विचार

NSD ने उत्पल दत्त के लिखे नाटक 'तितुमीर' के मंचन को क्यों किया रद्द, ये सरकार विरोधी नाटक तो नहीं?

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दुनिया के चंद अग्रणी थिएटर संस्थानों में एक और भारत में अपनी तरह के एकमात्र के तौर पर जाना भले जाता हो, बीते कुछ सालों में अनेक कारणों से इस स्वायत्तशासी संस्था की साख पर बट्टा लगा है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

भारत रंग महोत्सव में उत्पल दत्त के नाटक ‘तितुमीर’ का मंचन आमंत्रण के बाद ‘तकनीकी आधार पर’ रद्द करना इसलिए भी गले नहीं उतर रहा कि इसी नाटक का मंचन एनएसडी कुछ साल पहले अपने इसी महोत्सव में कर चुका है और उसे अच्छी तरह पता है कि नाटक में क्या है! क्या नाटक सरकार विरोधी है? हां, यह सरकार विरोधी है, लेकिन ब्रिटिश सरकार (तब की) विरोधी!

ऐसे ही कई सवाल-जवाब के बाद नाटक तितुमीर का मंचन देश के प्रतिष्ठित ड्रामा स्कूल राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) ने रद्द कर दिया। यह सब तब हुआ जबकि नाटकों के सालाना उत्सव भारत रंग महोत्सव (भारंगम) के लिए इसका चयन खुद एनएसडी ने किया था और प्रविष्टि अपनी ओर से आमंत्रित की थी। इसे दिल्ली के कमानी प्रेक्षागृह में 22 फरवरी को खेला जाना था।

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राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने भारंगम के लिए एक तयशुदा नाटक का मंचन क्यों रद्द किया इसका असली कारण तो अभी तक कोई जिम्मेदार ठीक-ठीक नहीं बता सका, लेकिन रंगमंच की दुनिया से जुड़े लोग एनएसडी के मौजूदा परिदृश्य में इसे ‘एक और दृश्य परिवर्तन’ मात्र मानते हैं। एनएसडी पिछले कुछ सालों से अपनी नीतियों के चलते विवाद में रहा है। हां, ताजा घटनाक्रम रंगमंच कलाकारों, नाट्य चिंतकों और बुद्धिजीवियों के लिए जरूर बड़ी चिंता का विषय बनकर आया है। अनायास नहीं है कि इस फैसले से हैरान प्रख्यात रंगकर्मी एमके रैना इसे ‘उत्कृष्टता के केन्द्र के रूप में स्थापित एनएसडी के अंत की शुरुआत’ के रूप में देखते हैं। एनएसडी फिलहाल तो यही कह रहा है कि संस्था ने नाटक का वीडियो समय पर नहीं भेजा इसलिए तकनीकी आधार पर यह फैसला लेना पड़ा लेकिन उसके पास इस बात का कोई सीधा जवाब नहीं है कि अगर उसकी कमेटी ने पहले इसका चयन किया तो किस आधार पर किया? और रद्द करने का फैसला हुआ तो उसका तार्किक कारण क्या है? वह भी तब जब इतने चर्चित नाटक जिसका मंचन उसके मूल स्वरूप और मूल संस्था ‘लिटिल थिएटर ग्रुप’ की प्रस्तुति के तौर पर एनएसडी इसी भारंगम में पहले भी कर चुका हो। महान नाटककार उत्पल दत्त द्वारा 1978 में लिखित इस नाटक मंचन हावड़ा के थिएटर ग्रुप ‘परिबर्तक’ की ओर से दिल्ली के कमानी ऑडिटॉरियम में 22 फरवरी को जॉयराज भट्टाचार्जी के निर्देशन में प्रस्तावित था। तितुमीर आजादी की लड़ाई में बंगाल के उस गुमनाम नायक की कहानी है जिसने 1831 के चर्चित नारकेलबेरिया विद्रोह का नेतृत्व किया था और जिसे अंग्रेजों के खिलाफ पहला सशस्त्र किसान विद्रोह माना जाता है।

ऐसे में विवाद स्वाभाविक है। सवाल उठ रहे कि उत्पल दत्त का यह नाटक इसलिए रद्द हुआ कि यह बंगाल के किसान विद्रोह की बात करता है? या महज इसलिए इसका नायक, यानी नाटक का केन्द्रीय पात्र एक मुस्लिम विद्रोही युवा है? या इसलिए कि बंगाल में इसके प्रदर्शनों के दौरान बीते दिनों में इसे बीजेपी और उसके संगठनों के विरोध का सामना करना पड़ा और यह जानकारी एनएसडी के नियामकों को चयन के बाद मिली?

