इस साल 13 मई को एक खबर की शीर्षक था, ‘संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध संस्था ने भारत के मानवाधिकार आयोग की लगातार दूसरे साल मान्यता रद्द की।’ इसके साथ लिखा था कि, ‘इस फैसले से भारत की मानवाधिकार परिषद और संयुक्त राष्ट्र महासभा की अन्य संस्थाओं में वोट करने की योग्यता प्रभावित हो सकता है।’
इस लेख में हम बताएंगे कि आखिर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को मान्यता न देने का फैसला क्यों लिया गया। पिछले साल 9 मार्च 2023 को कुछ गैर सरकारी संगठनों (इसमें मेरा संगठन भी शामिल है) ने संयुक्त राष्ट्र से जुड़ी संस्था, ग्लोबल अलायंस ऑफ़ नेशनल ह्यूमन राइट्स इंस्टीट्यूशंस (GANHRI) को पत्र लिखकर भारत की इस मोर्चे पर मान्यता की स्थिति की समीक्षा करने का आग्रह किया था, क्योंकि भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में स्वतंत्रता, बहुलवाद, विविधता और जवाबदेही का अभाव राष्ट्रीय संस्थानों पर संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों (जिन्हें 'पेरिस सिद्धांत' कहा जाता है) के विपरीत थी।
हमारे पत्र का संज्ञान लेते हुए और दूसरे नागरिक समाज के प्रस्तावों को देखते हुए वैश्विक संस्था ने अगले 12 महीनों के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इस आधार पर मान्यता देने से इनकार कर दिया कि यह अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने और भारत में बढ़ रहे मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों को रोकने में नाकाम रहा है। इसके साथ ही मानवाधिकार आयोग से कहा गया कि वह अपनी कार्य प्रणाली में सुधार करे, लेकिन एक साल का वक्त गुजरने के बाद भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया। इसी आधार पर लगातार दूसरे साल इसकी मान्यता को मान्यता न देने का फैसला किया गया।
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तो आखिर ऐसी कौन सी बातें थीं जिन्हें पैरिस सिद्धांतों का उल्लंघन माना गया? सबसे पहला था आयोग की स्वतंत्रता। आयोग में नियुक्तियों और इसकी कार्यप्रणाली को स्वतंत्र नहीं माना गया। आयोग के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, केंद्रीय गृह मंत्री, लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष के नेताओँ और राज्यसभा के उपसभापति की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। लेकिन 2019 के बाद से लोकसभा में विपक्ष के नेता का पद खाली है इस कारण चयन समिति में विपक्ष की सिर्फ एक ही आवाज रह गई है।
आयोग के अध्यक्ष के रूप में सुप्रीम कोर्ट के जज अरुण मिश्रा को उनके रिटायरमेंट के बाद नियुक्त किया गया, हालांकि उनकी नियुक्ति पर चयन समिति में विपक्ष की इकलौती आवाज की तरफ से असहमति जताई गई थी।
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दूसरी बात यह कि मानवाधिकार आयोग सरकार और पुलिस द्वारा किए गए मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की जांच पुलिस अफसरों से ही कराता है। यह हितों के टकराव का मामला है जिसे सरकार दखल से मुक्त नहीं कहा जा सकता। इस बात को 2023 में सामने रखने के बावजूद मोदी सरकार ने इस व्यवस्था को दुरुस्त करने या सलाह-मशविरा करने की किसी प्रक्रिया को शुरु नहीं किया।
नवंबर 2023 में सात पूर्व आईपीएस अधिकारियों को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के विशेष मॉनिटर के तौर पर नियुक्त किया गया। इनमें से एक पर 2018 में भ्रष्टाचार का आरोप है जब वह स्पेशल सीबीआई डायरेक्टर के तौर पर तैनात था। इस अफसर को देश की अग्रणी जांच एजेंसी में आतंकवाद, घुसपैठ विरोधी, सांप्रदायिक दंगों और हिंसा के मामलों को देखने की जिम्मेदारी दी गई थी। इसी तरह राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के एक पूर्व डायरेक्टर को भी आयोग का सदस्य बनाया गया।
