एक चैनल में एक मुसलमान महिला ने हिजाब पर बात करते हुए कहा कि पर्दा तो आंखों की बरौनियां तक हवा से करती हैं। वह पर्दे के पक्ष में बोल रही थीं। तब एक मुस्लिम महिला ने ही पूछा कि यह औरतों के लिए ही क्यों, मर्दों के लिए क्यों नहीं, तो दूसरे महोदय बोले- मर्द बाहर जाकर काम करते हैं। पर्दा करेंगे, तो काम कैसे करेंगे। इस पर कई महिलाओं ने कहा कि क्या औरतें बाहर जाकर काम नहीं करतीं। तब आप उन्हें ही पर्दे के लिए मजबूर कैसे कर सकते हैं।
कई साल पहले एक आदमी ने अपनी पांच साल की बेटी को सिर्फ इसलिए मार दिया था कि उसके सिर से दुपट्टा खिसक गया था। बहुत से लोग बताते हैं कि आजकल नन्हीं बच्चियों को भी सिर से पांव तक ढकने का रिवाज बढ़ा है। तर्क दिया जा रहा है कि हम नहीं चाहते कि हमारी बच्चियों, घर की महिलाओं पर किसी की बुरी नजर पड़े। यानी कि जो बुरी नजर डाल रहे हैं, उनसे कोई कुछ नहीं कहना चाहता। जो इस तरह के अपराधी हैं, उन्हें सबक सिखाने के मुकाबले अपने घर की औरतों पर ही ऐसे विचार के कोड़े बरसाते हैं।
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जब से कर्नाटक में मुसकान नाम की लड़की ने हिजाब के पक्ष में आवाज उठाई, तब से अजब-अजब तर्क सामने आए हैं। कोई इसे अपने धर्म का मामला बता रहा है, तो कोई निजी ‘चॉइस’ का। ये निजी ‘चॉइस’ भी बड़ी गजब की चीज है। जो इसे कहकर औरतों के बड़े हितैषी बन रहे हैं, क्या वे अन्य मामलों में भी औरतों की ‘चॉइस’ या उनकी राय का सम्मान करेंगे। उनकी शिक्षा, जीवन साथी के चुनाव, घर से बाहर नौकरी आदि के लिए वैसे ही ‘चॉइस’ की वकालत करते पाए जाएंगे, जैसी कि हिजाब के संबंध में कर रहे हैं। बड़ी संख्या में हर तरफ के लोग अब ये भी कहने लगे हैं कि हमारा धर्म, हम जानें। हमारी औरतें कैसे रहें, क्या करें, हिजाब पहनें या घूंघट काढ़ें, ये हम जानें या वे जानें, आप बीच में बोलने वाले कौन।
सच तो यह है कि इसी तर्क से औरतों की वह पिटाई शुरू होती है जिससे वे सदियों से परेशान रही हैं। पर्दा भी उनमें से एक है। कोई और बोलेगा नहीं, और हम तरह-तरह के डर दिखाकर उन्हें बिल्कुल वहीं खदेड़ेंगे जहां हम चाहते हैं। हर धर्म ने अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए औरतों को नाना प्रकार से दबाया है। औरतों की जरा-सी भी आजादी इतनी डराती है कि मेरा शरीर मैं जानूं का स्त्रीवादी तर्क तीन सौ साठ डिग्री घुमाकर, उनके सबसे बड़े दुश्मन पर्दे के पक्ष में खड़ा कर दिया जाता है। वैसे स्त्रीवादी कोई भी विचार नापसंद है। औरतों के लिए सारी नैतिकता और मर्यादा पुरुषों ने ही तय की है क्योंकि सारे शास्त्र उन्होंने ही लिखे हैं। इसीलिए औरत का चाहे दम घुटे, चाहे वह गरमी से परेशान हो, उसे घूंघट, हिजाब, पर्दा तमाम तरह की बंदिशें झेलनी हैं। यहां तक कि लड़की का जन्म भी। और दुखद यह भी है कि उन्नत तकनीकों, जैसे ऐम्नीओसेन्टीसिस या अल्ट्रासाउंड ने भी लड़कियों को मारने में अभूतपूर्व भूमिका निभाई है। इस मामले में किस तरह एक–दूसरे के विरोधी विचार, धर्म और विज्ञान एक ही जगह खड़े दिखाई देते हैं।
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हरियाणा में कुछ साल पहले एक सरकारी पत्रिका में घूंघट को स्त्री अस्मिता और मर्यादा से जोड़ा गया था, तो सरकार की खूब आलोचना हुई थी। अगर पर्दा वाकई इतनी अच्छी चीज है, तो गांधी जी ने इसके खिलाफ आंदोलन क्यों चलाया था। फिर घूंघट या हिजाब को स्त्री मर्यादा से जोड़ना कहां का न्याय है। क्या जो स्त्रियां पर्दा नहीं करतीं, हिजाब नहीं पहनतीं, वे मर्यादाहीन होती हैं। आप उनकी मर्यादा को तय करने वाले कौन होते हैं। अपनी मर्यादा वे खुद ही तय कर लेंगी। आज से 40-50 साल पहले नौकरी करने वाली स्त्रियों को भी हमारा समाज बहुत शक की नजर से देखता था। उन्हें मर्यादाहीन करार दिया जाता था। अगर ऐसी ही बातें मानी जातीं, तो न तो महिलाएं पढ़ती-लिखतीं, न ही आत्मनिर्भर बनतीं। सोचिए, देश की करोड़ों कामकाजी औरतों के लिए यदि घूंघट, हिजाब, बुर्का अनिवार्य कर दिया जाए, तो उनका क्या होगा। देखा जाए, तो बड़ी मुश्किल से औरतों ने इन मुसीबतों से मुक्ति पाई है। जहां उन पर ये चीजें जबरिया लदी हैं, वहां ईरान-जैसा हाल कब हो जाएगा, कहा नहीं जा सकता। यदि सारी सुविधाएं आज की चाहिए, तो सदियों पुराने विचार को किसी पर कैसे लादा जा सकता है। और तरह-तरह की मर्यादा की इतनी चिंता है, तो श्रीमान औरतों का पीछा छोड़कर, आप इन्हें अपना लीजिए। निकलिए सड़क पर चार हाथ का घूंघट मारकर या बुर्का पहनकर।
