अपने देश के आधुनिक इतिहास में महात्मा गांधी सबसे महान व्यक्तित्व हैं। फिर भी, भारत उनके आदर्शों और सिद्धांतों से अलग हटता गया। पिछले छह साल के दौरान तो भारत बहुत तेजी से बापू के आदर्शों से दूर हुआ है। आलम अब यह है कि हमारे राष्ट्रीय जीवन में महात्मा गांधी कभी-कभी ही याद किए जाने वाले बनकर रह गए हैं। हद तो यह है कि बापू पर अब कई तरह के दोष मढ़े जा रहे हैं- कहा जा रहा है कि, सत्य और अहिंसा के प्रति अपनी आग्रहपूर्ण हिमायत की वजह से उन्होंने देश को शक्तिहीन बना दिया; मुसलमानों के ‘तुष्टिकरण’ की वजह से ऐसा नुकसान पहुंचाया कि अखंड भारत का कथित विभाजन करना पड़ा; सरदार वल्लभ भाई पटेल की जगह पंडित जवाहरलाल नेहरू को आजाद भारत का पहला प्रधानमंत्री बनवा दिया- यह ऐसा फैसला था जिसने कथित तौर पर ऐसी कई समस्याएं पैदा कीं जो आज भी बनी हुई हैं; और भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने के एजेंडे को पूरा करने में वह वैचारिक अवरोध बने हुए हैं।
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उन पर ये आक्षेप लगाने वाले वे हैं जो आज सत्ता में हैं और उनके समर्थकों की बड़ी तादाद है। इनमें अधिक वैसे उग्र लोग भी हैं जो गांधी जी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के साथ-साथ वी डी सावरकर समेत हत्या का षड्यंत्र रचने वालों की प्रशंसा करने से भी नहीं हिचकिचाते। बल्कि सावरकर को ‘भारत रत्न’ से नवाजने का अभियान भी चल रहा है। नरेंद्र मोदी सरकार ने फिलवक्त यह विचार संभवतः इसलिए छोड़ दिया क्योंकि इस अपराध में सावरकर के मददगार और सहायक होने की ओर ले जाने वाली संदेह की सुई काफी मजबूत है। लेकिन सरकार बचे हुए चार साल में इस घातक विचार के पीछे लगी रह सकती है।
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गांधीजी की हत्या में गोडसे का अपराध कभी संदेह में नहीं रहा। तब भी, बीजेपी की स्टार सांसदों में से एक प्रज्ञा सिंह ठाकुर को गोडसे को ‘राष्ट्रभक्त’ कहने में कोई शर्म नहीं आई। ऐसा करते हुए वह बीजेपी और आरएसएस के काफी सारे लोगों के ढके-छुपे मत को दोहरा रही थीं। इस टिप्पणी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए मोदी ने यह जरूर कहा कि ‘मैं बापू को अपमानित करने के लिए उन्हें कभी माफ नहीं कर पाऊंगा।’ फिर भी, आज की तारीख तक देश नहीं जानता कि इतने ‘शक्तिशाली’ प्रधानमंत्री ने अपनी बातों पर अमल करने के लिए क्या किया है। उनकी इस किस्म की निष्क्रियता के कारण समझने के लिए खोजबीन करना मुश्किल नहीं है। प्रज्ञा ठाकुर भगवा कपड़े धारण करती हैं और उस भगवा परिवार में उनकी गहरी पैठ है जो मोदी की पार्टी का आधार है।
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यह महात्मा गांधी के लिए भगवा परिवार की गहरी घृणा ही है कि इस साल 2 अक्टूबर को समाप्त हो रही 150वीं जन्म वर्षगांठ का उत्सव इतना ठंडा रहा। पूरा साल खत्म हो रहा है लेकिन सरकार ने गांधी जी के ओजपूर्ण जीवन और उनकी विरासत के राष्ट्रीय तथा वैश्विक औचित्य के बारे में लोगों को बताने को लेकर किसी भी किस्म की रुचि नहीं दिखाई। प्रधानमंत्री ने दुनिया के प्रमुख विशिष्ट लोगों की भागीदारी वाले एक भी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के आयोजन का कोई प्रयास नहीं किया। न तो उन्होंने