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यह सब तब हुआ जबकि संस्था को इस नाटक के मंचन का न्योता स्वयं एनएसडी ने दिया था। भारंगम के लिए नाटकों के चयन की दो व्यवस्थाएं हैं: पहला, इच्छुक नाट्य संस्था इसके लिए स्वयं आवेदन करे और दूसरा, ड्रामा स्कूल, यानी एनएसडी अपनी ओर से निमंत्रण दे। नाटक के निर्देशक जॉयराज का कहना है कि उनके नाटक का चयन दूसरी व्यवस्था के तहत हुआ, यानी मंचन का आमंत्रण मिला। बताते चलें कि इस बार भारंगम की थीम ‘आजादी के गुमनाम नायक’ है और तितुमीर इस थीम पर सटीक बैठता है।

नाटक का कथानक आजादी पूर्व का है और तितुमीर इसके गुमनाम नायक हैं जिनकी चर्चा कम ही हुई है। उत्पल दत्त लिखित इस नाटक की बात करते हुए याद दिलाना जरूरी है कि साठ के दशक और फिर आपातकाल के दौर में उत्पल दत्त किस तरह घूम-घूम कर नाट्य प्रस्तुतियां करते थे और स्वाभाविक रूप से उनके नाटक व्यवस्था विरोधी ही होते थे। बंदिश के कारण वह सुदूर इलाकों में नाटक करने जाते और जब तक पुलिस पहुंचती, अपनी टीम के साथ किसी छपामार दस्ते की तरह चकमा देकर कहीं और निकल जाते और वहां वही नाटक किसी दूसरे नाम से खेलते। उनकी इस छपामार शैली ने उस दौरान बंगाल की व्यवस्था के लिए खासी दिक्कतें पैदा कीं। उनके लिखे और निर्देशित कई नाटक इन अर्थों में विवादों में भी रहे। 1963 का उनका बहुचर्चित नाटक ‘कल्लोल’ खासा विवादों में रहा जिसमें नौसैनिक विद्रोह की कहानी थी। 1965 में तो अपनी नाट्यगतिविधियों के कारण जेल भी जाना पड़ा। आपातकाल के दौरान उनके लिखे नाटक बैरीकेड, सिटी ऑफ नाइटमेयर्स और इंटर द किंग खासे चर्चित हुए, प्रतिबंधित भी। उत्पल दत्त मानते थे कि वह मूल रूप से नाट्यकर्मी हैं और जीविका के लिए फिल्में भी कर लेते हैं। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा भी कि ‘मुझे तो जनता के बीच जाना था और यह काम नाटक के जरिये ही संभव था। सिनेमा तो रोजी-रोटी या थिएटर चलता रहे, इसके लिए करना पड़ा।’ यह अलग बात है कि उन्हें आमतौर पर फिल्म अभिनेता के तौर पर ही याद किया जाता है। उत्पल दत्त का 1993 में निधन हो गया।

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‘द वायर’ की रिपोर्ट के अनुसार, नाटक के निर्देशक जॉयराज भट्टाचार्जी का कहना है कि ‘एनएसडी द्वारा आमंत्रित नौ नाटकों में से पहला नाटक होने के कारण अब संस्था द्वारा अचानक इसका मंचन रद्द करने का फैसला स्तब्ध करने वाला है। मेरे लिए यह बहुत साफ है कि ऐसा क्यों हुआ? नाटक के नायक तितुमीर आजादी की लड़ाई के गुमनाम नायक हैं लेकिन क्योंकि वह एक मुसलमान हैं और नाटक कौमी एकता का संदेश देता है इसलिए उन्हें सूट नहीं करता। और अब यह बहुत साफ है कि अफसर, एनएसडी, संस्कृति मंत्रालय और मौजूदा सरकार ऐसे किसी नायक या उसकी बात सामने आने देना ही नहीं चाहते, जिसमें जरा सा भी संदेश जाने की गुंजाइश हो।’ भट्टाचार्जी का कहना है कि उनसे फोन पर कुछ सवाल पूछे गए जिसमें यह सवाल भी था कि: “क्या इसमें सत्ता का विरोध है?” मैंने उनसे कहा: “यह था लेकिन ब्रिटिश सरकार विरोधी था।”