जब से ईरान में हिजाब के खिलाफ आंदोलन होने लगा है, यहां की वे बहुत-सी स्त्रीवादी, पढ़ी-लिखी औरतें जो कल तक हिजाब को स्त्री की अपनी ‘चॉइस’ का मामला बता रही थीं, वे इधर-उधर होने लगीं। भई गति सांप–छछूंदर केरी। एक मशहूर अंग्रेजी महिला पत्रकार जो मुसलमान भी हैं ने कहा कि मुस्लिम होने के नाते, वह अपनी ईरानी बहनों के साथ हैं, तो उनके धर्म वाले और हिन्दू तथा अन्य लोग उन पर टूट पड़े। उनके धर्म वाले कहने लगे कि तुम तो हिजाब पहनती नहीं, तो तुम इसकी पवित्रता के बारे में क्या जानो। दूसरे बोले, इतने दोहरे मानक क्यों, भारत में हिजाब के पक्ष में और ईरान में हिजाब के विरोध में।
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पिछले दिनों ऐसा ही कुछ इस लेखिका के साथ हुआ। एक फेसबुक मित्र ने हिजाब के बारे में एक पोस्ट लिखी। तब इस लेखिका ने लिखा कि हिजाब और घूंघट एक जैसी कुरीतियां हैं। तो लोग कहने लगे कि जब भी हिजाब की बात होती है, लोग घूंघट को ले आते हैं। घूंघट हमारी मर्यादा है और हिजाब थोपा हुआ। एक महिला ने तो ऐसे जोरदार छक्के लगाए कि उनका ज्यादा जवाब देना भी उचित नहीं लगा। बहुत से लोग इस वीरता के लिए उनकी खूब तारीफ करने लगे, बधाई देने लगे, तो उस महिला ने गर्व से लिखा- नेल्ड।
सोचें कि हम किस दौर में जा पहुंचे। एक समय में किसी भी धर्म-जाति के बुद्धिजीवी, प्रगतिशील सोच वाले इस बात पर एकमत दिखाई देते थे कि जब तक औरतों के जीवन से पर्दा नहीं उठाया जाता, तब तक उनकी तरक्की नहीं हो सकती। पर्दा औरत को दोयम दर्जे की नागरिकता सौंपता है। आखिर पर्दे को जिस तरह से स्त्री की नैतिकता, मर्यादा से इन दिनों जोड़ा जा रहा है, तो क्या तब कही गई बातें गलत थीं। नैतिकता को ढोने का सारा भार स्त्रियों के कंधे पर ही क्यों होना चाहिए।
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अगर आस्था के नाम पर हम सब बातों का समर्थन ही करते रहेंगे, तब तो कुछ बदल ही नहीं सकता। सुना जाता है कि जब राजा राममोहन राय तथा अन्य लोग सती प्रथा के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे, तब सती समर्थकों ने महिलाओं का एक जुलूस निकलवाया था कि वे सती होना चाहती हैं। सती होने को भी महिलाओं की अस्मिता से जोड़ा गया था। यही अनुभव 1987 में हुआ जब राजस्थान के दिवराला गांव में रूपकंवर सती हो गई थी। तब भी सती समर्थक उठ खड़े हुए थे। राजस्थान में जनता पार्टी के एक बड़े नेता ने तीन चुन्नियां दिखाते हुए कहा था कि हम तो आज भी सती होने के लिए अपनी बेटियों को चुन्नी देते हैं। बीजेपी की एक वरिष्ठ नेत्री बोलीं थीं कि सती होना स्त्री का अपना अधिकार है।
पहचान की राजनीति (आइडेंटिटी पालिटिक्स) के इस दौर में जहां सब अपने को ही महान बताने पर तुले हैं और हमेशा अपने बरक्स किसी दूसरे को छोटा और कमतर दिखाने पर तरह-तरह के तर्क दे रहे हैं, उसमें ऐसा लगता है कि अब हमें परंपरा, धर्म और ‘चॉइस’ के नाम पर तमाम उन बातों से भी समझौता कर लेना चाहिए जो स्त्री विरोधी हैं। एक तरफ फेमिनिज्म की वह धारा है जो सिवाय एग्रेसिवनैस के और कुछ जानती ही नहीं, तो दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं जो आजादी और ‘चॉइस’ का हवाला देकर हर तरह की कुरीति, अंधविश्वास, सदियों पुराने विचारों को औरतों के सिर और पीठ पर दोबारा लादने को तैयार हैं। परंपरा के नाम पर हम दूसरे से कितने अधिक पिछड़े दिख सकते हैं, इस बात की स्पर्धा हो रही है। हम तालिबानों की निंदा करते हुए भी उन्हीं की राह पर अग्रसर होते दिखाई देते हैं।
(क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार और जानी-मानी रचनाकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)
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