पिछले महीने, 100 से अधिक सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारियों के एक समूह ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था। इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के एक पूर्व प्रमुख और एक पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी शामिल थे। उन्होंने लिखा है कि भारत में सांप्रदायिक हिंसा 'अब महज एक मुखर हिंदुत्व पहचान की राजनीति नहीं रही है, और न ही सांप्रदायिक कड़ाही को उबाल पर रखने की कोशिश भर है, यह सब तो कई दशकों से चल रहा है, लेकिन बीते कुछ वर्षों में यह सब एक सामान्य बात हो गई है यानी यह न्यू नॉर्मल हो गया है। अब सबस ज्यादा चिंता की बात है यह है कि हमारे संविधान के मूल सिद्धांतों को नजरंदाज कर कानून के शासन को बहुसंख्यकवादी ताकतों के अधीन कर दिया गया है और इस सब में सरकार की सहमति प्रतीत होती है।
पत्र में जो कुछ कहा गया है उससे असहमत नहीं हुआ जा सकता और मेरे विषय का मुद्दा आज वह नहीं है। इस पत्र के जवाब में 100 से अधिक सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारियों ने भी एक पत्र लिखा और खुलकर हिंदुत्व की राजनीति का समर्थन करते हुए पहले पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों पर कई तरह के आरोप लगाए और उन्हें एंटी नेशनल तक करार दिया। इस पत्र में रॉ के एक पूर्व प्रमुख और एक पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने दस्तखत किए।
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मेरे लिए ये सबकुछ बहुत की रोचक स्थिति है जो देश की सिविल सेवाओं यानी हमारी नौकरशाही की हालत को बयान करती है। आज भारत में जो कुछ हो रहा है उस पर सवाल उठाने वाला कोई नहीं है। ऐसे में उन दो आईएएस अधिकारियों का ध्यान आता है जिन्होंने सरकार के विरोध में सेवा छोड़ दी थी। इनमें एक थे युवा आईएएस अधिकारी कन्नन गोपीनाथन हैं जिन्होंने 2019 में कश्मीरियों पर लगाई गई पाबंदियों के विरोध में इस्तीफा दे दिया था। दूसरे हैं हर्ष मंदर थे जिन्होंने 2002 में गुजरात दंगों के बाद सरकारी सेवा से इस्तीफा दे दिया था।
बीते 20 साल में मैं सिर्फ दो ही अधिकारियों के बारे में सोच पा रहा हूं। हो सकता है ऐसे और भी अधिकारी हों, लेकिन बहुत अधिक नहीं होंगे, इतना तय है। ऐसा लगता है कि जो अधिकारी सेवा में बने हुए हैं वे या तो सरकार जो कुछ कर रही है उससे सहमत हैं या फिर वे किसी अन्य कारण से सेवा में बने हुए हैं। या फिर हो सकता है कि वे इस सबके आदी हो चुके हों और सरकार क्या कर रही है इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
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यह कोई छोटा मुद्दा नहीं है, यह भारतीय नैतिकता की झलक दिखाता है। इसका यह भी अर्थ है कि सरकारी प्रोत्साहन पर देश के अल्पसंख्यकों के खिलाफ जो हिंसा हो रही है उससे पूरी नौकरशाही एक तरह से सहमत ही है। इसका यह भी अर्थ है कि नोटबंदी के नाम पर गरीबों और आम लोगों की नकदी छीन लेने जैसी सरकार की सनकी आर्थिक नीतियों से जो देश का बेड़ा गर्क हो रहा है और जिससे गरीबों और कमजोरों का जीवन तबाह हो रहा है, उससे भी उन्हें फर्क नहीं पड़ रहा है। (वैसे तो यह मुद्दे ऐसे थे जिनके विरोध में अफसरों को इस्तीफे देने चाहिए थे)
इन्हीं सबसे एक और बात सामने आती है। अफसर तो आदेश का पालन करते हैं। इसका अर्थ है कि जो लोग बिना किसी कानूनी वैधता के गरीबों के घरों-दुकानों पर बुलडोज़र चलाते हैं और सुप्रीम कोर्ट के स्टे के बावजूद कार्रवाई जारी रखते हैं (जहांगीरपुरी मामले में ऐसा ही हुआ था), वे भी इस सबमें बराबर के भागीदार हैं।
आर्यन खान को लेकर एक अधिकारी के क्रूर रवैये को उसके सहयोगी और वरिष्ठ अधिकारी देखते रहे क्योंकि उन्होंने भांप लिया था कि सरकार भी इस तरह के उत्पीड़न को चाहती है।
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इंडिन एक्सप्रेस की एक हेडलाइन में लिखा था, “क्रूड ड्रग केस: एक अधिकारी बेकाबू हुआ, एजेंसी ने केस से आंखें मूंदी”...इस रिपोर्ट में लिखा था, “एसआईटी की आंतरिक रिपोर्ट में कहा गया है कि यह अजीब सी और हैरान करने वाली बात है कि ‘अरबाज (मर्चेंट) जिसके पास से बहुत ही मामूली मात्रा में चरस बरामद हुई थी, उसके साफ इनकार के बावजूद कि आर्यन खा का ड्रग से कोई लेना-देना नहीं है, पुलिस ने उसका मोबाइल फोन जब्त किए बिना ही उसके व्हाट्सऐप चैप को खंगाला। ऐसा लगता है कि जांच अधिकारी किसी भी हालत में आर्यन खान को इस केस में फंसाना चाहता था।’
सवाल है कि आखिर डिपार्टमेंट के उसके अन्य सहयोगियों या वरिष्ठों ने इस बेकाबू अफसर को एक निर्दोष व्यक्ति को फंसाने से क्यों नहीं रोका और पूरा देश सप्ताहों तक इस पूरे मामले को टकटकी लगाए देखता रहा? और इस दौरान मीडियाऔर बीजेपी सरकार उसका चरित्रहनन करती रहीं। जवाब वही है, या तो इस सब पर उनकी सहमति थी या फिर इस मामले में किसी भी किस्म के दखल देने की इजाजत नहीं थीं। या फिर उन्हें इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। सर्वाधिकार संपन्न किसी एजेंसी द्वारा किसी की जिंदगी से खेलना बेहद डराने वाला है। लेकिन इसकी पड़ताल तो होनी ही चाहिए।
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हाल के वर्षों में हमारी कई बदसूरत विशेषताएं उजागर हुई हैं कि यह नोटिस से बच गया है या उस पर उतनी टिप्पणी नहीं की गई है जितनी होनी चाहिए थी। ऐसा लगता नहीं किसी लोकतंत्र में जितना आंतरिक प्रतिरोध होना चाहिए, उतना हो रहा है। होना तो यह चाहिए कि जब एक शाखा में खराबी आने लगती है या कोई बेकाबू हो जाता है तो बाकी को इसमें दखल देना चाहिए। अमेरिकी इसे चेक-एंड-बैलेंस का नाम देते हैं और यह जिम्मेदारी न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका में से सबकी है और वहां सुनिश्चित किया जाता है कि इनमें से कोई भी अपने अधिकारों से बाहर न जाए। ऐसा माना जाता है कि सिस्टम में मौजूद व्यक्ति यानी जज, सिविल सर्वेंट्स, प्रशासक और चुने हुए प्रतिनिधि जब भी किसी भी समस्या को देखत हैं तो आगे आकर उसे दुरुस्त करते हैं। वहां यह सिस्टम काम करता है, लेकिन हमारे यहां ऐसा नहीं है। हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि आखिर नैतिकता और निजी जिम्मेदारी की दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इतनी कमी क्यों है।
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