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दुनिया के चंद अग्रणी थिएटर संस्थानों में एक और भारत में अपनी तरह के एकमात्र के तौर पर जाना भले जाता हो, बीते कुछ सालों में अनेक कारणों से इस स्वायत्तशासी संस्था की साख पर बट्टा लगा है। इसकी स्थापना 1959 में संगीत नाटक अकादमी के घटक के तौर पर हुई और 1975 ने इसे इसका पूर्ण स्वायत्तशासी स्वरूप मिला। इब्राहीम अलकाजी, आमाल अल्लाना, नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, शबाना आजमी, देवेंद्र राज अंकुर, रामगोपाल बजाज सहित अभिनेताओं-नाट्य निर्देशकों की लंबी और समृद्ध परंपरा का गवाह रहा यह संस्थान लंबे समय से एक पूर्णकालिक निदेशक की कमी से जूझ रहा है और तदर्थवाद का शिकार है। रंगकर्मी ताजा विवाद को भी इसी तदर्थवाद से जोड़कर देख रहे हैं।

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याद दिलाना जरूरी है कि पिछले दिनों लगभग ढाई सौ कलाकारों, लेखकों और पूर्व फैकल्टी सदस्यों ने एनएसडी के अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर कथित तौर पर धार्मिक क्रियाकलाप को बढ़ावा देने के मामले पर गंभीर चिंता जताई थी और इन्हें हटाने की मांग की थी। संस्था में पूर्णकालिक निदेशक की नियुक्ति की मांग भी लंबे समय से लम्बित है और इसे इसके पतन का बड़ा कारण माना जा रहा है।

चर्चित नाट्य लेखक और उपन्यासकार हृषीकेश सुलभ कहते हैं: “तितुमीर नाटक का हटाया जाना एक ऐसी प्रवृत्ति का संकेतक है जो भविष्य में रचनात्मक दुनिया के लिए तमाम संकट पैदा करेगा।” सुलभ भारंगम की नाटक चयन प्रक्रिया में उलझाव का सवाल भी उठाते हैं और किसी योग्य और प्रशिक्षित रंगकर्मी को यहां का निदेशक बनाने की जरूरत बताते हैं।

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हालांकि विभिन्न मीडिया माध्यमों की रिपोर्ट के मुताबिक, एनएसडी निदेशक आरसी गौड़ इन आरोपों को खारिज करते हुए इसी बात पर अडिग हैं कि नाटक का मंचन सिर्फ ‘प्रक्रियागत वजहों’ से रोका गया है। लेकिन यह बात किसी के गले नहीं उतर रही। भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के राष्ट्रीय महासचिव राकेश इसे “रंगमंच, साहित्य, कला और संस्कृति की स्वायत्तता की अवमानना के साथ अनैतिक भी मानते हैं।” पूरे प्रकरण में दिल्ली स्थित जन नाट्य मंच की अध्यक्ष मलयश्री हाशमी का बयान महत्वपूर्ण है कि अगर एनएसडी के आयोजन भारंगम की थीम आजादी के गुमनाम नायकों की बात करती है, तो तितुमीर इसमें एकदम सटीक बैठता है: “क्या एनएसडी नहीं जानता कि तितुमीर नाटक में क्या है? यह सवाल पूछना ही नासमझी भरा है। यह पूरा नाटक और इसका केन्द्रीय पात्र तितुमीर- दोनों अपने आप में ऐसे हैं जिसके बारे में आज की पीढ़ी को जानना ही चाहिए।”

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