज़गार और बेरोज़गारी के अपने आंकड़ों को स्वीकार नहीं करती, उसे गंभीरता से नहीं लिया जाएगा।
लेकिन दूसरा पहलू यह भी है जिसे हम सकारात्मक कह सकते हैं कि हमें ऐसी बातं करने और ऐसे दिखावे करने से कोई नहीं रोक सकता। और इसलिए हम इसके जारी रहने की उम्मीद कर सकते हैं।
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