बेशक यहां संसद का ठीक तरह से चलना ईद के चांद जैसी घटना हो गई है, फिर भी ऐसे ही एक अवसर पर सरकार ने जानकारी दी कि इस साल अब तक 1,83, 473 भारतीय अपनी नागरिकता छोड़कर ऐसे देशों में जा बसे हैं जिनमें ‘विश्वगुरु’ बनने की कोई चाह नहीं।
वर्ष 2014 में केन्द्र सरकार की बागडोर नरेन्द्र मोदी ने संभाली, तब से इस तरह देश छोड़कर बाहर बसने वालों की तादाद 12 लाख हो चुकी है। ये सब धनी-मानी लोग हैं जिन्होंने किसी और देश की नागरिकता पाने के लिए करीब 10 लाख डॉलर खर्च किए। जाहिर है, हमने अरबों डॉलर हमेशा-हमेशा के लिए यूं ही निकल जाने दिया।
किसी भी समझदार सरकार ने ऐसा नहीं होने दिया होता और यह जानने की कोशिश करती कि आखिर इसकी वजह क्या है। लेकिन हमारी ‘डबल इंजन-सिंगल ड्राइवर’ सरकार ने ऐसी कोई कोशिश नहीं की। इसलिए, मैंने तय किया कि फ्रीडम हाउस, डेम इंस्टीट्यूट, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स, मार्टिना नवरातिलोवा, मलाला यूसुफजई जैसों को उद्धृत किए बिना मैं खुद इसकी तहकीकत करूंगा क्योंकि हम जानते हैं कि ये सब तो ‘टुकड़े-टुकड़े’ गिरोह का हिस्सा हैं।
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सवाल यह उठता है कि सदियों पहले जहां अफ्रीका और यूरोप से लोग भारत में आए, आज यहां से वापस क्यों जा रहे हैं? एक तरह से यह रिवर्स माइग्रेशन है। मैंने मामले की तह तक पहुंचने के लिए छोटे पैमाने पर एक सर्वे किया। ऐसा लगता है कि ‘भक्तों‘ द्वारा जिस तरह बार-बार लोगों को सलाह दी जाती है कि वे पाकिस्तान चले जाएं, उससे कुछ लोग हतोत्साहित हुए होंगे। वैसे, अब पाकिस्तान भी कोई बहुत बुरा विकल्प नहीं है, वहां लाखों-करोड़ों कमाना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं रह गया है, बशर्ते सेना या फिर नवाज शरीफ की पार्टी में किसी से पहचान हो। और फिर वहां की बिरयानी तो लाजवाब है ही!
अगर आप ऐसा सोचते हैं, तो आप हालात को थोड़ा गलत आंक रहे हैं। हमारे यहां के धनी-मानी लोगों को यह चिंता सताने लगी है कि कल होकर ट्रंप, ऋषि सुनक और जॉर्जिया मिलोनी जैसे नेता बाहर से आए लोगों के बसने के लिहाज से अपने दरवाजे पूरी तरह बंद कर लें या फिर पुतिन की सनक के कारण वापस हिमयुग आ जाए, इसके पहले ही कोई सुरक्षित ठिकाना ढूंढ़ लिया जाए। इस लिहाज से सोमालिया, कांगो, हैती या टोंगा पसंदीदा स्थल के तौर पर लोकप्रिय हो रहे हैं।
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इसके अलावा दूसरी वजहें भी हैं जैसा कि कुछ लोगों ने मुझसे निजी बातचीत में स्वीकार किया। उनकी आशंकाएं कुछ इस तरह हैं- 2024 में मौजूदा कार्यकाल खत्म होने के बाद निर्मला सीतारमण दोबारा वित्तमंत्री बन जाएं, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी ‘तपस्या’ पूरी कर लेने के बाद योगी आदित्यनाथ की प्रधानमंत्री के रूप में ताजपोशी, जरूरी कांग्रेस विधायकों को राजी करके हिमाचल में कंगना रनौत के सत्ता संभालने की स्थितियां बना दी जाएं, चीन के भारत पर कब्जे की संभावनाओं, ईवीएम में इस तरह के ‘खेला’ का और व्यापक हो जाना जिसमें लोग पोलिंग बूथ पर जाएं न जाएं नतीजा जो आना है, वही आए या फिर विवेक अग्निहोत्री को भारत रत्न से सम्मानित किया जाना।
अब, ये सभी गंभीर किस्म के पूर्वाभास हैं लेकिन यही मुख्य वजह नहीं है। असली वजह कुछ और है। मेरे शोध से पता चलता है कि हमारे ये संपन्न लोग न तो अर्थव्यवस्था के कारण देश छोड़ रहे हैं और न ही अनिश्चितताओं के कारण। वे इसलिए भारत से मुंह मोड़ रहे हैं कि यहां आपकी ‘अंडरवियर का रंग’ क्या हो, यह मायने रख रहा है। यह बात फिल्म ‘पठान’ में दीपिका पादुकोण की बिकिनी के भगवा रंग को लेकर चल रहे हो-हल्ला से जाहिर भी हुई है। मैंने गाने की क्लिप देखी है और इस बात पर गौर किया कि हालांकि बिकनी दीपिका के शरीर को ज्यादा कवर नहीं करती है लेकिन इसने अपने आप में बहुत अधिक कवरेज प्राप्त कर लिया है!