भारत को बार-बार राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में विविधता की कमी के बारे में चिंताओं से अवगत कराया गया है और विविध भारतीय समाज के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करके "अपने ढांचे और कर्मचारियों में बहुलवादी संतुलन" रखने के लिए कहा गया है, जिसमें धार्मिक या जातीय अल्पसंख्यक शामिल हों, लेकिन यह इन्हीं तक सीमित नहीं है। लेकिन ऐसा इस देश में नहीं किया गया जहां प्रधानमंत्री लगातार अपने चुनावी भाषणों में अल्पसंख्यकों के खिलाफ बयानबाजी करते रहते हैं।
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एक और मुद्दा है। और वह यह है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सिविल सोसायटी (नागरिक समाज) और मानवाधिकार रक्षकों के साथ कोई तालमेल नहीं रखता है। इस मुद्दे पर एनएचआरसी को "मानवाधिकारों की प्रगतिशील परिभाषा को बढ़ावा देने के लिए व्यापक और उद्देश्यपूर्ण तरीके से" अपने जनादेश की व्याख्या करने के लिए कहा गया था और सभी मानवाधिकार उल्लंघनों पर कदम उठाने और सरकारी अधिकारियों के साथ लगातार इस बाबत कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए कहा गया था।
लेकिन यह सब उन लोगों को आश्चर्यचकित कर सकता है जिन्होंने इस सरकार से इस मुद्दे पर सहमति जताई है कि हिंसा का विरोध करने वाले सभी लोग 'राष्ट्र-विरोधी' हैं। हालांकि, बाहरी दुनिया ये सब ऐसे नहीं देखती है क्योंकि उचित लोकतंत्रों को नागरिक समाज के साथ जुड़ना चाहिए।
भारत में मानवाधिकार रक्षकों को बरसों तक बिना मुकदमा चलाए ही यूएपीए जैसे विभिन्न तानाशाही कानूनों के तहत जेल में डाल दिया जाता है और इसका राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग संज्ञान तक नहीं लेता है। इनमें भीमा कोरेगांव-एल्गर परिषद का पांच साल से अधिक चलने वाला मामला हो, कश्मीर के मानवाधिकार कार्यकर्ता खुर्रम परवेज का मामला हो जिन्हें नवंबर 2021 से जल में डाला हुआ हो या फिर उमर खालिद का मामला हो।
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भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इन मामलों में कोई भी उचित कदम नहीं उठाया और न ही संयुक्त राष्ट्र की चिंताओं पर कोई अमल किया। मणिपुर, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा और उत्तराखंड में सांप्रदायिक हिंसा और अन्य मामलों पर आयोग निष्क्रिय ही साबित हुआ है। ऐसा करके उसने कोई महिमा नहीं पाई है और खुद आयोग और सरकार जिस संकट में है, उसके लिए वह खुद जिम्मेदार है।
भारत के पास फिलहाल ‘ए’ रेटिंग है और दोबारा मान्यता टलने का मतलब है कि उसकी यह रेटिंग खतरे में है। इसका मतलब यह भी है कि एनएचआरसी संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद और अन्य निकायों में अपनी मतदान स्थिति खो देगा। इसे केवल सही काम करके ही ठीक किया जा सकता है, जिसे करने से सरकार को कोई नहीं रोक रहा है।
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उस पत्र के हस्ताक्षरकर्ताओं सहित हम सभी भारत को वैश्विक संस्था में उच्चतम स्तर पर मान्यता प्राप्त होते देखना चाहते हैं। हालांकि ऐसी मान्यता ईमानदारी से मिलनी चाहिए, जो भारत में एक मजबूत और स्वतंत्र मानवाधिकार निकाय को प्रतिबिंबित करती हो और जो विशेष रूप से सरकार द्वारा अधिकारों के उल्लंघन का जवाब देने के लिए प्रतिबद्ध हो। यह लोकतंत्र की स्वघोषित जननी को दिया गया स्वत: अधिकार नहीं होना चाहिए।
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