राष्ट्रपिता के सम्मान में पूरे राजनीतिक प्रतिष्ठान को एकसाथ लाने के लिए कोई राष्ट्रीय बैठक ही आयोजित की। लोगों के लिए राष्ट्रीय एकता का विश्वास दिलाने वाला यह कैसा संदेश होता! हम भारत के दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गौरव करते हैं। लेकिन हमारा लोकतंत्र कितना खंडित और अशक्त बन गया है कि सत्तारूढ़ दल देश को उस व्यक्ति को साथ श्रद्धांजलि देने के लिए विपक्ष को जगह और आवाज नहीं देना चाहता जो देश को एकताबद्ध करने में सबसे आगे था।
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क्या गांधी जी को अपनी श्रद्धांजलि देने के लिए एक पार्टी के तौर पर बीजेपी ने कुछ किया? नहीं। बीजेपी के वैचारिक नियंत्रक और उसकी संगठनात्मक रीढ़ आरएसस ने 2013-14 में स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती मनाने के लिए अपने पूरे कैडर को सक्रिय किया था। लेकिन 2019-20 में गांधी जी के संदर्भ में इस तरह का कोई प्रयास उसने दूर-दूर तक नहीं किया।
निश्चित तौर पर, मोदी सरकार, उनकी पार्टी और संघ परिवार से इस तरह की अपेक्षा करना बेकार है। आखिर, सत्ता में बेजेपी का बना रहना भारत के बहुलतावादी समाज के अनवरत सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर निर्भर है। इस प्रयास की सफलता के लिए यह सच्ची ‘राष्ट्रीयता’ (भारतीय राष्ट्रीयता ) के तौर पर हिंदुत्व (हिंदू राष्ट्रीयता) को उभारकर बहुसंख्यक समुदाय का चतुराई पूर्वक प्रयोग और दोहन कर रही है। इस तरह का प्रयोग तब ही संभव है जब वह भारतीय मुसलमानों को या तो ऐसे ‘पराये’ के तौर पर दिखाए जिनकी देश के प्रति निष्ठा संदिग्ध हो या वे इस तरह ‘सच्चे भारतीय’ से कम बता जाएं जिन्हें हिंदू मुख्यधारा में ‘शामिल किए जाने’ की जरूरत हो।
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महात्मा गांधी आज होते, तो दोनों बातों से भयातुर हो जाते- जो पाकिस्तान ने किया है और जो भारत बीजेपी के शासन में कर रहा है। हिंदू-मुस्लिम बंधुत्व और एकता उनके दर्शन का दिल और उसकी आत्मा थी जिसने आजादी के आंदोलन को दिशा दी। इन दो श्रेष्ठ कारणों की सेवा में उन्होंने अपना बलिदान दे दिया- सांप्रदायिक सद्भाव और भारत-पाकिस्तान मिलाप। मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली बीजेपी के राजनीतिक नेतृत्व के एजेंडे को इन दोनों में से कोई भी कारण मदद नहीं करता है। गांधी जी के 150वें जन्मोत्सव को मनाने में इस सरकार की अरुचि की यह मुख्य वजह है।
गांधी जी मतभिन्नता की आजादी और सकारात्मक आलोचना समेत लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों और स्वतंत्रता के कट्टर समर्थक थे। वह प्रेस की आजादी और न्याय व्यवस्था की ईमानदारी के लिए लगातार जूझे। उन्होंने प्रशासन की ऐसी व्यवस्था के लिए लड़ाई लड़ी जो नस्ल, जाति, वर्ग और राजनीतिक विचारधारा के आधार पर नागरिकों के साथ भेदभाव न करे। ये बातें इस सरकार के लिए अभिशाप हैं।
महात्मा गांधी की 150वीं जयंती अब समाप्तहो रही है। लेकिन बेहतर भारत और बेहतर दुनिया के उनके मिशन में सच्चा विश्वास करने वाले लोगन तो थम सकते हैं, न रुक सकते हैं। हमारे लिए वह नैतिक दिशानिर्देशक और व्यावहारिक प्रेरणास्रोत के अनंत स्रोत बने रहेंगे।
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