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बिकनी को लेकर बहुसंख्यकों के बीच हल्ला-गुल्ला उस व्यापक मानसिकता का ही हिस्सा है जिसे हमारे दक्षिणपंथी दोस्त फैला रहे हैं। कपड़ों को लेकर यह जो ‘आसक्ति’ है, हो सकता है कि इसका कोई सेक्सुअल एंगल न हो। संभव है कि मैं कुछ बहक रहा हूं लेकिन ‘जूते मारो सालों को’ का नारा लगाने या अल्पसंख्यकों को बात-बात पर कोसने या फिर मस्जिदों को गिराने को ध्यान में रखते हुए बात करें, तो यह साफ है कि यह मामला उतना छोटा नहीं, जितना दिखता है।
महिलाओं के कपड़ों को लेकर ये लोग हमेशा से दकियानूस रहे हैं। सबसे पहले कॉलेज में जीन्स और टॉप का मामला उठा, फिर सलवार-कमीज, फिर हिजाब और बुर्का और अब बिकनी पर हंगामा खड़ा हो गया है। महिलाओं को आखिर क्या पहनना चाहिए, इस बारे में वे कोई फैसला नहीं कर पा रहे हैं।
अब तो बात कपड़ों से आगे निकलकर उसके रंग तक आ पहुंची है। दीपिका की भगवा बिकनी ने उन्हें बहुत आहत किया है। मेरे पीआईओ उत्तरदाताओं ने कहा कि वे बिना भगवा अंडरवियर पहने रह सकते हैं लेकिन सवाल तो यह है कि वे बिना किसी हंगामे के किन रंगों के अंदरवियर पहन सकते हैं?
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आज के भारत में इस पेचीदा सवाल का कोई आसान जवाब नहीं है। भगवा भाजपाइयों को आहत करने वाला है, लाल पर कम्युनिस्ट लाल हो जाएंगे, हरा हुआ तो ओवैसी विरोध में उतर आएंगे, नीले रंग पर ममता बनर्जी का चेहरा बैंगनी हो जाएगा, पीला अखिलेश यादव की भावनाओं को ठेस पहुंचा जाएगा और अगर इनमें से दो-तीन रंगों का कुछ घालमेल हुआ तो राष्ट्रीय ध्वज संहिता के तहत अपराध हो जाएगा।
अब आप समझ सकते हैं कि भारत को छोड़कर दूसरे देशों का रुख करने वाले संपन्न लोगों की असली दुविधा किस तरह की है। आप किसी भी रंग की अंडरवियर पहनें, इससे किसी-न-किसी पार्टी के असहज हो जाने की आशंका होती है और आपको ‘अंडरवियर’ तो पहनना ही होगा क्योंकि अगर आपके पास ‘लूट’ का कुछ भी माल है तो उसे छिपाना भी तो होगा! मुझे उनसे सहानुभूति है जिनके पास लूट का कोई माल नहीं है, फिर भी वे अपने हौसले को बुलंद रखने के लिए ‘अंडरवियर’ पहन लेते हैं। फिर ऐसे भी हैं जो बेशक आपको दिखे नहीं लेकिन उन्होंने पहन जरूर रखा हो। मैं जब भी गोल्फ खेलने जाता हूं, तो हमेशा एक और अंडरवियर अपने बैग में रख लेता हूं। क्या पता कब पहन रखे अंडरवियर में छेद हो जाए!
(अभय शुक्ला रिटायर्ड आईएएस और लेखक हैं। यह avayshukla.blogspot.com से लेख का संपादित अंश है)
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